— फ़ैसल ख़ान —
अभी सात आठ महीने पहले की बात है। हमारी सोशल मीडिया टीम के एक साथी ने बताया कि एक साधू आपका फोन नंबर मांग रहे हैं। वह आपसे बात करना चाहते हैं। पहले तो मुझे थोड़ी झिझक हुई, फिर मुझे लगा कि नहीं बात तो करनी ही चाहिए। उनसे मेरी फोन पर बात हुई, उसके बाद सोशल मीडिया पर जुड़ाव हुआ, जो दिनोदिन बढ़ता रहा। यह संत राघवेंद्र दास जी महाराज थे।
राघवेंद्र दास का जन्म बिहार के चंपारण में हुआ! वे इस वर्ष दिसम्बर में 25 वर्ष के होंगे, जिनका सम्प्रतिवास काशी है ! राघवेंद्र दास जी ब्रह्मलीन अवधबिहारी दास जी द्वारा दीक्षित हैं! उन्होंने हिंदू दर्शन के साथ समसामयिक साहित्य और सूफी साहित्य का भी गहन अध्ययन किया है। देशाटन और गहरी आध्यात्मिक रुचि उनकी खास विशेषता है! गीता अध्ययन में गहरी रुचि है। वह काशी में अपनी शिक्षा-दीक्षा के आठ वर्ष होने के बाद भारत भ्रमण पर निकले ! इनके जीवन का सिर्फ एक ही उद्देश्य व संकल्प है – समाजहित, राष्ट्रहित एवं सद्भावना।
फोन पर हमारी बातचीत के बाद संत राघवेंद्र दास जी चातुर्मास के लिए असम चले गए। हमने तय किया था कि चतुर्मास के खत्म होते ही मुलाकात करेंगे। हमारा अपने साथियों के बीच विश्व शांति दिवस पर सद्भावना को लेकर एक कार्यक्रम करने की रूपरेखा पिछले महीने तय हुई थी। मैंने उनको कहा कि आप अगर सही समझें तो इसी कार्यक्रम में आ जाइए, उसके बाद हम दो तीन दिन यहीं साथ में रहेंगे जिसके लिए वो राजी हो गये। वे ठहरे फक्कड़ साधू, बेपरवाह, मोह-माया के बंधनों से मुक्त, लेकिन हालात से बाखबर और बेहद व्यावहारिक। खैर ये तय हो गया कि वह सितंबर में दिल्ली आएंगे और एक दिन के कार्यक्रम के बाद दो तीन दिन हम साथ रहेंगे।
इस वक्त में, जहाँ अजीबोगरीब धार्मिक अलगाव और अकेले-अकेले की खब्त का माहौल है, मैं थोड़ा हिचका और परेशान भी हुआ कि मैं तो दोनों तरफ से मरूंगा। कोई कहेगा कि हमारे साधू को क्यों बुलाया, वह तो केवल हमारे हैं! जब वह ऐसा कहेंगे तो सारी जिन्दगी इंसानियत, सेकुलरिज्म और समता की डींगें हांकने वाले, हमारे कुछ दिल्ली के ज्ञानीजन भी ज्ञान देंगे कि हाँ फैसल भाई को किसी दूसरे धर्म के साधू को अपने यहाँ बुलाने का क्या हक है? अपने किसी मौलवी को बुलाते! बहरहाल, सब कुछ सोचने-विचारने के बाद मैंने तय कर लिया कि हम आपस में मिलना-जुलना भला कैसे छोड़ सकते हैं, और ऐसा मनमौजी संत, जिसका आभास मुझे फोन कॉल्स और सोशल मीडिया से हो ही गया था इनसे तो जरूर ही मिलना है।
मैंने संत राघवेंद्र दास जी से कहा, आप जरूर आइए और सितंबर में ही कोई दो तीन दिन आप और हम साथ रहेंगे। मैं अकेला तो रहता नहीं इसलिए मैंने अपने साथियों को भी समझाया कि हर मेहमान का हक होता है – सम्मान व प्रेम और दिल खोलकर मेहमाननवाजी ! अक्सर सामाजिक साथी बातों और बहसों के बड़े माहिर होते हैं ! पहले ही दिन सारा ज्ञान उड़ेलने के चक्कर में बहस-मुबाहसों से बजाय नजदीकी के, आपस में दूरियां बना बैठते हैं। बेचारे एक्टिविस्टों की भी कोई गलती नहीं उनकी तरबियत ही कुछ इस अंदाज में होती है! कैपेसिटी बिल्डिंग की वर्कशॉप में छोटा बनना, दूसरों की खिदमत, अपनी हस्ती को मिटाना भला कैसे सीखेंगे? वे जो सीखते हैं वही करते हैं! कई लोगों को तो मैंने देखा है आते ही या मिलते ही, न कोई खैरियत, न हाल-चाल, न कोई मोहब्बत की बात ! बस एक डायलॉग बोलते हैं- साथी क्या चल रहा है? जिसमें तंज और अहंकार छुपा होता है, वरना वे खूब जानते हैं कि क्या चल रहा है, लेकिन शुक्र है कि खुदाई खिदमतगार इस मर्ज से थोड़े बहुत बचे हुए हैं।
हजरत मोहम्मद साहब का भी कथन है कि तीन दिन तक मेहमान की दिलजोई उसका हक है यानी हमपर मेहमान का हक भी होता है। हक यह कि उसको खुश रखें और तीन दिन तक कोई बदमज़गी न आने दें ! बात अब कहीं से कहीं जा रही है इसलिए विषय पर आते हैं !
संत राघवेंद्र दास जी का बीस सितम्बर की रात को ही फोन आया कि मैं गाड़ी में बैठ गया हूँ और सुबह दिल्ली आ जाऊंगा ! इसके बाद सुबह फोन आया और ऑटो लेकर वह जामिया नगर आ गये जहां हम सब संत राघवेन्द्र दास जी का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। पहुंचते ही उनका जबरदस्त स्वागत किया गया। उसके बाद स्वामी जी अपने स्नान, पूजा वगैरह में मशगूल हो गये। मैं कार्यक्रम के लिए जवाहर भवन निकल गया, बाकी साथियों को जिम्मेदारी देकर कि स्वामी जी को नाश्ता वगैरह कराकर बाकी मेहमानों को साथ लेकर जवाहर भवन आएं। कई लोगों को लगेगा कि इस सब का जिक्र हम कहीं अपने प्रचार में तो नहीं कर रहे हैं।
मुझे तो हमेशा से लगता है कि चोरी-छिपे, चुपके से करने वाला हर काम बड़ा नहीं होता है बल्कि हर चोर छुपकर चोरी करता है! जेब काटने वाले भी बेहद पर्दे में अपने सारे ऑपरेशन को अंजाम देते हैं ! इसलिए इसमें सिर्फ यह मायने रखता है कि आपका इंटेंशन या नीयत क्या है? यही महत्त्वपूर्ण भी है कि जब नफरत का प्रचार डंके की चोट पर हो रहा हो और जब प्रचार ही नीयत बन गया हो तो हमें भी सोचना होगा कि हमारे मोहब्बत की खुशबू दूसरों तक कैसे पहुँचे। जब कुछ लोग और मीडिया नफरत के प्रचार में दिन रात एक किये हुए हैं हम अपनी मुहब्बत की इस खुशबू को फैलने से भला क्यों रोकें बल्कि हमारा फर्ज है कि ये मुहब्बत और इश्क के किस्से आम हों। मीरा, कबीर, बुल्लेशाह, रैदास, रसखान, गाँधी, बादशाह ख़ान सभी को हम इसीलिए तो याद करते हैं। प्रेम हटा दो बीच से तो बचता ही क्या है? समाजवाद की बुनियाद में भी यही प्रेम है, प्रेम ही बापू का सर्वोदय और बादशाह ख़ान की खिदमत का फलसफा है।
पहला दिन तो जवाहर भवन में बीता जिसमें पूरे दिन उनका व्यवहार मुझे और प्रभावित करता रहा। वह प्रवचन करते हैं, शानदार गीता प्रवचन, और भी बहुत कुछ, इसलिए ऐसे व्यक्ति का अक्सर दूसरों को सुनना काफी मुश्किल होता है। लेकिन वो पूरे मन से लगातर एक एक साथी को सुनते रहे ! उसके बाद अपनी बात भी बेहद विनम्रता से रखी। इस तरह पहला दिन तो ऐसे ही बीत गया।
शाम को हम वापिस घर आए और आते ही स्वामी जी अपनी संध्या और पूजा-पाठ में लग गये। पूजा-पाठ से फारिग होकर बाहर आकर चर्चा शुरू की। अब धीरे-धीरे लगने लगा कि संत राघवेन्द्र दास ने तुलसीदास की चौपाई “मिलैह न रघुपति बिन अनुरागा..” अपनी जिंदगी में पूरी तरह से उतार ली है! ये बात सिर्फ बोलने में नहीं बल्कि उनके उठने-बैठने, मिलने-जुलने खाने-पीने जैसे हर एक्शन से जाहिर होती रही। सुबह सुबह संत राघवेंद्र जी ब्राह्म महूर्त में स्नान वगैरह के बाद पूजा में लग जाते थे और मैं सुबह पांच बजे फजिर की नमाज़ के लिए उठ जाता, नमाज़ के बाद करीब साढ़े पांच बजे हम दोनों ही फ्री हो जाते थे। हमारे बाकी साथी सो रहे होते थे और हम चाय लेकर बैठ जाते थे। ऐसा बैठते कि समय का पता ही नहीं चलता। पहले दिन तो साढ़े सात बजे जब नाश्ते के लिए हमें बुलाया गया और दूसरे दिन आठ बज गए। इसमें चर्चा का विषय गीता, कुरान, हदीस, दर्शन, मीरा, कबीर और मौजूदा माहौल, सभी पर रहता और अपने अपने तजुर्बे और कई बार आंखें भर जाने की नौबत आ जाती थी, जो मेरे नजदीक सारी चर्चाओं और तजुर्बों से कहीं बड़ी दौलत है।
राघवेन्द्र जी बहुत ही सहज, सादगी और तकल्लुफ़ात से परे इंसान हैं। किसी भी काम से वह जैसे ही फ्री होते थे अपने झोले से किताब निकाली और लगे पढ़ने, मुझे डर सा भी लगा कि यह पहली बार आए हैं और हमारे यहां आने वाले हर किस्म के लोग होते हैं, हर सोच के, तो कहीं कोई बहस -मुबाहसा न हो जाए! लेकिन राघवेंद्र जी तो मेरे इन फिकरों से कोसों दूर थे। न कोई जिद, न कोई चाहत, न बहस न मुबाहसा और इतने सबके बावजूद, ना ही कोई ज्ञान प्रदर्शन।
वह तो सद्भावना, करुणा, मोहब्बत और दिलों को जोड़ने की बातें करते रहे। साथियों के बेहद असहज कर देने वाले सवाल का भी बेहद खुशगवार जवाब देते, तसल्लीबख़्श जवाब, जिसमें न घृणा न द्वेष, न अहंकार, बस सच्चा जवाब। काश हमारे धार्मिक लोग राघवेन्द्र जी जैसे साधुओं से सीख पाते, इन्हीं जैसे साधुओं के लिए कबीर दास जी ने कहा होगा…
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।।
पता ही नहीं चला कैसे तीन दिन बीत गए और इस दौरान आपस में आने वालों से खूब चर्चाओं का दौर रहा ! लोग आते रहे। साथियों ने एक छोटा सा अभिनंदन का कार्यक्रम भी रखा। पूरे दिन जोरदार बारिश के बाद भी बुलाये गए नब्बे प्रतिशत साथी, जिनकी तादाद करीब 23 थी, पहुंचे। राघवेंद्र जी ने बेहतरीन बात की, जिसमें संत, धर्म, नफरत, सब पर बात की l
हम सबके लिए संत राघवेंद्र जी जैसे मेहमान को विदा करना कभी आसान नहीं होता है क्योंकि ये वह मेहमान हैं जो साथ में दिल ले जा रहे होते हैं। अपने संग की बेहतरीन यादें छोड़ जाते हैं। मोहब्बत की यादें, इंसानियत की यादें, हमें पता ही नहीं चला कि कैसे तीन दिन बीत गए। वैसे भी जिन्दगी के खूबसूरत लम्हे बहुत जल्द गुजर जाते हैं। राघवेंद्र जी के जाने का वक्त आ गया। हमें लगा कि इस दौर में भी मोहब्बत, इंसानियत, करुणा, दर्दमंदी का जो चिराग हमारे पास था, अब अगले पड़ाव पर निकल रहा है। बस एक तसल्ली है कि ऐसे चिराग की रोशनी तो हर जगह पहुँचना जरूरी है ताकि नफरत के अँधेरे छँट जाएँ और मोहब्बत आम हो जाए।
इन खुशगवार दिनों के बीच मुझे अपने साथियों पर भी गर्व हुआ कि हम अक्सर साथियों का रोना रोते हैं कि साथी बन नहीं रहे, लेकिन मेरे साथियों यानी खुदाई खिदमतगारों ने मेहमान की ऐसी सेवा की, जो मुझे लगता है अल्फाज में बयान करना मुश्किल है, यहाँ तक कि मुझे एक लफ्ज कहने का मौका नहीं दिया, वर्ना हम सामाजिक कार्यकर्ताओं की आदत होती है हर काम में कुछ न कुछ कमी निकालना।
हम लोगों को इस पर गंभीर विचार करना चाहिए कि अगर हमें अपना कुनबा बढ़ाना है तो जिद्दीपन, हठधर्मिता में कमी करनी होगी, हाँ विचार से कोई समझौता किये बगैर। शेख़ सादी ने लिखा है कि हाथी वाले से दोस्ती करने से पहले अपने घर का दरवाजा भी दुरस्त करना जरूरी है। संत राघवेंद्र जी हमारे साथ रहकर गए तो लगा, जैसे इस घुटन के माहौल में कोई ताजा हवा हमें ताजगी देकर आगे बढ़ गई। तीन दिन तक खूब चर्चाएं होती रहीं। मुहब्बत, बंधुत्व, करुणा, दर्दमंदी, हमदर्दी, सहिष्णुता पर राघवेन्दर दास जी बार बार कहते कि धर्म तो करुणा और मुहब्बत के लिए आया है। उन्होंने सबसे ज्यादा जोर दिया कि धर्मों के बीच आपसी डायलॉग होता रहना चाहिए। उनके जैसे संतों की छांव सब तरफ पड़नी चाहिए। हमें खुशी है कि इस दौर में भी उनके जैसे लोग हैं जो प्रेम और सद्भावना का झंडा बुलंद करते हुए एकता, करुणा और मुहब्बत को ही धर्म समझते हैं!