किसलिए सरकारी स्कूलों की बलि चढ़ाई जा रही है?

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— रामस्वरूप मंत्री 

वैसे तो बच्चों की पहली पाठशाला उनका समाज होता है। लेकिन एक बच्चे को अक्षर ज्ञान ठीक से स्कूल में जाने के बाद ही हो पाता है। इसलिए अगर हम स्कूल को बच्चों के ज्ञान का स्रोत कहें तो इसमें कुछ ग़लत नहीं होगा। स्कूल एक ऐसा स्थान होता है, जहाँ बच्चों में सामूहिकता की भावना के साथ-साथ कला और श्रम की संस्कृति भी पैदा होती है। एक स्कूल केवल अक्षर ज्ञान का केन्द्र नहीं होता बल्कि वह बच्चों के मानसिक और शारीरिक विकास को बढ़ावा देने वाला स्थान भी होता है। इसलिए बच्चों की जि़न्दगी में स्कूल की अहमियत को समझते हुए स्कूलों के ढाँचे को दुरुस्त रखना किसी भी सरकार की जि़म्मेदारी होती है। जनता के पैसे जो सरकारी ख़ज़ाना भरता है उसमें सरकार की जि़म्मेदारी होती है कि वह शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएँ जनता को मुहैया कराए।

निजीकरण का नतीजा

आज हम सरकारी स्कूलों पर एक नज़र दौड़ाएं तो पाते हैं कि सरकारी स्कूलों को व्यवस्थित तरीक़े से ख़त्म करने का काम हमारी सरकारों द्वारा किया जा रहा है। आज भारत के किसी भी राज्य में सरकारी स्कूलों की हालत अच्छी नहीं है। वैसे तो देश में सरकारी स्कूलों को ख़त्म करने की योजना 1990 के पहले से ही शुरू हो गयी थी। लेकिन 1990 के दशक में नव उदारवादी नीतियाँ देश में लागू हुईं, उसके बाद किसी भी सरकार के लिए इस योजना को आगे बढ़ाना और आसान हो गया। अब शिक्षा को भी एक बाज़ारू माल बनाने की पहलक़दमी शुरू हो गयी। अब सरकारी स्कूलों को योजनाबद्ध तरीक़े से ख़त्म करने के साथ-साथ प्राइवेट स्कूलों को बढ़ावा दिया जाने लगा। इससे स्कूल शिक्षा का केन्द्र न रहकर बिज़नेस बनता चला गया।

अब पूँजीपति वर्ग ने अपना मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए शिक्षा के क्षेत्र में भी पूँजी लगानी शुरू कर दी जिससे जल्दी ही पूरे देश में प्राइवेट स्कूलों की बाढ़-सी आ गयी। अब पूँजीपति वर्ग शिक्षा के क्षेत्र में भी मोटा मुनाफ़ा कमाने लगा और स्कूलों को एक बिज़नेस के तौर पर इस्तेमाल करने लगा। आजतक की एक रिपोर्ट के अनुसार 2010 से 2016 तक भारत के 20 राज्यों के सरकारी स्कूलों में होने वाले दाखिलों में 1.3 करोड़ की गिरावट दर्ज की गयी। वहीं दूसरी तरफ़ निजी स्कूलों में इसी दौरान 1.75 करोड़ नये छात्रों ने दाखिला लिया। यह आँकड़ा इस बात की पुष्टि करता है कि सरकारी स्कूलों के ढाँचे में सुधार न करने के चलते लगातार उनकी लोकप्रियता में गिरावट आ रही है। इसके कारण आज एक मज़दूर भी अपने बच्चे को प्राइवेट स्कूल में ही भेजना चाहता है।

सरकारी स्कूलों के ढाँचे को इस बात से भी जाँचा-परखा जा सकता है कि 2016 की संसद की और 11 जनवरी 2019 की जनसत्ता की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में एक लाख से ज़्यादा सरकारी स्कूल ऐसे हैं जहाँ केवल एक शिक्षक स्कूल चला रहा है। इसमें अव्वल मध्य प्रदेश में ऐसे स्कूलों की संख्या 17,874 है और उत्तर प्रदेश 17,602 संख्या के साथ दूसरे नम्बर पर है। आज भारत में सरकारी स्कूलों के मुक़ाबले निजी स्कूलों की संख्या 450 गुना तेज़ी से बढ़ रही है।

एक तरफ़ जहाँ मोदी सरकार डिजिटल इण्डिया की बात करती है वहीं दूसरी तरफ़ स्कूलों के ये हालात डिजिटल भारत की पोल खोलकर रख देते हैं। इन हालात के चलते कोई यह नहीं चाहेगा कि उसका बच्चा ऐसे स्कूल में पढ़ने जाए जहाँ शिक्षकों की कमी के साथ-साथ स्कूली ढाँचा ही सुचारु रूप से न चल रहा हो। अभी हाल में आई एक सरकारी रिपोर्ट बता रही है कि देशभर में सरकारी स्कूलों में शिक्षकों के दस लाख पद रिक्त पड़े हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं कि आज शिक्षा ग़रीब इंसान की पहुँच से लगातार दूर होती जा रही है। 1990 के दशक में शुरू हुई नवउदारवादी नीतियों का असर शिक्षा के क्षेत्र में भी देखने को मिल रहा है। तब से सत्ता में कोई भी पार्टी रही हो उसने व्यवस्थित तरीक़े से सरकारी स्कूलों के पंख कतरने का काम किया है। जबकि दूसरी तरफ़ प्राइवेट स्कूलों को बढ़ावा देने का काम भी उन्होंने बख़ूबी किया है।

विकल्प क्या है ?

‘सबको समान एवं नि:शुल्क स्कूली शिक्षा’ ही विकल्प है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि जनता की एकजुटता वह ताक़त होती है जो किसी भी सरकार को झुकाने का दम रखती है। लिहाजा, जो शिक्षा व्यवस्था एक इंसान को असल में इंसान बनाने का काम करती है उसे बचाने के लिए आज देश के मेहनतकश अवाम को आगे आना होगा। अगर सरकारी स्कूलों को बचाने का आज हम प्रयास नहीं करेंगे तो भविष्य हमारे और हमारे बच्चों के लिए अंधकारमय होगा। क्योंकि जब हमारे बच्चों को अच्छी शिक्षा ही नहीं मिल पायेगी तब हम कैसे कह सकते हैं कि वे अपने भविष्य को सुनिश्चित कर पायेंगे।

आज हमें शिक्षा के मसले को हर पहलू से देखने की ज़रूरत है। पूरे देश में एकसमान शिक्षा व्यवस्था लागू करवाने के लिए जन एकजुटता के साथ सरकार पर दबाव बनाना होगा। यूँ तो समान तथा पड़ोस के स्कूल की शिक्षा की पैरवी कोठारी कमीशन, राष्ट्रीय शिक्षा नीति और सुप्रीम कोर्ट के उन्नीकृष्णन फै़सले (1993) द्वारा की जा चुकी है परन्तु ये सभी बातें सिर्फ़ काग़ज़ी साबित हुईं। वास्तविकता में कोई क़दम सरकार ने नहीं उठाया। क्योंकि समान स्कूली व्यवस्था लागू कैसे करेंगे, कौन ज़िम्मेदार होगा, यह बात सिरे से ग़ायब थी। और जब इसे व्यावहारिकता का जामा पहनाया गया, यानी क़ानून बना तो सरकार समान स्कूल व्यवस्था की बात को निगल गयी।

साफ़ है कि देश के तथाकथित आर्थिक विकास के नाम पर बच्चों के भविष्य का सौदा किया जा रहा है, उनके सपनों को अमीर और ग़रीब में बाँटा जा रहा है। प्रश्न यह उठता है कि क्या इस देश में समान स्कूल व्यवस्था लागू की जा सकती है?

ऐसा करना मुमकिन है। इस बात को सरकार द्वारा बैठायी गयी कमेटियाँ ख़ुद स्वीकार करती आयी हैं। 1966 की कोठारी कमीशन की रिपोर्ट तथा शिक्षा नीति 1968 ने कहा था कि अगर सरकार सकल घरेलू उत्पाद का 6 प्रतिशत शिक्षा पर ख़र्च करती है तो समान स्कूल व्यवस्था के साथ अच्छी उच्च शिक्षा भी प्रदान की जा सकती है। फ़िनलैण्ड, जापान, ब्रिटेन, फ़्रांस, स्केन्डिनेवियन देशों में सरकारें जनता को नि:शुल्क व समान शिक्षा का अधिकार दे सकती हैं तो भारत में यह क्यों नहीं हो सकता ? ‘डिजिटल इण्डिया’ ‘न्यू इण्डिया’ की नौटंकी किसलिए ?

हमें भी यह अधिकार हासिल करना होगा। दिल्ली में चलाया जा रहा ‘स्कूल बचाओ अभियान’ पूरे देश में सबको समान एवं नि:शुल्क स्कूली शिक्षा की माँग करता है। अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच भी सबको समान एवं निशुल्क स्कूली शिक्षा का अभियान चला रहा है जिसमें तमाम छात्र-युवा और शिक्षकों के संगठन लामबद्ध हैं। मंच का कहना है कि बच्चे के लिए शिक्षा का बुनियादी अधिकार बिना किसी भेदभाव के सुनिश्चित करना सरकार की जि़म्मेदारी है। सरकार ख़ुद हमसे वायदे करती आयी है पर हर बार मुनाफ़ाखोर कारपोरेट कम्पनियों को मुफ़्त ज़मीन, टैक्स माफ़ी व बेल आउट पैकेज़ पर सरकारी कोष लुटाया जाता है जो आसमान से नहीं टपकता बल्कि ग़रीब जनता की गाढ़ी कमाई से अप्रत्यक्ष कर वसूल करके उसे सरकार हासिल करती है।

कुल सरकारी ख़ज़ाने का लगभग 97 प्रतिशत हिस्सा मेहनतकश जनता द्वारा अदा किये गये अप्रत्यक्ष कर (यानी गेहूँ, चावल, माचिस, चीनी, तेल आदि ख़रीदने पर दिये जाने वाले कर) से आता है। ज़ाहिर है कि सरकार महज़ पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी होकर रह गई है। इसका सबसे ज्यादा दुष्परिणाम शिक्षा के क्षेत्र में दिख रहा है। आज शिक्षा बाज़ारू माल बन गयी है।

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