वनवासियों के कितने काम आ रहा है वनाधिकार अधिनियम?

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— शुचिता झा, ज़ुम्बिश —

पिछले कुछ समय से वन समुदायों द्वारा न केवल अपने आवास के संसाधनों तक पहुंच बनाने, बल्कि वनों पर अपना स्वामित्व स्थापित करने की मांग में भी वृद्धि हुई है। वे वन अधिकार अधिनियम के एक कम उपयोग में लाए गए प्रावधान का इस्तेमाल करके ऐसा कर रहे हैं। हालांकि वन विभाग अपने स्वामित्व से कोई समझौता नहीं करना चाहता। इस कानून के माध्यम से समुदायों को कैसे लाभ हुआ है, यह समझने के लिए शुचिता झा और जुम्बिश ने ओड़िशा और छत्तीसगढ़ की यात्रा की। इसके साथ ही उन्होंने वन संसाधनों के सतत उपयोग को सुनिश्चित करने के लिए स्थापित किए जा रहे तंत्रों की भी पड़ताल की।

छत्तीसगढ़ के उदंती सीतानदी टाइगर रिजर्व के 18 गांवों के निवासियों ने 20 जून को व्यस्त राष्ट्रीय राजमार्ग 130 सी को अवरुद्ध कर दिया। गरियाबंद जिले के 18 गांवों में से एक नागेश के अर्जुन नायक कहते हैं, “हमें जीवनयापन के लिए वन संसाधनों की आवश्यकता है। टाइगर रिजर्व होने के कारण हम पहले से ही कई प्रतिबंधों के साथ जीवन जी रहे हैं। बिजली की आपूर्ति न होने के साथ ही चारागाह भूमि भी न के बराबर है। इसके अलावा हम कोई निर्माण कार्य भी नहीं कर सकते।”

गांव के निवासी अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 की धारा 3(1)(i) के तहत अपने गांवों के आसपास के वन संसाधनों पर अधिकार की मांग कर रहे थे, जिसे वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) के नाम से जाना जाता है।

एफआरए के तहत, जंगलों में रहने वाले समुदाय दो प्रकार के अधिकारों के हकदार हैं : पहला, वनभूमि पर बसने और खेती का व्यक्तिगत अधिकार और दूसरा अधिकारों का एक व्यापक समूह है जिसे सामुदायिक वन अधिकार (सीएफआरआर) कहा जाता है। इसके अंतर्गत समुदाय बांस और तेंदूपत्ता जैसे लघु वनोपज का प्रबंधन, संग्रह और विक्रय कर सकते हैं। धारा 3(1)(i) के प्रावधान, जिन्हें सामुदायिक वन संसाधन अधिकार (सीएफआरआर) कहा जाता है, का दायरा और भी व्यापक है। वे समुदायों की वन उत्पादों तक पहुंच और उनका उपयोग करने के अधिकारों को मान्यता देने के अलावा “किसी भी सामुदायिक वन संसाधन की रक्षा, पुनरुत्पादन, संरक्षण या प्रबंधन करने के अधिकारों को भी मान्यता देते हैं, जिसे वे पारंपरिक रूप से स्थायी उपयोग के लिए संरक्षित करते रहे हैं।”

एक बार किसी समुदाय के लिए सीएफआरआर को मान्यता मिलने के बाद जंगल का स्वामित्व वन विभाग के बजाय ग्राम सभा (ग्राम परिषद, जिसमें सभी मतदाता शामिल हैं) के हाथों में चला जाता है। ग्राम सभा प्रबंधन, उपयोग और संरक्षण के लिए अपने नियम और कानून बनाने के लिए स्वतंत्र रहती है। इसकी सहमति के बिना, जंगल को वन्यजीव संरक्षण सहित किसी भी उपयोग के लिए डायवर्ट नहीं किया जा सकता है। अतः प्रभावी रूप से देखें तो ग्राम सभा वनों के प्रबंधन के लिए नोडल बॉडी बन जाती है। भुवनेश्वर स्थित एक गैर-लाभकारी संस्था वसुंधरा ने कई राज्यों में एफआरए कार्यान्वयन को सुविधाजनक बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। संस्था के कार्यकारी निदेशक वाई गिरि राव के अनुसार, सीएफआरआर को अधिकारों के एक “ओपन एंडेड और सांकेतिक” समूह के रूप में देखा जा सकता है।

वह कहते हैं, “अगर किसी अधिकार का उल्लेख एफआरए में नहीं किया गया है, फिर भी आदिवासी और वनवासी इस प्रावधान का उपयोग करके अपनी मांग रख सकते हैं। उन्होंने आगे कहा, “सीएफआरआर के तहत अधिकारों में वैसी वन उपज भी शामिल है जो उनकी प्रथागत सीमा में नहीं आती है, लेकिन जिसका समुदायों द्वारा सदियों से उपयोग किया जाता रहा है। इस तरह, सीएफआरआर उन समुदायों को भी अधिकार देता है जो खानाबदोश हैं और जिनका मुख्य पेशा पशुपालन है।”

हालांकि धारा 3(1)(i) हमेशा से ही एफआरए के अंतर्गत आती थी, लेकिन शुरुआत में समुदाय इसके तहत अधिकारों का दावा नहीं कर सकते थे। एफआरए के तहत अधिकारों का दावा करने के लिए समुदायों को केंद्रीय जनजातीय मामलों के मंत्रालय द्वारा प्रदान किए गए फॉर्मों के माध्यम से आवेदन करना होता है। 2012 तक इसके दो स्वरूप थे- व्यक्तिगत अधिकारों के लिए फॉर्म ए और सीएफआर के लिए फॉर्म बी। लेकिन फॉर्म बी में धारा 3(1)(i) के तहत दिए गए अधिकार शामिल नहीं थे। 2012 में सरकार ने धारा 3(1)(i) के तहत अधिकार प्रदान करने के लिए एक अन्य फॉर्म सी को पेश करने के लिए एफआरए नियमों में संशोधन किया।

2012 के बाद से वैसे वन समुदायों और गांवों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है जो सीएफआरआर की मांग कर रहे हैं। धारा 3(1)(i) के तहत अधिकार प्रदान करने वाली राज्य सरकारों की संख्या में भी वृद्धि हुई है। डाउन टू अर्थ के विश्लेषण के अनुसार, मार्च 2022 तक भारत के 28 राज्यों में से नौ (ओडिशा, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तराखंड, झारखंड, कर्नाटक, केरल और हिमाचल प्रदेश) सीएफआरआर प्रदान कर रहे हैं, जबकि चार राज्यों (राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश) में आवेदनों की प्रक्रिया जारी है। तमिलनाडु, गोवा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, मध्य प्रदेश, बिहार, असम और त्रिपुरा में कोई दावा दायर नहीं किया गया है। नागालैंड और सिक्किम में पहले से ही विशेष कानून हैं जो सामुदायिक अधिकारों को सुरक्षित करते हैं, जबकि मेघालय, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश और मिजोरम ने अधिनियम को लागू नहीं किया है। पंजाब और हरियाणा में कोई महत्वपूर्ण आदिवासी आबादी नहीं हैं।

छत्तीसगढ़ ने विशेष रूप से बड़ी संख्या में सीएफआरआर दावों का निस्तारण किया है। इस राज्य ने 2019 में अपना पहला सीएफआरआर दावा (धमतरी जिले का जबरा गांव) स्वीकार किया। कुल मिलाकर, पिछले चार वर्षों में इसने अपने 33 में से 25 जिलों से 3,903 गांवों और चार नगर पंचायतों से सीएफआरआर दावे प्राप्त किए। छत्तीसगढ़ अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति विकास विभाग के एक आधिकारिक दस्तावेज के अनुसार, मार्च 2022 तक 3,782 आवेदन स्वीकार किए हैं। एक सरकारी अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि राज्य ने अपने 20,000 गांवों में से 12,500 को सीएफआरआर प्रदान करने के लिए चिन्हित किया है।

छत्तीसगढ़ के वन अधिकार कार्यकर्ता आलोक शुक्ला कहते हैं, “हाल के वर्षों में सीएफआरआर पर ध्यान केंद्रित किया गया है। जब एक गांव के दावे स्वीकार कर लिए जाते हैं, तो पड़ोसी गांव भी दिलचस्पी लेने लगते हैं।” उदंती सीतानदी टाइगर रिजर्व में चल रहा विरोध भी राज्य सरकार द्वारा 2021 में रिजर्व में स्थित पांच गांवों के सीएफआरआर दावों को स्वीकार करने के बाद ही शुरू हुआ था। विरोध करने वाले 18 गांवों सहित रिजर्व के बाकी 47 गांवों ने अब सीएफआरआर की मांग की है। अगस्त 2021 में धमतरी जिले में 4,127 हेक्टेयर वनों पर तीन नगर पंचायतों के दावों को स्वीकार करने के साथ ही छत्तीसगढ़ शहरी क्षेत्र में सीएफआरआर देने वाला पहला राज्य बन गया।

ओडिशा दूसरा राज्य है जो बड़े पैमाने पर सीएफआरआर दावों को स्वीकार कर रहा है। राव कहते हैं कि इसने मार्च 2022 तक प्राप्त 6,068 सीएफआरआर दावों में से 4,098 को स्वीकार कर लिया है। नयागढ़ के जिला कल्याण अधिकारी, दयानिधि नाइक कहते हैं, “यह जिले में समुदाय के नेतृत्व वाली पारिस्थितिक बहाली, वन संरक्षण, टिकाऊ वन-आधारित आजीविका और जैव विविधता संरक्षण की मान्यता की दिशा में एक कदम है।” नयागढ़ में पारंपरिक वन संरक्षण समुदाय पिछली एक सदी से अपनी प्रबंधन प्रणाली का अभ्यास कर रहे हैं। नवंबर 2021 में, राज्य ने जिले के 24 ऐसे गांवों को सीएफआरआर प्रदान किया।

बंगलुरु स्थित गैर-लाभकारी संस्था अशोका ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड द एनवायरनमेंट (अट्री) द्वारा 2020 के एक अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि उल्लेखनीय वन और जनजातीय आबादी वाले चार राज्य- मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड और महाराष्ट्र में लगभग 60,000 गांव सीएफआरआर अधिकारों का दावा कर सकते हैं। इन गांवों के अंतर्गत लगभग 1,83,000 वर्ग किलोमीटर का वन क्षेत्र आता है। “इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट 2021” के अनुसार, झारखंड में आदिवासी जिलों के अंतर्गत राज्य का 73.59 प्रतिशत क्षेत्र है, जबकि छत्तीसगढ़ के लिए यह आंकड़ा 68.5 प्रतिशत, मध्य प्रदेश के लिए 49.35 प्रतिशत और महाराष्ट्र के लिए 46.87 प्रतिशत है।

अध्ययन के प्रमुख लेखक शरतचंद्र लेले कहते हैं, “सरकार को वन परिदृश्य पर अपनी कटाई या बहिष्करण उन्मुख योजनाओं को लागू करने या संयुक्त वन प्रबंधन (जेएफएम) जैसी छद्म भागीदारी प्रक्रियाओं के माध्यम से अपना एजेंडा लागू करने की अनुमति देने या जंगलों को खुला छोड़ने के बजाय, सीएफआरआर ग्राम सभा द्वारा विकेन्द्रीकृत वन प्रबंधन की वैधानिक प्रक्रिया सुनिश्चित करता है।

देश में एफआरए कार्यान्वयन के लिए नोडल एजेंसी मिनिस्ट्री ऑफ ट्राइबल अफेयर्स, सीएफआर और सीएफआरआर के लिए अलग-अलग आंकड़े न रखकर उन्हें सीएफआर श्रेणी के अंतर्गत एक साथ रखती है। लेकिन मंत्रालय के आंकड़ों से पता चलता है कि राज्य अब व्यक्तिगत अधिकारों की तुलना में सामुदायिक वन अधिकारों को स्वीकार करने में अधिक सहज हैं। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (टीआईएस), मुंबई द्वारा 2021 में किए गए एक अध्ययन से भी यही निष्कर्ष निकला था। इस अध्ययन में एफआरए के कार्यान्वयन के बाद से 15 वर्षों में दावा निपटान की प्रवृत्ति का विश्लेषण किया गया था। रिपोर्ट के अनुसार, “2014 से 2021 तक प्राप्त सभी व्यक्तिगत वन अधिकार दावों की मान्यता दर केवल 27 प्रतिशत है। हालांकि, सीएफआर के लिए यह 69प्रतिशत है।” स्कूल ऑफ हैबिटेट स्टडीज में एसोसिएट प्रोफेसर गीतांजॉय साहू का कहना है कि 2014 से व्यक्तिगत दावों में कमी आई है, लेकिन सामुदायिक वन अधिकारों का प्रतिशत पूरे भारत में बढ़ा है।

जरूरी बदलाव

एफआरए के तहत सीएफआरआर पर हालिया फोकस एफआरए के दूसरी पीढ़ी के उपयोग की शुरुआत है। अधिनियम के कार्यान्वयन के पहले तीन वर्षों में (2008-10) सामुदायिक अधिकार प्रावधान का शायद ही कभी उपयोग किया गया था। अगस्त 2009 में, महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के दो आदिवासी गांव- मेंधा लेखा और मरदा सीएफआरआर पाने वाले पहले गांव बन गए। धारा 3 (1)(i) के तहत लघु वनोपज को इकट्ठा करने और बेचने का अधिकार इसमें शामिल है। राज्य सरकार ने इसे फॉर्म बी में “अन्य अधिकार” कॉलम के तहत अनुमति दी थी। इसके पहले तक सामुदायिक अधिकारों में मुख्यतः केंद्रों या स्कूलों जैसे सामुदायिक या सरकारी बुनियादी ढांचे के लिए वन भूमि को डायवर्ट करना शामिल था।

पिछले दशक में और विशेष रूप से पिछले कुछ वर्षों में सीएफआरआर प्रदान करने में इस वृद्धि का कारण क्या है? नाम न छापने की शर्त पर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के एक सलाहकार कहते हैं, “एफआरए के पहले चरण का मुख्य आकर्षण पट्टा (भूमि अधिकार) देकर आवास और खेती के अधिकार का निपटान था। लेकिन आदिवासी और वनवासी समुदायों का एक राजनीतिक क्षेत्र बनाने के लिए पूर्ण प्रबंधन का अधिकार न केवल आकर्षक है, बल्कि सशक्त भी है, क्योंकि ये समुदाय सरकारी विभाग के आने से पहले जंगलों का प्रबंधन करते थे। छत्तीसगढ़ और ओडिशा दोनों में सत्तारूढ़ राजनीतिक नेतृत्व सीएफआर देने में मुखर रहा है। ओडिशा में 2019 के आम चुनावों के साथ-साथ आदिवासी बहुल क्षेत्रों में हुए स्थानीय चुनावों में सत्तारूढ़ पार्टी की हार भी इसका एक कारण हो ऐसा संभव है। ओडिशा सरकार के एक सचिव ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “निपटान और खेती के व्यक्तिगत अधिकारों को मान्यता दिए जाने के बाद सामुदायिक अधिकारों को मान्यता देना तार्किक है। मुख्यमंत्री कार्यालय से इसे एक मिशन की तरह लेने का राजनीतिक संदेश आया था।”

ओड़िशा स्थित वन अधिकारों के स्वतंत्र विशेषज्ञ तुषार दास कहते हैं कि सीएफआरआर के लिए ग्राम सभाओं की ओर से भी जोर दिया गया है। दास कहते हैं कि छत्तीसगढ़ सीएफआरआर दाखिल करने और निपटान की सुविधा के लिए एक एफआरए सपोर्ट सेल स्थापित करने जा रहा है। छत्तीसगढ़ में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम इस प्रक्रिया को गति देने के लिए राज्य सरकार के साथ काम कर रहा है। राजस्थान (जहां एफआरए कार्यान्वयन अपेक्षाकृत खराब रहा है) ने अधिकारों के बारे में जागरुकता फैलाने और सामुदायिक संसाधन अधिकार देने में सक्रिय होने के लिए पिछले साल अगस्त से वन अधिकार अभियान चलाया है।

टिस के विश्लेषण से पता चलता है कि वन उपज से हुआ प्रत्यक्ष आर्थिक लाभ, सामूहिक सौदेबाजी की शक्ति और जमीनी स्तर पर संगठनों के मजबूत होने के कारण सीएफआरआर पट्टों की मांग में वृद्धि हुई है। टिस रिपोर्ट कहती है, “इसके लिए ग्राम सभाओं की बढ़ी हुई शक्ति और सामूहिक कार्रवाई और उन्हें वन अधिकार एनजीओ एवं फंडिंग एजेंसियां जिम्मेदार हैं।”

सीएफआरआर प्राप्त करने वाले गांव किस प्रकार जंगलों और इसकी उपज का प्रबंधन कर रहे हैं, इसका अध्ययन करने के लिए और यह भी समझने के लिए कि वे इस परिवर्तन को चलाने के लिए किस तरह की व्यवस्था कर रहे हैं, डाउन टू अर्थ ने छत्तीसगढ़, ओडिशा, महाराष्ट्र और गुजरात के सात जिलों के 19 गांवों और तीन नगर पंचायतों की यात्रा की और उनका विश्लेषण किया।

लोयेंडिया गांव, कंधमाल जिला, उड़ीसा n उगाड़ी पर्वत में एक निजी फर्म को बांस काटने से रोका लोयेंडिया को काफी पहले 2012 में ही सीएफआरआर प्राप्त हो गया था और आज यहां एक विकसित सामुदायिक वन प्रबंधन है। उगादी पर्वत पर हरे-भरे जंगल लोयेंडिया के निवासियों के संरक्षण प्रयासों की गवाही देते हैं। इस गांव में सिर्फ 13 घर हैं जो पहाड़ पर अनछुए जंगलों के बीच में स्थित हैं। इस गांव तक पहुंचने का केवल एक ही रास्ता है और यह निकटवर्ती शहर फूलबनी की आखिरी पक्की सड़क से 3 किमी की दूरी पर स्थित है।

गांव के संस्थापक 80 साल के पेटरा कन्हारा इस बात से संतुष्ट हैं कि वन विभाग का दखल बीते दिनों की बात हो गई है। वह कहते हैं, “मैं अपनी पत्नी और बच्चों के साथ 1982 में यहां आया था और अपने परिवार की जरूरतों के लिए सब्जियों और धान की खेती के लिए एक छोटे से इलाके को साफ किया। वन विभाग ने मेरे खिलाफ झूम खेती करने का मामला दर्ज कर दिया।” वह कहते हैं, “जब भी मुझे जंगल से कुछ चाहिए होता था, मुझे अधिकारियों से अनुमति लेनी पड़ती थी और उन्हें कुछ सब्जियां या मुर्गे रिश्वत में देने होते थे। अब, कम से कम मेरे बच्चों को इसका सामना नहीं करना पड़ेगा।”

गांव में 500 हेक्टेयर से अधिक वन सीएफआरआर के अंतर्गत आते हैं। बांस ग्रामीणों के लिए एक प्रमुख संसाधन है और इसका इस्तेमाल निर्माण, व्यापार या फिर भोजन के रूप में भी किया जाता है। लेकिन ओडिशा वन विकास निगम ने एक निजी पेपर मिल को बांस का ठेका दिया था और गांव के निवासियों को मामूली मजदूरी ही मिलती थी। गांव को सीएफआरआर मिलने के बाद उनका पहला निर्णय मिल को अपने जंगलों से बांस की कटाई करने से रोकना था। इसके बाद गांव ने एक सामुदायिक वन प्रबंधन समिति (सीएफएमसी) का गठन किया और एक नई प्रबंधन योजना को अपनाया। ग्राम सीएफएमसी की अध्यक्ष पद्मिनी कन्हारा कहती हैं, “यहां नियम यह है कि कोई व्यक्तिगत उपयोग के लिए ईंधन और लकड़ी ले सकता है, लेकिन इसे बाजार में नहीं बेच सकता। हम बाहरी लोगों को बांस या लकड़ी काटने की अनुमति नहीं देते और अगर हम किसी को जंगल का शोषण करते देखते हैं तो कार्रवाई करते हैं।”

वनों के लिए ग्राम योजना मुख्य रूप से महिलाओं द्वारा कार्यान्वित की जाती है। उदाहरण के लिए, फायर लाइनों (जंगल की आग को फैलने से रोकने के लिए खाली जमीन) का प्रबंधन महिलाओं द्वारा किया जाता है। साथ ही वे जंगलों में पहरा भी देती हैं।

सीएफएमसी के सचिव जय राम कन्हारा कहते हैं, “10 साल पहले, पेपर मिल द्वारा शोषण के कारण जंगल पूरी तरह से नष्ट हो गया था। अब प्रत्येक झाड़ी में 10 से 50 बांस हैं और पूरे क्षेत्र में कम से कम 500 झाड़ियां होनी चाहिए। यह जंगल अब हमारा है और हम इसकी रक्षा करना जानते हैं।” कन्हारा आगे कहते हैं, “वन विभाग हम पर एक संयुक्त वन प्रबंधन समिति (जेएफएमसी) बनाने का दबाव बना रहा है, जिसमें वन समुदाय के सदस्य और वन अधिकारी शामिल होंगे, लेकिन हमने इनकार कर दिया है। अगर हम ऐसा करते हैं, तो जंगल फिर से वन विभाग के हाथ में चला जाएगा।”

चारगांव , धमतरी जिला, छत्तीसगढ़

सीएफआरआर मिलने के बाद आर्थिक लाभ के कारण लोगों के पलायन में कमी आई है छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले का चारगांव वन अधिकारों के उपयोग के माध्यम से आजीविका पैदा करने में काफी सफल रहा है। गांव की दो ग्राम सभाओं, नया बस्ती और पुराना बस्ती को पिछले साल अगस्त में अलग-अलग क्षेत्रों के लिए सीएफआर प्राप्त हुआ था और उन्होंने वन उपज की खेती और बिक्री को सुव्यवस्थित किया है।

नया बस्ती के देवनाथ नेताम कहते हैं, “हमें लगभग 2,045 हेक्टेयर वनों के लिए सीएफआरआर पट्टे प्राप्त हुए एक साल भी नहीं हुआ है लेकिन हमारे गांव में एक नर्सरी चालू है। हमारे जंगल में 20 से अधिक किस्मों के पौधे लगाए जाने हैं। उन्होंने एक वन संरक्षण तंत्र भी स्थापित किया है जिसके तहत परिवारों को रखवाली का काम सौंपा जाता है।

नेताम कहते हैं कि गांव के लगभग सभी निवासी काम के लिए बाहर जाते थे। वन उपज के उत्पादन में वृद्धि हुई है, चाहे वह महुआ हो या जड़ी-बूटी। वन संसाधनों का उपयोग करने की पूर्ण स्वतंत्रता के कारण प्रवासन में भारी कमी आई है। वन अधिकार मिलने के बाद से ही यहां के निवासी बिचौलियों के माध्यम से तेंदूपत्ता बेच रहे हैं।” वन विभाग के एक रेंजर ने उनके क्षेत्र का दौरा किया और ग्राम पंचायत को बताया कि मार्च-अप्रैल 2022 में नया बस्ती से 1,000 बोरी तेंदूपत्ता बेचा गया था। आसपास के किसी अन्य गांव ने इतनी मात्रा में तेंदूपत्ता नहीं बेचा है।

एक दस्तावेज दिखाते हुए नेताम बताते हैं कि ग्राम सभा कुशल वन प्रबंधन के लिए सामुदायिक पहल का एक विजुअल रोडमैप भी लेकर आई है। इसमें विभिन्न कार्यों के लिए दिशा-निर्देशों के साथ अलग-अलग रंगों में 13 सर्कल हैं, जैसे मिट्टी के कटाव को रोकने के लिए बोल्डर चेकडैम, बड़ी चट्टानों का प्रबंधन, चारा, छोटे पैमाने की वन उपज और कचरे का निपटान इत्यादि। ये दिशानिर्देश पारंपरिक वनवासियों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली भाषा में लिखे गए हैं। हालांकि रोडमैप का इस्तेमाल वन प्रबंधन पर समुदायों का मार्गदर्शन करने के लिए योजना चरण में किया जाना है लेकिन यह अपने आप में एक व्यापक दस्तावेज है। चारगांव के सुगमालाल वट्टी कहते हैं “हमारी ग्राम सभा अपने जंगलों को दुरुपयोग, वनों की कटाई और पशुओं के शिकार को रोकने हेतु प्रतिबद्ध है।”

नर्मदा जिला, गुजरात

2013-18 में बांस की बिक्री से 30 गांवों ने 32 करोड़ रुपए कमाए गुजरात स्थित गैर-लाभकारी संस्था एआरसीएच वाहिनी के अंबरीश मेहता कहते हैं कि 2013-14 से 2017-18 के बीच नर्मदा जिले के कुछ 30 गांवों ने एक निजी पेपर मिल को 1,15,000 टन सूखा बांस बेचा और 32 करोड़ रुपए कमाए। कोविड-19 महामारी के बाद मिल ने बांस खरीदना बंद कर दिया, जिससे गांव वालों को आर्थिक झटका लगा। सगई गांव के निवासी मकताभाई कहते हैं, “हम सीएफआरआर के फलस्वरूप होने वाली आमदनी के कारण ही कोविड-19 महामारी के दौरान जीवित रह पाए हैं। हमें यह पट्टा 2013 में मिला था जिससे यह सुनिश्चित हुआ कि हमारी बिक्री से हुई 100 प्रतिशत आय ग्राम सभा को मिलेगी। नर्मदा में अब तक 193 गांवों को सीएफआरआर मिल चुका है।

गढ़चिरौली जिला, महाराष्ट्र

2009 में सीएफआरआर का पट्टा मिलने के बाद वनस्पति सूचकांक में वृद्धि हुई

सीएफआरआर वाले गांवों ने जंगलों को कैसे पुनर्जीवित किया है, इस बात का कोई व्यापक आकलन नहीं हुआ है। पारिस्थितिकीविद् और लेखक माधव गाडगिल कहते हैं कि पिछले एक दशक के दौरान सीएफआरआर वाले गांवों में समग्र पारिस्थितिक प्रगति का वैज्ञानिक प्रमाण मिला है। वह पट्टा आवंटित किए जाने के बाद वनस्पति सूचकांक की निगरानी के लिए महाराष्ट्र के धनोरा और गढ़चिरौली जिलों में चल रहे एक अध्ययन का उल्लेख करते हैं।

गाडगिल कहते हैं कि अध्ययन से पता चलता है कि दोनों जिलों में वनस्पति सूचकांक में वृद्धि हुई है। वन विभाग सीएफआरआर और अपने क्षेत्रों का सीमांकन करने वाले नक्शे हमारे साथ साझा करने को तैयार नहीं था। लेकिन पूर्व में बंगलूरु स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान में काम कर चुकीं हरिणी नागेंद्र ने गढ़चिरौली के 17 गांवों (जहां हमें सीएफआर की सीमाओं का अंदाजा था) में जैव विविधता का मानचित्रण करने के लिए रिमोट सेंसिंग डेटा का इस्तेमाल किया और हमने देखा कि जंगल की बागडोर लोगों के हाथों में जाने के बाद से वनस्पति सूचकांक में सुधार हुआ है।

(डाउन टु अर्थ से साभार)

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