तो गुजरात के रास्ते पर नहीं गए हिमाचल और दिल्ली

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— अरुण कुमार त्रिपाठी —

भारतीय जनता पार्टी की गुजरात में 182 में से 156 सीटों  की जीत निश्चित तौर पर रिकार्ड तोड़ जीत है और उसने भाजपा के अपने ही नहीं बल्कि कांग्रेस के माधव सिंह सोलंकी के 1985 के 149 सीटों के रिकार्ड को भी तोड़ दिया है। इस जीत पर भारतीय जनता पार्टी को जश्न मनाने का पूरा हक है और गोदी मीडिया का भी खूब उछलने का फर्ज बनता है। लेकिन उसी के साथ यह संतोष की बात है कि दिल्ली नगर निगम में जहां भाजपा का पंद्रह साल का शासन समाप्त हुआ वहीं हिमाचल प्रदेश में हर पांच साल बाद सरकार बदलने की परंपरा जारी रही। हिमाचल में कांग्रेस की वापसी हो गई है और गुजरात में 13 प्रतिशत वोट पाकर आम आदमी पार्टी राष्ट्रीय पार्टी बन गई है ऐसी घोषणा ‘आप’ के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने कर दी है।

इस चुनाव की तीन प्रकार से व्याख्या की जा सकती है। एक व्याख्या तो यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जादू बरकरार है और उनके नेतृत्व में 2024 में भाजपा पूरे देश में गुजरात दोहराने का संकल्प ले रही है। दूसरी व्याख्या यह है कि पूरा देश गुजरात नहीं है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के बावजूद देश की जनता अलग अलग फैसले देने का विवेक रखती है। तीसरी व्याख्या यह हो सकती है कि अगर देश में विपक्षी एकता नहीं बनी और ‘आप’ की तरह से तमाम क्षेत्रीय दलों की राष्ट्रीय बनने की अपनी अपनी आकांक्षा जोर मारती रही तो जीते कोई भी लेकिन लोकतंत्र हारकर ही मानेगा।

गुजरात के चुनाव परिणामों का विश्लेषण करें तो पाएंगे कि वहां का समाज पूरी तरह से दक्षिणपंथी हो गया है। वह कांग्रेस में विद्यमान किसी भी तरह के वामपंथ को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। ‘आप’ उसी दक्षिणपंथ के भीतर खेलने वाली पार्टी है इसलिए जनमत उसकी ओर विकल्प की तरह से देख रहा है। यह सिलसिला कितना आगे तक जाएगा कहा नहीं जा सकता लेकिन फिलहाल तो यही लग रहा है कि दिल्ली से शुरू करके पंजाब होते हुए गुजरात तक कांग्रेस पार्टी के जनाधार को ‘आप’ तेजी से खत्म कर रही है।

यह सही है कि दिल्ली नगर निगम में ‘आप’ ने भाजपा को सीधी टक्कर में पहली बार परास्त किया है लेकिन ध्यान देने की बात है कि भाजपा का वोट प्रतिशत घटा नहीं है। वोट प्रतिशत तो घटा कांग्रेस का है। जो 21 प्रतिशत से घटकर 11 प्रतिशत तक रह गया और उसकी सीटें 31 से घटकर 9 तक आ गईं। जाहिर सी बात है कि गुजरात में 13 प्रतिशत वोट पाकर ‘आप’ गदगद है क्योंकि उसके बाद वह राष्ट्रीय पार्टी बन गई। मात्र दस सालों में। इसे वह बड़ी उपलब्धि मान रही है।

लेकिन असली सवाल यह है कि क्या ‘आप’ अपने इस प्रयोग को राजस्थान और मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में दोहराएगी और कांग्रेस पार्टी के जनाधार को खत्म करेगी। या फिर 2023 से पहले कांग्रेस, ‘आप’ और दूसरे विपक्षी दलों के बीच कोई तालमेल की स्थिति बनेगी? कहा नहीं जा सकता। गुजरात चुनाव परिणामों को लेकर भाजपा के खेमे में जितना जश्न का माहौल है और उसकी जितनी वाहवाही हो रही है उतनी ही लानत कांग्रेस पार्टी को भेजी जा रही है।

रोचक बात यह है कि कांग्रेस पार्टी के 77 से 17 सीटों पर सिमट जाने का सारा ठीकरा राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा पर फोड़ा जा रहा है। कहा जा रहा है कि कांग्रेस पार्टी चुनाव ही नहीं लड़ी और उसका संसाधन भारत जोड़ो यात्रा पर लगाया जा रहा है। शुक्र मनाइए कि हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस पार्टी को बहुमत मिल गया वरना गोदी मीडिया तो भारत जोड़ो यात्रा को पूरी तरह विफल होने की घोषणा कर देता।

लेकिन यहां असली सवाल यह है कि क्या गुजरात का मॉडल पूरे देश के लिए अनुकरणीय है या फिर इस देश को अगर बचाना है तो नफरत खत्म करने के लिए भारत जोड़ो यात्रा के अलावा दूसरे कार्यक्रमों पर भी ध्यान दिए जाने की जरूरत है? सवाल यह भी है कि जब सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी न सिर्फ आरएसएस के विशाल तंत्र के साथ चुनाव लड़ती है बल्कि वह पूरी केंद्र और राज्य सरकार के साथ, तमाम लोकतांत्रिक संस्थाओं और जांच एजेंसियों के साथ, देश के तमाम पूंजीपतियों के साथ चुनाव लड़ती है तो उसका मुकाबला करने के लिए विपक्षी दल कैसे चुनाव लड़ें? क्या लोकतांत्रिक चुनावों का एकमात्र लक्ष्य किसी तरह से जीत हासिल करना होता है या फिर उचित और मर्यादित व आचार संहिता का पालन करते हुए जीत हासिल करना होता है?

यह सही है कि लोकतंत्र और उसके चुनाव एक गृहयुद्ध की तरह होते हैं जिन्हें हथियारों से नहीं लड़ा जाता। लेकिन उस खेल के भी कुछ नियम होते हैं। उसका सबसे बड़ा नियम यही होता है कि वहां साधन की पवित्रता होती है, वहां जो हारता है वह हार मान लेता है और जीतने वाले को काम करने देता है। लेकिन यहां तो लोकतंत्र के खेल के नियम को ही बदला जा रहा है।

एक तो नगर निगम के चुनाव हार जाने के बाद भाजपा के पदाधिकारियों को दिन भर यह दावा करते रहना कि मेयर तो हमारा ही होगा किस दिशा में संकेत करता है? दूसरा, इस बात को चैनलों पर लगातार रटवाते रहने का क्या मतलब है कि विधानसभा और लोकसभा की तरह नगर निगम में दल बदल विरोधी कानून नहीं लागू हो सकता इसलिए कुछ भी हो सकता है।

यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि यह बात हिमाचल के बारे में भी कही जा रही थी कि वहां भी बहुत नाजुक किस्म का बहुमत मिला है और कांग्रेस पार्टी जल्दी ही अपने विधायकों को बाड़े में बंद करेगी। इसका मतलब जहां पर दल बदल विरोधी कानून नहीं है वहां तो तोड़फोड़ की ही जाएगी और जहां है वहां भी छोड़ा नहीं जाएगा। ‘आपरेशन कमल’ की चर्चा खुलेआम हो रही है। कोई भाजपा नेता लोकतांत्रिक अनैतिकता को प्रोत्साहित करने वाले उस खेल को न तो खारिज कर रहा है न ही उससे हाथ खींच रहा है।

लोकतांत्रिक अनैतिकता का खेल खेलने वाले को एक घटना की याद दिलाना जरूरी है। 1888 में जब दादा भाई नौरोजी हाउस आफ कामंस के सदस्य चुने गए तो वे महज तीन वोट से जीते थे। अगर अंग्रेज चाहते तो एक भारतीय को चुने जाने से रोक सकते थे, उसके वोटों की गिनती में घपला कर सकते थे। लेकिन उन्होंने वैसा कुछ नहीं किया। वह घटना भारतीयों के लिए बड़ी प्रेरक रही। उसी के बाद भारत में संसदीय लोकतंत्र में रुचि जगी और तीन साल पहले बनी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को बड़ी ऊर्जा मिली। लेकिन भाजपा के नेता और गोदी मीडिया कम वोट से चुनाव जीतने वालों को तोड़ लेने और अपनी सरकार बना लेने के जो दावे कर रहे हैं उसे देखकर लगता है कि उनके लिए लोकतंत्र का मतलब सिर्फ चुनाव जीतने का नाम है। यह खेल वे कर्नाटक, मध्यप्रदेश, गोवा और पूर्वोत्तर के राज्यों में कर भी चुके हैं।

इसी सिलसिले में गुजरात का परिणाम देखकर मोरबी पुल की मरम्मत करने और उसे हादसे लायक स्थिति में छोड़ देने वाली कंपनी अजंता ओरेवा के प्रबंध निदेशक जयसुख पटेल का वह विचार याद आता है जिसमें उन्होंने लिखा है कि बार बार चुनाव कराने की कोई जरूरत नहीं है। इससे देश का बड़ा धन बर्बाद होता है। इसलिए किसी योग्य व्यक्ति के हाथों में देश को सौंप देना चाहिए। मोरबी में भारतीय जनता पार्टी की जीत और गुजरात में मिले प्रचंड परिणाम जिसे लोग सुनामी कह रहे हैं, उसी विचारों की याद दिलाते हैं। यह चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी प्रतिष्ठा और गुजरात के स्वाभिमान का भावनात्मक मुद्दा बनाकर लड़ा और उसमें बड़े पैमाने पर संसाधन झोंक दिए। क्या कांग्रेस पार्टी उतने संसाधन झोंक सकती थी। क्या उसे इलेक्टोरल(चुनावी) बांड  का सारा धन मिल सकता है, क्या उसके पास राज्य की सारी मशीनरी मौजूद है?

हमने लोकतंत्र की जो हालत बना दी है उसमें अकूत धन चाहिए, मतदाताओं को धर्म और जाति के आधार पर ध्रुवीकृत करना चाहिए, उनके स्थानीय स्वाभिमान को जगाना चाहिए। क्या इससे लोकतांत्रिक मूल्यों का संवर्धन होता है या क्षरण?

लोकतंत्र का अर्थ सिर्फ सरकारें चुनने से ले लिया गया है। जबकि डा आंबेडकर ने साफ कहा है कि लोकतंत्र का व्यापक अर्थ एक लोकतांत्रिक समाज का निर्माण करना है। उस समाज में भाईचारा प्रधान मूल्य है और उसके लिए आपसी विश्वास का निर्माण जरूरी है। उन्होंने सत्ता के लिए लालायित नेताओं को बताया था कि संवैधानिक नैतिकता का पालन कितना जरूरी है। उन्होंने जार्ज वाशिंगटन का उदाहरण देते हुए कहा था कि जब उन्हें दोबारा राष्ट्रपति बनने के लिए कहा गया तो वे तैयार नहीं थे। लेकिन दोबारा तो किसी तरह तैयार हो गए पर तीसरी बार के लिए साफ अड़ गए। उनका कहना था कि यह तो उसी संवैधानिक मूल्य का उल्लंघन होगा जिसे हमने बनाया है।

आज भारत में इस बात का संकट नहीं है कि चुनाव होगा तो कोई स्थिर सरकार बनेगी या नहीं। भारतीय जनता पार्टी के उदय ने उस कला को अच्छी तरह से सीख लिया है। संभव है कि वह 2024 का चुनाव भारी बहुमत से जीत जाए। लेकिन संकट इस बात का है कि भारत लोकतांत्रिक समाज बनेगा या नहीं।

जिस तरह से चुनाव जीते जा रहे हैं और लोकतांत्रिक संस्थाएं जिस तरह से कमजोर और निढाल होती जा रही हैं उसमें हमारे लोकतांत्रिक समाज बने रहने की संभावना बहुत कम है। आजकल लोकतंत्र सैनिक तख्तापलट से समाप्त नहीं होता। उसके लिए चुनाव प्रणाली ही कारगर है।

दुनिया भर में लोकतंत्र को खत्म करने वाली ताकतें सक्रिय हैं। भारत भी उसका अपवाद नहीं है। कहते हैं कि यह लोकतंत्र की अधेड़ उम्र की बीमारी है। कोई जरूरी नहीं कि लोकतंत्र हमेशा रहे। लेकिन उसपर इतनी जल्दी संकट आ जाएगा ऐसी उम्मीद नहीं थी। भारतीय लोकतंत्र की तारीफ करने वालों ने उसके लिए बड़ी आशंकाएं प्रकट की हैं। फिलहाल अमेरिका और ब्राजील जैसे देश उस संकट से निकल गए हैं। लेकिन वह संकट पूरी तरह से टला नहीं है। जनता और इस देश के राजनीतिक सामाजिक कार्यकर्ताओं को इन चुनाव परिणामों में छुपे इस संदेश को ध्यान से सुनना होगा।

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