— प्रभा मुजुमदार —
1. केवल राजा?
अंधा
जब भी बांटेंगा रेवड़ियाँ,
जाहिर है
अपनों को ही देगा।
अक्सर अंधा ही होता है
अहंकारी और निरंकुश राजा,
सत्ता शक्ति के मद में।
उसकी आत्मा, सोच और जुबान,
पहले ही गिरवी हो चुकी होती है,
संपत्ति संसाधनों पर कब्जा कर,
अवसर के मद्देनजर
कुछ अशर्फ़ियाँ लुटाते
कुटिल व्यापारियों के तहख़ानों में।
उसकी सेना
सिंहासन की चढ़ाई के लिए
लाशों की
सीढ़ियाँ बिछाती है
और स्वतन्त्रता हासिल करती है
लूट, हत्या और बलात्कार की,
अपनी सेवाओं के एवज में।
उसके चारण-भाट और मंत्री
सुनिश्चित करते हैं
कुछ रेवड़ियों के प्रलोभन में
जयजयकार करती भीड़,
रीढ़ विहीन तंत्र,
और प्रचारतंत्र।
सच से भी
अधिक विश्वसनीय लगते हैं झूठ
और चेहरे से ज्यादा
प्रामाणिक मुखौटे।
मगर ऐसा तो नहीं है
कि सच समझ में ही न आए,
रात और दिन का फर्क
पहचाना ही न जाए।
अंधा, बहरा और गूंगा
क्या राजा ही है?
2. बापू तुम मरते नहीं
थक गए हैं लोग,
तुम्हारी प्रतिमाएँ तोड़ कर,
तस्वीरें फाड़ कर,
गोलियां दाग कर,
तलवारें चला कर।
बापू तुम मरते ही नहीं?
कितने तो
विद्यालय, प्रयोगशालाएँ, फैक्टरियाँ,
झूठ की बम्पर पैदावार के लिए
उग आए हैं गली गली।
कितना कीचड़, कितना जहर,
रात दिन तुम पर,
और तुम मुस्कुरा रहे हो,
सत्य के प्रयोगों की
एक पुस्तक को लेकर।
“सबको सन्मति दे भगवान” की तर्ज पर
आश्वस्त और निश्चिन्त।
अविश्वास के अंधेरे वक्त में,
आस्था का एक दीया,
कल की उम्मीदों के लिए
थामे खड़े हो।
सत्ता की सर्वोच्च मीनारें
थरथराती हैं तुमसे।
उन्मत्त आत्ममुग्ध शासक की
आक्रामक गर्जनाओं को
निरुत्तर कर देती है
तुम्हारी निर्भय आँखों की
निश्छल मुस्कान।
वार सीधे किया जाए,
या घात लगा कर
अथवा शिखंडी की ओट लेकर,
फर्क नहीं पड़ता तुम्हें।
जानते हो
दुनिया के किसी भी हिस्से में,
चौराहों-सड़कों पर
अवतरित हो जाता है,
जुल्म के खिलाफ एक गांधी,
निर्भय लोगों के हुजूम के साथ।
कितना भी क्रूर
क्यों न हो तानाशाह,
कितने ही हिंसक
उसके प्रहरीदार,
लाठी-गोली-बम-बारूद के
बेतहाशा इस्तेमाल के बावज़ूद,
एक अहिंसक जन समूह,
झुका ही देता है उसे
आज भी।
कैसे मारें, कितनी बार
कब तक…..
हत्यारे परेशान हैं
बेचारे।
बापू तुम मरते ही नहीं?
3. कब तक
मेरी यादों से
ओझल नहीं होता
कुरुसभा का वह शर्मनाक अध्याय।
पांचाली को घसीटकर
निर्वसन करने की प्रक्रिया के बीच
वे वीभत्स ठहाके
भद्दे संवाद, लांछन, चरित्र हनन।
एक निरपराध स्त्री की
चीत्कारों के बीच
बुद्धिजीवियों का लाचार मौन
और सब कुछ
जानते समझते हुए भी,
कुछ न समझने का
अभिनय करता
एक अंधा राजा।
फिर भी जहां तक पता है मुझे
दुश्शासन का
नहीं किया गया था,
उस कृत्य के लिए
फूलमालाओं से सत्कार।
धिक्कारा ही गया वह सदा,
राजा ने भी
प्रगट में तो जाहिर की थी
शर्मिंदगी ही।
अपना अल्पज्ञानी होना
स्वीकार है मुझे,
पर आज तक
नहीं पढ़ा, देखा और सुना –
हत्यारों और बलात्कारियों को
सुसंस्कृत, अच्छे चालचलन के
प्रमाणपत्रों से नवाजा जाना,
उन्हीं के द्वारा
जिनकी कथनी और करनी की बदौलत
उजागर होती है
एक राष्ट्र की तस्वीर।
डर से काँपते हुए,
आंसुओं को गटकते हुए,
आवेश आक्रोश से थरथराते,
शर्मसार होते,
पूछती हूँ अपने से ही –
ईश्वर अल्लाह तेरो नाम के
सुस्वरों के साथ चलती,
सामूहिक गौरव यात्रा
कैसे भटक गई
“सर तन से जुदा” के फतवों
और “धर्म संसदों” की
आक्रामक उन्मादी गर्जनाओं में।
एक जिंदा समाज
कैसे मनाने लगा,
जघन्य अपराधों का जश्न?
कैसे रहता है मौन,
नरपिशाचों के स्वागत जुलूसों पर।
जन्मी अजन्मी
तमाम बेटियाँ ही नहीं,
रौंदी गई
देश की अस्मिता
और शर्मसार हुई मानवता
दहशत में है,
कब तक जारी रहेगा
गिद्धों का उत्सव?
4. समय के अंधे मोड़ पर
जबकि आज
आंसुओं के समुंदर की लहरें
और क्रोध प्रतिशोध की लपटें
आसमान को छू लेना चाहती हैं,
मैं पहचान लेती हूँ
उसके कितने ही चेहरे,
एक जुलूस का हिस्सा बन
बिलकीस के बलात्कारियों,
नृशंस हत्यारों का
हार फूल तिलक मिठाई लेकर
स्वागत कर रहे थे।
मैं जानती नहीं थी कि
गुनाहों के भी रंग होते हैं।
नाम और कपड़ों के अनुकूल होने से
खूंखार दरिंदे भी
सदाचारी और संस्कारी
घोषित किए जा सकते हैं ।
बताओ श्रद्धा
टुकड़ों में कटती देह
क्षत-विक्षत मन और
सुन्न होते मस्तिष्क को
क्या राहत पहुंचा सकती थीं
ये बेमानी श्रद्धांजलियाँ?
या हत्यारे के
सत्तर टुकड़े कर देने के संकल्प?
संवेदना के नाम पर
एक बेदर्द हत्या को
अपने एजेंडा में
फिट करने की चालाकी।
आफताब के बहाने
एक पूरी कौम को
कठघरे में खड़ा करने का
एक और षड्यंत्र।
खुले मंच से
तुम्हारी लाश के नाम पर
वोटों का सौदा,
डरा कर, आगाह कर।
जबकि तुम्हें चाहिए था
एक छोटे से रोशनदान का
खुला होना।
मर चुके उस प्रेम की
सड़ांध से निजात देती
थोड़ी सी ताजगी भरी हवा।
रिश्ते के बीहड़
अंधी सुरंगों, गहरी खाइयों
तपते रेगिस्तान से
बाहर निकलने के लिए
हौसला देते अपनों के हाथ।
मौत की बंद गली से
जिंदगी के राजपथ पर
एक नई शुरुआत का संबल।
एक आक्रांता के दिए
भाव संवेदना के आघात और झटकों से
सँवरने का धैर्य।
मगर
यहाँ जीने की लड़ाई
एक हत्यारे मनोरोगी से ही
नहीं थी।
प्रवचन, निर्देश, धमकी, चेतावनी देती
अपनों की भीड़ से भी थी।
तुम्हारे लौटने के सारे रास्ते
अपमान, प्रताड़ना, लांछनों भरी
बदबूदार गलियों में ही खुलते थे।
समय के अंधे मोड़ पर
सुन्न, असहाय और हताश
सोचती हूँ मैं,
प्रेम में पराजित होने,
अथवा प्रेमी का क्रूर वहशी चेहरा
पहचानने के बाद
एक अनिवार्य मौत की
नियति ही क्यों है
हमारी बेटियों के पास?
मेरे पास
सांत्वना के शब्द नहीं हैं
बस, शर्मिंदा हूँ कि
कोई जवाब नहीं है मेरे पास।
— ललन चतुर्वेदी —
1. कुछ न कुछ बचा रहेगा
गहन अन्धकार में जब डूबी होगी धरती
किसी कोने में ज़रूर बचा रहेगा प्रकाश का एक कतरा
वृक्ष के तने पर अंतिम सांस गिनता पीतवर्णी पत्ता
गिरते-गिरते आवाज दे रहा होगा वसन्त को
जब शोकाकुल स्त्रियां रो रही होंगी किसी प्रिय की मौत पर
दूधमुंहे बच्चे पर पड़ते ही नजर
बंद हो चुकी होगी उनकी रुलाई
और जैसा कि कुछ लोग सोचते हैं
सब कुछ नष्ट हो जाएगा धीरे-धीरे
वैसा तो शायद आज तक कभी नहीं हुआ और नहीं होगा आगे भी
सब कुछ कभी नष्ट नहीं होता
कुछ न कुछ बचा रह जाता है
जैसे वृद्ध-कंठ में बचा रह जाता है
बचपन का थोड़ा सा संगीत।
2. अमावस का उत्सव
अभी-अभी सुबह हुई है
मन इंतजार कर रहा है दोपहर का
कहने को तो दोपहर मगर मालूम नहीं इसमें
होते हैं कितने पहर
ये उमस के दिन भी कितने बड़े होते हैं
जल्दी शाम भी नहीं आती
और शाम आ ही गई तो क्या
चांद सितारों की महफिल भी सज गई तो क्या
केवल करवटों के बल पर कैसे कट सकती है
इतनी लंबी रात
कभी कुर्सी कभी सोफे कभी पलंग
जगहें बदलते कटता है समय
कभी बालकनी में आते-जाते
लोगों को देखना चुपचाप
कोई आता नहीं, पास बैठता भी नहीं पल भर
कभी व्यस्तता इतनी थी
कि स्वयं के लिए भी नहीं था समय लोगों से घिरे-घिरे
समय मन की गति से निकलता था
पता ही नहीं चलता था सुबह और शाम का
बच्चे प्रतीक्षा में आंगन से निकल कर
बार-बार झांकते कि कब आएंगे पापा?
तब पिता होने का कुछ मतलब था
इन्हीं कुछ वर्षों में कितनी बदल गई दुनिया
आंखों से नेह झरे, शब्दों के अर्थ बहे
किसको सुनें, किससे कहें
बदलते हुए अर्थ को समझना पड़ता है
बच्चे सयाने हो गए कहना पड़ता है
गर्व से पिता बताते हैं प्रवासी बच्चों की व्यस्तता
छुपा लेते हैं अंतर में अपनी व्यथा
चेहरों पर लोग पढ़ लेते हैं सन्नाटे की कथा
बेटे ने ले ली है जब से अमेरिका की स्थायी नागरिकता
तब से वह पर्व त्योहारों में उसका इंतजार नहीं करते
अब पिता के हाथ भी कांपने लगे हैं
पटाखे में लौ नहीं लगा पा रहे हैं
पड़ोस के छोटे-छोटे बच्चे
दीवाली में पटाखे फोड़ रहे हैं
बरामदे में बेंत पकड़े वयोवृद्ध पिता
बच्चों को निहार रहे हैं
जलते-जगमगाते दीयों के बीच
अमावस का उत्सव मना रहे हैं!
3. मैं भी इसी धरती का वासी हूं
हे महीसुर महाराज!
आपके पूर्वजों ने ही अपने मुखारविन्द से दिया था –
वसुधैव कुटुंबकम् का उदार मंत्र
और आप उलझे हुए हैं अब भी अक्षांश और देशान्तर में
अब भी नियंत्रित हो रहे हैं मंगल और शनि से
अब भी आप नदी पार करना नहीं चाहते
पूरब और पश्चिम में अब भी आपको भेद दिखता है
कहते हैं गंगा के पूरब वालों का बड़ा मोटा है रहन-सहन
वहां की बेटियां नहीं होती हैं संस्कारी
अब भी आप बंधे हुए हैं खूंटे में
अब भी कुल-गोत्र की चारदीवारियों को लांघ नहीं सकते
अब भी आप शिव के त्रिशूल पर टिके हुए हैं
भूलकर भी नहीं उच्चारिएगा वसुधैव कुटुंबकम् का मंत्र
हे कान्यकुब्ज कुलांगार !
हे प्रगतिशील विद्वान!
हे संस्कृत और संस्कृति प्रेमी !
पुत्री का पिता होना कोई पातक नहीं है
और नहीं हैं आप पतित-पावनकर्ता
हे मुद्रा लोभी!
हे चर्मज्ञानी!
तजिए अपना मिथ्या अहंकार
तजिए व्यर्थ ढोंग, तजिए अपना मनोरोग
दुरुस्त कीजिए सामान्य ज्ञान –
विदेश जाने से बेटियां नहीं हो जातीं म्लेच्छ
और उत्तर की बेटियां नहीं होतीं अपावन
आपकी बेटियां ही समझाएंगी इस मंत्र का अर्थ
और इस कुल गोत्र, स्थान के बहुविध केंचुलों से स्वयं को कर लेंगी मुक्त
और आप मुंह ताकते रह जाएंगे।