— रामस्वरूप मंत्री —
एक नेता, जो कभी सरकार का हिस्सा नहीं रहा। जब सरकार में जाने का मौका मिला, तब भी नहीं गया। अंग्रेजों की भी लाठियां खाईं और पुर्तगालियों से भी लोहा लिया।दूसरे शब्दों में कहें तो आजादी की लड़ाई में जेल गया और गोवा मुक्ति संग्राम में भी जेल की सजा पाई। पुणे का रहनेवाला और प्रतिष्ठित फर्ग्युसन काॅलेज में पढ़ा यह नेता दो बार मुंबई के बांद्रा से चुनाव लड़ा, लेकिन कामयाब नहीं रहा। तब इस नेता ने बिहार को अपनी सियासी कर्मभूमि बनाया और वहां से चार बार संसद पहुंचा। संसद में ऐसी धाक जमाई कि जब वह बोलने के लिए खड़ा होता था, तो सत्तापक्ष में सिहरन पैदा हो जाती थी। सबूतों और दस्तावेजों के साथ ऐसा कमाल का भाषण कि इसके असर में कई केन्द्रीय मंत्रियों की कुर्सी चली गई। संसदीय परंपराओं और व्यवस्था का ऐसा ज्ञान कि सत्तापक्ष के लोगों की तमाम दलीलें धरी की धरी रह जाएं। यह थे सोशलिस्ट नेता मधु लिमये, जिनका 1मई 2021 से जन्मशती वर्ष शुरू हो रहा है।
आज भारतीय लोकतंत्र का जिस्म तो बुलंद है, पर इसकी रूह रुग्ण हो चली है। ऐसे में जोड़, जुगत, जुगाड़ या तिकड़म से सियासत को साधनेवाले दौर में मधु लिमये की बरबस याद आती है। राजनीति के चरमोत्कर्ष पर हमें सन्नाटे में से ध्वनि, शोर में से संगीत और अंधकार में से प्रकाश किरण ढूँढ़ लेने की प्रवीणता हासिल करने का कौशल मधु लिमये में दिखता है।
मधु लिमये सचमुच विचारवेत्ता भी थे, और ब्रह्मास्त्र को आमने सामने झेलने वाले योद्धा भी। दुबले पतले लेकिन तेजस्वी मधु लिमये सच्चे अगली पंक्ति के चिंतक योद्धा थे।कभी भी न थकनेवाले, कोई भी समझौता न करनेवाले, बड़े से बड़े झूठ के खिलाफ तनकर खड़े होनेवाले, सच बोलने की अदम्य निष्ठा वाले, बेहद बेचैन लेकिन अंदर कहीं बेहद धीर-गंभीर मधु लिमये का भारतीय राजनीति में कोई सानी नहीं।
स्वाधीनता संग्राम में तकरीबन चार साल (40-45 के बीच), गोवा मुक्ति संग्राम में पुर्तगालियों के अधीन 19 महीने (1955 में 12 साल की सज़ा सुनाई गई थी), और आपातकाल के दौरान 19 महीने मीसा के तहत (जुलाई 75 – फरवरी 77) वे मध्यप्रदेश की कई जेलों में रहे। लिमये तीसरी, चौथी, पाँचवीं व छठी लोकसभा के सदस्य रहे, पर इंदिराजी ने जब आपातकाल के प्रावधानों का दुरुपयोग करते हुए पाँचवीं लोकसभा का कार्यकाल बढ़ा दिया,तो उसके विरोध में इन्होंने अपनी सदस्यता से इस्तीफ़ा दे दिया था।
खबरपालिका की मानिंद आज विधायिका भी सूचना तथा मनोरंजन का साधन मात्र हो गयी है। व्यक्ति, समाज तथा संस्थाओंके बीच बढ़ती संवादहीनता की खाई को पाटने में यह कोई भूमिका निभाने की बजाय गैरजिम्मेदार लोगों के झुंड से घिरी हुई है। लिमये की कुशाग्र बहसों को याद करते हुए संसद से सहज ही यह अपेक्षा बंधने लगती है कि यह सामूहिक संवाद के स्तर को ऊँचा करे, राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया को तेज करे, यथास्थिति को तोड़े, मजबूत लोगों का बयान होने की बजाय बेजुबानों की जुबान बने और लोकतंत्र की जड़ें मजबूत करे।
संसदीय प्रणाली के नियमों के तहत जन आकांक्षाओं के अनुरूप मुद्दों को इतने सशक्त रूप से रखा या उठाया जा सकता है, वास्तव में देश को इसका भान मधु जी के संसदीय कार्यों के द्वारा ही हो सका था। उन्होंने भी शायद विशेषाधिकार नियमों का उपयोग कर देश को चमत्कृत कर दिया था।
सोशलिस्ट पार्टी के उस समय संसद में बहुत कम सदस्य थे, इसके बावजूद उस दौरान मधु जी ने तत्कालीन सरकार को अनेक बार कटघरे में खड़ा किया और निरुत्तर किया।लोहिया जी के निधन के बाद मधु जी प्रथम पंक्ति के समाजवादी नेताओं में अग्रणी थे। कहना चाहिए कि समाजवादी सिद्धांतों और कार्यक्रमों के वो ही मुख्य व्याख्याता थे। सिद्धांत, नीति, कार्यक्रम, रणनीति आदि के विषय में मधु जी का भाषण स्पष्ट और सटीक होता था। 1977 में गैरकांग्रेसवाद की रणनीति के अंतर्गत केंद्र में गैरकांग्रेसी सरकार बनवाने की मुहिम में मधु जी की भूमिका अग्रणी रही थी, किंतु 1977 में बनी गैरकांग्रेसी सरकार में उन्होंने मंत्रिपरिषद में शामिल होना स्वीकार नहीं किया। सत्ता से अलग रहकर संगठन में अधिक महत्वपूर्ण और ज्यादा लोकोपयोगी कार्य करना उनको अधिक श्रेयस्कर लगता था। साथ ही यह पदों से दूर सादगी के जीवन के प्रति उनके रुझान का घोतक भी था।
लिमये सोशलिस्ट पार्टी के संयुक्त सचिव (1949-52), प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के संयुक्त सचिव (1953 के इलाहाबाद सम्मेलन में निर्वाचित), सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष (58-59), संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष (67-68), चौथी लोकसभा में सोशलिस्ट ग्रुप के नेता (67), जनता पार्टी के महासचिव (1 मई 77-79), जनता पार्टी (एस) एवं लोकदल के महासचिव (79-82) रहे। लोकदल (के) के गठन के बाद सक्रिय राजनीति को अलविदा कह दिया।
दो बार बंबई से चुनाव हारने के बाद लोगों के आग्रह पर वे 64 के उपचुनाव में लोकसभा के लिए मुंगेर से लड़े व मजदूर नेता की अपनी छवि के बल पर जीते। दोबारा 67 के आम चुनाव में प्रचार के दौरान तौफीक दियारा में उन्हें पीट-पीट कर बुरी तरह से घायल कर दिया गया। वो सदर अस्पताल में भर्ती हुए जहां भेंट करनेवालों का तांता लगा हुआ था। सहानुभूति की लहर व अपने व्यक्तित्व के बूते वे फिर जीते। पर, तीसरी दफे वे कॉलेज में डिमोंस्ट्रेटर रहे कांग्रेस प्रत्याशी डीपी यादव से त्रिकोणीय मुकाबले में हार गए। यह भी चकित करनेवाला ही है कि तमाम प्रमुख नाम मोरारजी की कैबिनेट में थे, पर मधु लिमये का नाम नदारद था। मोरारजी चाहते थे कि आला दर्जे के तीनों बहसबाज जार्ज, मधु व राजनारायण कैबिनेट में शामिल हों। वो अपने वित्त मंत्री के कार्यकाल में लिमये के सवालों से छलनी होने का दर्द भोग चुके थे, पर लिमये ने रायपुर से सांसद और मध्यप्रदेश के वरिष्ठ समाजवादी नेता पुरुषोत्तम कौशिक को मंत्री बनवाया।
संसदीय दल का नेता पद छोड़ा
1967 में राममनोहर लोहिया की मृत्यु के बाद मधु लिमये संसोपा संसदीय दल के नेता चुने गए। लेकिन तब तक संसोपा पर पिछड़ावाद हावी हो चुका था। पार्टी के कई लोगों को मलाल था कि जो पार्टी ‘संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ’ का नारा देती है, उस पार्टी और उसके वर्चस्व वाली सरकारों में महत्वपूर्ण पदों पर अगड़े वर्ग के लोग क्यों काबिज हैं। इसी विवाद में 1968 में बिहार की महामाया प्रसाद सिन्हा की सरकार चली गई थी। 1969 में यही सवाल संसोपा संसदीय दल की बैठक में भी उठा कि पिछड़ों की पार्टी के संसदीय दल के नेता पद पर ब्राह्मण समुदाय के मधु लिमये क्यों काबिज हैं? लेकिन सवाल उठने के बाद मधु लिमये ने एक मिनट की भी देर नहीं लगाई, अपने पद से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद पार्टी के कई नेताओं ने उनको मनाने की कोशिश की, लेकिन वह नहीं माने। आखिरकार उनकी जगह उत्तर प्रदेश के सोशलिस्ट नेता और बाराबंकी के सांसद रामसेवक यादव को संसोपा संसदीय दल का नेता चुना गया।
उनके बारे में एक तथ्य और बताते चलें कि 1990 में मंडल कमीशन का बवाल खड़ा होने के बाद जब सुप्रीम कोर्ट में इस विवाद पर इंद्रा साहनी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया केस की सुनवाई शुरू हुई, तब क्रीमी लेयर का मामला लेकर मधु लिमये भी सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए थे और खुद इस केस में एक पार्टी बन गए। सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने फैसले में उनके इस तर्क को माना कि पिछड़े वर्ग में क्रीमी लेयर यानी संपन्न तबकों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए।
आज उसी मर्यादा, सलीके व सदाशयी लोकव्यवहार का संसदीय राजनीति में सर्वथा अभाव दिखता है। हम अगर विचार विनिमय, बहस व विमर्श की चिरस्थापित स्वस्थ परंपरा को फिर से ज़िंदा कर पाएं, तो जम्हूरियत की नासाज रूह की थोड़ी तीमारदारी हो जाएगी और यही होगी मधु जी के प्रति सच्ची भावांजलि।