
— हर्ष मंदर —
भारत एक घोर विषमता वाला देश है। महामारी के वर्षों में यह साफ दीख पड़ा कि यह विषमता भारत के करोड़ों वंचितों पर किस तरह कहर ढा रही है, वे इज्जत के साथ जिंदगी नहीं जी सकते।
ऐसी स्थिति में यह हैरानी की बात नहीं कि ‘विश्व विषमता रिपोर्ट 2022’ (वर्ल्ड इनइक्वलिटी रिपोर्ट 2022) यह कहती है कि भारत दुनिया के उन देशों में है जहाँ सबसे ज्यादा गैरबराबरी है, जहाँ मुट्ठीभर दौलतमंद अभिजनों के बरक्स गरीबी बढ़ रही है। इन दौलतमंद अभिजनों को उत्तराधिकार में धन-संपदा का भी लाभ मिलता है और जातिगत ऊँचे दर्जे का भी। दूसरी तरफ, ऐतिहासिक रूप से वंचित रहे आए तबके पुश्त-दर-पुश्त गरीबी के जाल में फँसे रहते हैं- स्त्रियाँ, अनुसूचित जातियाँ, अनुसूचित जनजातियाँ, विकलांग लोग और असंगठित क्षेत्र के मजदूर।
महामारी के दौरान जो लाखों लोगों की मौत हुई, वह टाली जा सकती थी। लेकिन इतनी त्रासद और शर्मनाक घटना भी हमारे नीति नियंताओं को नीति-सुधार के लिए विवश नहीं कर सकी। उलटे, अगर कोई राजनीतिक संदेश तलाशा जाए तो वह केंद्र सरकार का नया बजट देता है, वह यह कि भारत के गरीब लोग सामाजिक तथा राजनीतिक दृष्टि से अब कोई मायने नहीं रखते।
यह केन्द्र सरकार का आखिरी पूर्ण बजट था, क्योंकि भारतीय जनता पार्टी को 2024 में आम चुनाव में जाना है। महामारी के दौरान लोगों ने अथाह तकलीफें झेलीं और देश की अर्थव्यवस्था में चौतरफा गिरावट आयी तथा दशकों में पहली बार बेरोजगारी का ग्राफ इतना ऊपर चढ़ा था। इस पृष्ठभूमि में कम-से-कम इतनी अपेक्षा तो थी ही कि बजट में रोजगार, आय की सुरक्षा, चिकित्सा-सुविधाओं और आम किसानों तथा कामकाजी गरीबों के लिए पेंशन-सुविधा जैसे उपाय, भले प्रतीकात्मक तौर पर, किये जाएंगे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।
इस बार के बजट ने साफतौर पर जो राजनीतिक संदेश दिया वह बेहद चिंताजनक है, वह यह कि गरीब हितैषी दीखना चुनावी सफलता के लिए खास जरूरी नहीं रह गया है। सत्तारूढ़ पार्टी में यह आत्मविश्वास आ गया है कि संपत्ति और आय के लिहाज से नीचे की भारत की आधी आबादी के लिए स्वास्थ्य, शिक्षा, पेंशन, बेहतर रोजगार, बेहतर आय के लिए प्रतिबद्धता दर्शाए बगैर भी चुनाव जीता जा सकता है। इसका अर्थ है कि धनकुबेरों की अपार धन-संपदा में वृद्धि करनेवाली उसकी नीतियाँ जारी रहेंगी, सार्वजनिक संसाधनों का निजीकरण होता रहेगा, वह न तो पुनर्वितरण की नीतियों पर चलेगी और न ही लोकहित के प्रावधानों तथा जनसाधारण के सामाजिक अधिकारों को दृढ़ करेगी।
—

ऐसे में यह अवश्यंभावी लगता है कि भारत में विषमता की खाई और चौड़ी होगी। आक्सफैम इंडिया की भारत की गैरबराबरी के बारे में ‘सरवाइवल आफ द रिचेस्ट : द इंडिया स्टोरी’ नामक रिपोर्ट भारत में बढ़ती विषमता की बेझिझक, साफ तस्वीर पेश करती है, यह रिपोर्ट तथ्यों के साथ बताती है कि धनिकों और गरीबों के बीच पहले ही काफी चौड़ी हो चुकी खाई, और भी चौड़ी होगी।
इस अध्ययन ने पाया कि महामारी के बाद, नीचे की आधी आबादी की संपत्ति में कमी आने का सिलसिला जारी है। कोविड-19 से निपटने की खातिर जो लाकडाउन लगाया गया उसका फौरी असर यह हुआ कि 2020 तक राष्ट्रीय आय में उनकी हिस्सेदारी घटकर 13 फीसद रह गयी। और वे देश की धन-संपदा के 3 फीसद से भी कम के मालिक हैं।
भारत में गैरबराबरी का आलम यह है कि सबसे ऊपर के 30 फीसद लोग कुल धन-संपदा के 90 से भी अधिक के मालिक हैं। सबसे धनी 10 फीसद लोगों के पास 72 फीसद धन-संपदा है। सबसे ऊपर के महज 1 फीसद लोग देश की 46.6 फीसद धन-संपदा के मालिक हैं, नीचे की पचास फीसद आबादी के पास जितनी धन-संपदा है यह उससे 13 गुना अधिक है। इसका अर्थ यह भी है कि ऊपर के 10 फीसद लोगों के पास जितनी धन-संपदा है उसका आधे से अधिक ऊपर के 1 फीसद लोगों के पास है।
भारत में अरबपतियों की संख्या 2020 में 102 थी, जो कि बढ़कर 2022 में 166 हो गयी। रिपोर्ट बताती है कि भारत में 100 सर्वाधिक धनी लोग (जिनमें अधिकतर पुरुष हैं) सम्मिलित रूप से 54.12 लाख करोड़ रु. की दौलत के मालिक थे। सर्वाधिक धनी सिर्फ 10 लोगों के पास कुल 27.52 लाख करोड़ की दौलत थी- 2021 से 32.8 फीसद के इजाफे के साथ।
अडानी ग्रुप के मालिक गौतम अडानी की दौलत में जो हैरतअंगेज बढ़ोतरी हुई वह खासकर एक मिसाल है। ऐसे समय जब 97 फीसद भारतीयों की आमदनी कम हो गयी, अडानी की दौलत 8 गुना बढ़ गयी, सिर्फ महामारी के दौरान, और फिर, फोर्ब्स मैगजीन के मुताबिक, लगभग दुगुनी होकर, अक्टूबर 2022 में 10.96 लाख करोड़ पर पहुँच गयी। अडानी धड़धड़ाते हुए दुनिया के सबसे अमीर लोगों की सूची में जा पहुँचे और कुछ समय तक तीसरे नंबर पर रहे। अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज ने हिसाब लगाया है कि अगर 100 श्रमिक स्थिर न्यूनतम मजदूरी पर काम करें, तो उन्हें 10 लाख साल लगेंगे उतना कमाने में, जितना पैसा अडानी ने सिर्फ महामारी के दौरान बनाया है।
हालांकि अडानी ने दौड़ में सबको पीछे छोड़ दिया लेकिन दौलत की उछाल में वह अकेले नहीं हैं। मुकेश अंबानी, जो कि एक समय भारत के सबसे धनी आदमी थे, उनकी धन-दौलत में महामारी के दौरान 72 फीसद की बढ़ोतरी हुई (दत्ता और सरदार, 2021)। उनकी दौलत में प्रति घंटा 90 करोड़ रु. का इजाफा हुआ। आक्सफैम इंडिया ने हिसाब लगाया है कि अंबानी ने महज एक घंटे में जितना हासिल किया उतना कमाने में एक दिहाड़ी मजदूर को 10,000 साल लगेंगे।
महामारी के दौरान शिव नाडार, राधाकृष्णन दमानी और कुमार बिड़ला जैसे अरबपतियों की दौलत में भी 20 फीसद से ज्यादा का इजाफा हुआ। साइरस पूनावाला, जो कि साइरस पूनावाला ग्रुप के मालिक एवं प्रबंध निदेशक हैं (जिनके इस बयान की काफी निंदा हुई थी कि महामारी खूब मुनाफा बटोरने का वक्त है), उनकी दौलत में 2021 से 91 फीसद की बढ़ोतरी हुई है। यह तथ्य भी खासा गौरतलब है कि मैन्युफैक्चरिंग के बाद ज्यादातर अरबपति चिकित्सा और दवा के कारोबार में सक्रिय हैं।
दूसरी तरफ, भारत एक ऐसा देश है जहाँ गरीबों (गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करने वालों) की तादाद सबसे ज्यादा है, 22.89 करोड़ (महेन्द्रू और अन्य, 2023)। इस गरीबी की जड़ें काफी गहरी हैं और खाद्य तथा ईँधन की महँगाई के दौर में इससे उबरना पहले से और मुश्किल हो गया है। शताब्दी की सबसे बड़ी स्वास्थ्य-आपदा तथा चिकित्सीय खर्चों और खाद्य व ईंधन की कीमतों में हुई बढ़ोतरी ने गरीबों को पहले से कहीं अधिक असहाय बना दिया है।
आक्सफैम इंडिया की रिपोर्ट बताती है कि भारत में औसत आय बस किसी तरह गुजारा करने भर की होती है और महज एक हफ्ते की आमदनी से हाथ धो बैठना भुखमरी के कगार पर ला सकता है। यह रिपोर्ट सरकारी आँकड़ों के हवाले से ही बताती है कि 2022 में पाँच साल से कम आयु के जितने बच्चों की मौत हुई उनमें से 65 फीसद मौतें कुपोषण की वजह से हुईं। भारत में भूखे या अधपेट सोनेवालों की संख्या 2018 में 19 करोड़ थी, जो कि बढ़कर 2022 में 35 करोड़ हो गयी।
अमर्त्य सेन ने वर्ष 2013 में एक बार कहा था कि भारत में जैसी घोर गैरबराबरी है वैसी ही चीन में भी है, लेकिन गैरबराबरी का दंश चीन के मुकाबले भारत में अधिक है। यह इसलिए है क्योंकि अगर चीन में सबसे नीचे के 10 फीसद लोगों में मैं शामिल हूँ तो मैं आश्वस्त हो सकता हूँ कि मेरी बेटी अगर बीमार पड़ेगी, तो सरकारी अस्पताल में उसका संतोषजनक इलाज होगा, और अच्छे स्कूल में उसकी पढ़ाई होगी। लेकिन अगर भारत में मैं आबादी की उस श्रेणी में आता हूँ तो वैसी सहूलियत पाने का भरोसा मुझे नहीं है।
भारत में गैरबराबरी की भयावहता महामारी और लाकडाउन के दौरान एकदम सतह पर आ गयी।
लोगों से कहा गया कि वे घर में बंद रहें और घर से काम करें। लेकिन भारत के 10 कामकाजी लोगों में से 9 लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। इन 90 फीसद में से अधिकतर लोग ऐसे रोजगारों में हैं जिनमें न तो एक निश्चित अवधि तक रोजगार के बने रहने की गारंटी है न अच्छी आय है और न ही कानूनी तथा सामाजिक सुरक्षा यानी पेंशन आदि की सुविधा। सबसे नाजुक स्थिति दिहाड़ी मजदूरों की है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के मुताबिक 2021 में रोजाना औसतन 115 दिहाड़ी मजदूरों ने खुदकुशी की (महेन्द्रू और अन्य, 2023)।
लाकडाउन के दौरान लोगों से ‘सोशल डिस्टेंस’ बनाए रखने को कहा गया, लेकिन प्रति 10 भारतीयों में से 6 लोग एक कमरे या उससे भी कम जगह में गुजारा करते हैं, उनके लिए वैसी दूरी बरत पाना असंभव है। इसी तरह, लोगों से कहा गया कि नियमित रूप से हाथ धोते रहें। लेकिन सिर्फ चार साल पहले, हालत यह थी कि 100 करोड़ भारतीयों के पास नल से जलापूर्ति की सुविधा नहीं थी, और प्रति पाँच भारतीयों में से एक व्यक्ति शौचालय की सुविधा से महरूम था।
अब पुसाने लायक स्वास्थ्य-सुविधा तक पहुँच की बात करें। सामान्य दिनों में भी, हर साल 17 फीसद परिवारों को जीवन-मरण की स्थिति जैसा खर्च इलाज पर करना पड़ता है जिससे लगभग साढ़े पाँच करोड़ लोग कंगाली के दायरे में आ जाते हैं (सेल्वराज और अन्य)। देश में स्वास्थ्य-तंत्र और सेवाओं पर सरकारी खर्च बहुत कम होता है, जिससे यह स्थिति और बिगड़ जाती है। जैसा कि आक्सफैम इंडिया की रिपोर्ट बताती है, भारत में प्रति 10,000 लोगों पर सिर्फ 5 अस्पताल-बेड हैं।
ग्रामीण भारत पर नजर डालें, तो यह विषमता और भी ज्यादा दीखेगी। सिर्फ 31.5 फीसद अस्पताल और 16 फीसद अस्पताल-बेड ग्रामीण क्षेत्रों में हैं, जहाँ देश की 75 फीसद आबादी रहती है। इससे भी बदतर यह कि ग्रामीण क्षेत्रों में 21.8 फीसद प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र बिना डॉक्टर के हैं, और 2021 में, 67.96 फीसद सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों के पास कोई विशेषज्ञ-डॉक्टर नहीं था।
दुनिया के सर्वाधिक गैरबराबरी वाले देशों में से एक, यानी भारत में, दुनिया में सबसे कम राहत पैकेज के साथ, दुनिया में सर्वाधिक सख्त लाकडाउन थोपा गया। इसके चलते मानवीय संकट और त्रासद हो सकता था। पर उतना बुरा नहीं हुआ, तो मनरेगा के कारण, जो किसी भी ग्रामीण परिवार को, माँगने पर, 100 दिन के काम की गारंटी देती है, और खाद्य सुरक्षा कानून के कारण, जो 80 करोड़ लोगों को काफी रियायती दरों पर अनाज तथा स्कूली बच्चों को पका भोजन व स्कूल जाने की उम्र से छोटे बच्चों को पोषाहार का प्रावधान करता है।
ये सामाजिक अधिकार पहले की सरकार द्वारा सुनिश्चित किये गये थे, लेकिन प्रधानमंत्री और उनके मंत्रिमंडलीय सहकर्मियों ने खुलेआम इन कानूनों का मखौल उड़ाया था। अनिच्छुक होते हुए भी सरकार मुफ्त अनाज देने के लिए विवश हुई, तो सुप्रीम कोर्ट के दखल के कारण। बहरहाल, ये पिछली सरकार में किये गये प्रावधान तथा अदालती निर्देश थे, जो करोड़ों लोगों के लिए सुरक्षा-कवच साबित हुए, वरना महामारी और भी त्रासद हो सकती थी।
(बाकी हिस्सा कल)
अनुवाद : राजेन्द्र राजन
Discover more from समता मार्ग
Subscribe to get the latest posts sent to your email.
















