आश्रम जीवन

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नारायण देसाई (24 दिसंबर 1924 – 15 मार्च 2015)

— नारायण देसाई —

श्रम, जीवन जीने के गांधी के तरीके की प्रयोगशाला थे। उनकी आंतरिक खोज के परीक्षण स्थल भी। आश्रम में रहने वालों को संबोधित करते हुए गांधी ने 17 फरवरी, 1919 को कहा था : “दक्षिण अफ्रीका में मेरा सर्वोत्तम निर्माण फीनिक्स आश्रम था। उसके बगैर उस देश में सत्याग्रह न हुआ होता। यहां भी, आश्रम के बिना, भारत में सत्याग्रह असंभव है… मेरे अन्य कार्यों के लिए मुझमें महानता न ढूंढ़ें, मेरा आकलन केवल आश्रमों के आधार पर करना ठीक होगा।

शब्दकोश में आश्रम का अर्थ है तपोवन। आश्रम में जरूर तपोवन के कुछ तत्त्व थे, जैसे कि उसकी दिनचर्या और आचार संहिता। लेकिन आश्रमों का जो राजनैतिक महत्त्व था वह उन्हें तपोवन की भारतीय परम्परा से अलग करता था। चार आश्रम गांधी ने अपने जीवनकाल में स्थापित किए, दो दक्षिण अफ्रीका में और दो भारत में।उनके आश्रमों ने पहले दक्षिण अफ्रीका में भारतीय समुदाय के इतिहास में अहम भूमिका निभाई और फिर भारत में आजादी के अहिंसक आंदोलन में। राजनैतिक ध्येय के साथ अध्यात्म के मिलन ने आश्रमों को अपूर्व विशिष्टता प्रदान की।

गांधी ने जॉन रस्किन की किताब “अनटु दिस लास्ट” से जो सबक सीखे थे उनका पहला परीक्षण स्थल फीनिक्स आश्रम था। एक कामयाब वकील रातोरात खुद खेत में काम करने वाले किसान में बदल गया था। टॉलस्टाय आश्रम दुनिया में सत्याग्रहियों के पहले जत्थे का आश्रय स्थान बना। इसने उन्हें न केवल विश्राम करने और तरोताजा होने का बल्कि सोचने-विचारने तथा अपनी आंतरिक शक्ति को दृढ़ करने का भी मौका दिया।साबरमती आश्रम गांधी के सत्याग्रह का शायद सबसे महत्त्वपूर्ण प्रशिक्षण केंद्र बना, जो आध्यात्मिक गुणों के विकास के लिए आंतरिक प्रशिक्षण के साथ-साथ आजादी के लिए चलने वाले संघर्ष में हर तरह की मुश्किलें झेलने के मौके भी मुहैया कराता था। साबरमती आश्रम रचनात्मक कार्यकर्ताओं की भर्ती का भी केंद्र बन गया था। चारों आश्रमों ने गांधीवादी गतिविधियों के लिए नए और संभावनाशील कार्यकर्ताओं को आकर्षित किया, जिनमें से कुछ न केवल गांधी के आजीवन सहयोगी बन गए बल्कि उन स्त्री-पुरुषों ने स्वयं में असाधारण गुणों का विकास किया। ये आश्रम भी अपने में एक प्रकार का आदर्श बन गए, जिनकी तर्ज पर देश में सैकड़ों छोटे-छोटे आश्रम स्थापित हुए और उन सब ने आजादी के आंदोलन में शक्ति-स्रोत की भूमिका निभाई।

गांधी की दृष्टि से सामुदायिक जीवन कैसा होना चाहिए, आश्रम इसके उदाहरण थे। सामुदायिक जीवन का सार सुख-दुख को एक दूसरे से साझा करने और एक दूसरे का खयाल रखने में होता है। इन आश्रमों में जाति, धर्म, भाषा, लिंग, उम्र के विभेदों से पर जीवन सबके साथ साझा था। आश्रमवासी एक दूसरे का पूरा खयाल रखते। एक दूसरे के प्रति यह भाव खून के रिश्तों और आर्थिक व अन्य सांसारिक हितों से परे था। मुझे व्यक्तिगत रूप से इसका अनुभव हुआ था, जब मेरे माता-पिता दोनों जेल चले गए और पीछे मैं अकेला रह गया, जबकि मैं महज सात साल का था। मैं तब आश्रम के नौ अन्य बच्चों के साथ रहा, ‘अछूत’ लड़कियों के लिए बने एक होस्टल में। वहां हम दस बच्चों में हिंदू भी थे, जैन भी और मुस्लिम भी, और जो उम्र में बड़े थे वे छोटों का हर तरह से खयाल रखते थे। तीन बच्चे मुझसे छोटे थे। जब आश्रम में कोई बीमार पड़ जाता तो देखभाल के लिए इतने लोग होते थे कि आप उतने लोग कहीं भी नर्सिंग होम में नहीं पा सकते। आज भी, दशकों के बिलगाव के बाद, जब मैं आश्रम के किसी पुराने अंतेवासी से मिलता हूं तो मुझे किसी घनिष्ठ संबंधी या आत्मीय मित्र से मिलने जैसी ही खुशी होती है।

सामुदायिक जीवन का मर्म है साथ-साथ जीना। हम अपनी खुशियां और दुख, अपने काम और जिम्मेदारियां, अपने गुण और अवगुण, अपने पाप और पुण्य साझा करते हैं। मेरे जीवन का पहला गंभीर ‘अनुभव’ वह था जब गांधी ने हमारे ही एक साथी के पथभ्रष्ट हो जाने पर उपवास किया था। तब मुझे समझ में आया कि दूसरों के दुखों को साझा करने से गांधी का क्या अर्थ है। बाद में, जब मैं सुनता कि ईसा मसीह या गांधी दूसरों के पापों के लिए मरे, तो उसका मतलब समझने में जो अनुभव मददगार साबित हुए उनमें आश्रम जीवन में हुआ वह अनुभव भी था।

आश्रम में हर कोई अपनी रुचियों और अपने आंतरिक विकास की खातिर अध्ययन तथा प्रयोग करने के लिए स्वतंत्र था, पर आश्रम की चार गतिविधियां ऐसी थीं जो सामुदायिक तौर पर संपन्न की जाती थीं। इनमें से हरेक का अपना महत्त्व था।

इन सामुदायिक गतिविधियों में, शायद मनोवैज्ञानिक रूप से सबसे कठिन था एकसाथ बैठकर भोजन करना। एक औसत हिंदुस्तानी शायद अपने खान-पान की आदतों को लेकर ही सबसे ज्यादा तुनकमिजाज होता है। खाना क्या पकाया जाए, किस तरह से पकाया जाए, किस तरह से परोसा जाए और स्वाद कैसा हो, इस सब की बाबत सबके अपने-अपने आग्रह होते हैं। एक औसत भारतीय के लिए इन आग्रहों को छोड़ पाना बहुत मुश्किल होता है। मैंने भोजन को लेकर मामूली बातों पर अनगिनत झगड़े होते देखे हैं। गांधी दक्षिण अफ्रीका से ही सामुदायिक रसोई पर जोर देते आ रहे थे। अलबत्ता अपने हर आश्रम में उन्होंने कुछ अपवाद स्वीकार किए थे। सामुदायिक रसोई आहार संबंधी गांधी की प्रयोगशाला थी। यहां उन्हें कुछ आश्रमवासियों के मिजाज को समझने का भी मौका मिलता था। जब भी उनके पास वक्त होता, आप उन्हें रसोई में काम करते देख सकते थे। सेवाग्राम में जब वह बहुत ज्यादा व्यस्त रहते, सामुदायिक भोजन के समय परोसने के काम में हाथ बंटाकर फर्ज अदा करते।

भोजन और आहार में गांधी की वैसी ही प्रगाढ़ रुचि थी जैसी अर्थशास्त्र और दर्शनशास्त्र में। वे खान-पान की आदतों को लेकर लोगों को सलाह देते कभी न थकते।भोजन कभी-कभी गांधी के लिए वर्गीय प्रतीक भी बन जाता। उदाहरण के लिए, दांडी मार्च के दौरान उन्होंने अपने 79 साथियों को वैसा ही भोजन स्वीकार करने की सख्त हिदायत दे रखी थी जैसा गांवों के गरीब लोग करते थे।‌ सामुदायिक भोजन गांधी के लिए भारत के करोड़ों भूखे लोगों के प्रति अपनी चिंता जताने का तरीका भी था।

(जारी)

अनुवाद : राजेन्द्र राजन

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