मैंने जातिबन्धन को संयम की दृष्टि में सहायक मानकर स्वीकार किया है। परन्तु आजकल जाति संयम में सहायक नहीं है बल्कि केवल बन्धन बनकर रह गई दिखाई देती है। संयम मनुष्य को शोभा देता है और स्वतंत्र बनाता है। बन्धन एक बेड़ी के समान है और वह मनुष्य की अवनति करता है। आजकल जाति का जो अर्थ होता है वह न वांछनीय है और न शास्त्रीय । आज जिस अर्थ में उसका प्रयोग होता है उस अर्थ में यह शब्द शास्त्र में है ही नहीं। अब तो अनगिनत जातियां हैं और उन जातियों में भी विभाग हो गये है और उनमें परस्पर बेटी-व्यवहार बंद है। ये लक्षण उन्नति के नहीं, अवनति के हैं
3 मई 1925
स्त्रोत: संपूर्ण गांधी वांग्मय, खंड:27, पृष्ठ: 20-21
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