आजाद भारत की पहली ईद, गांधी और कलकत्ता

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(तसवीर ईद के दिन कलकत्ता के मोहम्डन स्पोर्टिंग क्लब में आयोजित गांधी की प्रार्थना सभा की है.)

— पुष्य मित्र —

मेरा पहला कर्तव्य उन सभी मुसलमानों को ईद मुबारक कहना है, जो यहां मौजूद हैं. एक समय था जब हिंदू और मुसलमान दोनों इस दिन एक दूसरे से गले मिलते थे. मुझे कबूल करना चाहिए कि कई सालों के बाद मैं यह दृश्य देख रहा हूं. मुझे मुस्लिम लीग, नेशनल गार्ड और कांग्रेस के स्वयंसेवकों को एक साथ यहां देखकर बहुत खुशी हो रही है. हालांकि, यह एकता चिरस्थायी होनी चाहिए. हमें अंग्रेजों की जगह लेनी है. मैं आज जो दृश्य देख रहा हूं, उसे कभी नहीं भूल पाऊंगा.
– महात्मा गांधी, 18 अगस्त, 1947, मोहम्डन स्पोर्टिंग्स क्लब मैदान, कलकत्ता.

ह आजादी के बाद की पहली ईद थी और महात्मा गांधी के जीवन की आखिरी ईद. उस रोज कलकत्ता के मोहम्डन स्पोर्टिंग्स क्लब मैदान में आयोजित उनकी प्रार्थना सभा में पांच लाख से अधिक लोग जुटे थे. जिसमें हर धर्म के लोग थे. कलकत्ता में वह अनूठी ईद थी, वहां के हिंदुओं ने रोजा खोलने के लिए मस्जिदों में अपनी तरफ से खाना भेजा था और मुसलमानों ने हिंदुओं को आमंत्रित किया था कि आप हमारी ईद के जश्न में शामिल होइये. प्रार्थना सभा के उस मैदान में दोनों कौम के लोग गले मिल रहे थे.

इसे कई इतिहास लेखकों ने चमत्कार का नाम दिया और खास कर अगस्त महीने के आखिरी पखवारे में जो कुछ कलकत्ता में घटा उसे कलकत्ते का चमत्कार कहा गया. भारत के आखिरी वायसराय लार्ड माउंटबेटन ने संदेश भिजवाया, “एक तरफ पंजाब में हमारी 50 हजार की सेना दंगों को रोकने में नाकाम साबित हो रही है, वहीं दूसरी तरफ एक आदमी की अकेली सेना ने पूरे बंगाल को बंटवारे की आग में झुलसने से बचा लिया. मैं उस एक आदमी की सेना को सलाम करता हूं.”

यह सचमुच चमत्कार ही था क्योंकि नौ अगस्त को जब गांधी नोआखली जाने के लिए कलकत्ता पहुंचे थे तो अंग्रेजों की यह पुरानी राजधानी भीषण दंगों की आग में झुलस रही थी. नफरत इतनी थी कि हिंदुओं और मुसलमानों के अलग-अलग मोहल्ले बंट गये थे. न हिंदू मुसलमानों के मोहल्ले जाने की हिम्मत करता, न मुसलमान हिंदुओं की तरफ फटकने का ख्याल दिल में लाता. उनके कलकत्ता पहुंचते ही मुस्लिम लीग के नेताओं ने उन्हें घेरना शुरू कर दिया. वे महात्मा गांधी को कलकत्ता में ही रोकना चाहते थे, क्योंकि उन्हें मालूम था कि इस शहर के मुसलमानों को अब दंगों की आग से बचा सकता है तो वे गांधी ही हैं.

गांधी जी कलकत्ता में रुकने के लिए तैयार हो गये, मगर उन्होंने कुछ शर्तें रखीं. उन्होंने कहा कि इस पीस मिशन में बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री शहीद सुहरावर्दी को उनका साथ देना होगा. वे दोनों एक ही मकान में साथ रहेंगे और यह प्रण लेंगे कि इस शहर को दंगों की आंच से बचाने के लिए अगर जान भी देनी पड़े तो वे अपनी जान दे देंगे. साथ ही उन्हें यह गारंटी भी लेनी पड़ेगी कि नोआखली में इस दौरान किसी हिंदू की जान दंगों में न जाये. नहीं तो वे कलकत्ता में ही अपना अनशन शुरू कर देंगे.

सुहरावर्दी वही नेता थे, जिन्हें कलकत्ता का बूचर कहा जाने लगा था. 1946 में डायरेक्ट एक्शन डे के दिन वे बंगाल के मुख्यमंत्री थे और उन्हीं की अगुआई में कलकत्ता में भीषण दंगा फैला.

गांधी जी की शर्त अजीब थी, वे एक अंगुलीमाल डाकू को बुद्ध बनने की शर्त रख रहे थे. मगर सुहरावर्दी ने इस शर्त को स्वीकार कर लिया. दोनों बेलियाघाटा मोहल्ले के एक दंगा प्रभावित मकान हैदरी मंजिल में लगभग बीस दिन साथ रहे. इस दौरान सुहरावर्दी कैसे का पूरा किरदार बदल गया, वे कैसे पूरी तरह गांधी के रंग में रंग गये, उसकी अलग कहानी है. मगर गांधी जी का यह प्रयोग कामयाब रहा. 14 अगस्त की रात जब सुहरावर्दी ने भीड़ के सामने पिछले साल के दंगों के लिए अपना अपराध कबूल कर लिया, तो माहौल बदलने लगा. आजादी का दिन कलकत्ते में भाईचारे के दिन में बदल गया. तब से लेकर अगले एक पखवाड़े तक गांधी जी ने घूम-घूम कर कलकत्ता के कई अलग मोहल्ले में प्रार्थना सभा की. जहां हर रोज लाखों की भीड़ उमड़ती थी.

इसी दौरान ईद का दिन भी आ गया. सुबह से ही शहर के मुसलमान तोहफे और मिठाइयां लेकर हैदरी मंजिल में पहुंचने लगे, जहां गांधी और सुहरावर्दी एक साथ ठहरे थे. पूरे दिन कलकत्ता शहर में जश्न का माहौल रहा.

आजादी के दिन की प्रार्थना सभा में गांधी जी ने कहा था,

“मुसलमान भी वही नारे लगा रहे हैं, जो हिंदू लगा रहे हैं. दोनों बिना झिझक के एक साथ तिरंगा फहरा रहे हैं. इससे अधिक और क्या चाहिए कि हिंदू मस्जिदों में बुलाये जा रहे हैं और मुसलमानों का स्वागत मंदिरों में हो रहा है. अगर यह सब दिल से हो रहा है और इसमें कोई तात्कालिक आवेग नहीं है, तो यह और भी अच्छी बात है. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि दोनों एक साथ नफरत का प्याला पिया था, अब दोस्ती का अमृत हमें पहले से कहीं अधिक मीठा लग रहा है.”

हालांकि ईद के दिन सबकुछ अच्छा नहीं था. कलकत्ता से 26 मील दूर कांचरपाड़ा के औद्योगिक क्षेत्र में मस्जिद के सामने बाजा बजाने को लेकर विवाद हो गया था, जिसमें पुलिस ने गोली चला दी और कुछ लोग मारे गये. अगली सुबह गांधी जी वहां गये और लोगों से कहा, ‘जबतक कांग्रेस और लीग या भारत और पाकिस्तान के बीच इस मसले को लेकर कोई नया समझौता न हो जाये, तब तक बाजा बजाने को लेकर अंग्रेज सरकार के जमाने की रीत का ही पालन होना चाहिए.’

वह पूरा दिन कांचरपाड़ा जाने और आने में ही बीत गया, शाम को सीधे प्रार्थना सभा में ही पहुंचे. उस रोज सुहरावर्दी ने कहा, ‘ऐसी बूढ़ी उमर में इतना तनाव बर्दास्त करना सिर्फ महात्मा के लिए ही संभव है. मुझे अब महात्मा जी की महानता का अनुभव हुआ है.‘

भीड़ में से किसी ने टिप्पणी की, ‘आपको यह अनुभव पहले हो जाना चाहिए था.‘

जवाब में सुहरावर्दी बोले, ‘आजादी मिलने के बाद यह बात मुझे समझ आई है कि महात्मा गांधी सचमुच महात्मा हैं.‘

देश में वैसा ही माहौल रहे, जैसा गांधी चाहते थे, जिसके लिए गांधी ने कोशिशें की थी. इसी उम्मीद के साथ आप सबों को ईद की मुबारकबाद.


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