— पुष्मित्र —
नौ अगस्त, 1947 को गांधी जी जब कलकत्ता पहुंचे थे तो शाम को भारत सरकार के सूचना विभाग का एक अधिकारी उनसे मिलने आया. वह उनसे भारत की आज़ादी को लेकर एक सन्देश चाहता था, जिसे 15 अगस्त के दिन प्रसारित किया जाना था. उन्हें गांधी जी ने जवाब दिया, “मैं बिल्कुल खाली हो चुका हूँ. मेरे पास ऐसा कुछ नहीं बचा है, जिसे मैं कहना चाहूँ.” थोड़ी देर में दो और अधिकारी आए और कहने लगे कि आज़ादी के मौके पर अगर आपने कोई सन्देश नहीं दिया तो लोगों को अच्छा नहीं लगेगा. इस पर गांधी जी बोले, “सचमुच मेरे पास कोई सन्देश नहीं, अगर यह बुरी बात है तो ऐसा ही सही.”
दो दिन बाद बीबीसी (ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कार्पोरेशन) के पत्रकार भी इसी मकसद से उनके पास आए. वे भी गांधी जी का सन्देश चाहते थे, जिसे पूरी दुनिया में सुनाया जाना था. लेकिन गांधी जी ने अपने सहयोगी और बांग्ला शिक्षक निर्मल कुमार बोस के जरिये उन्हें कहलवा दिया कि उनके पास देने के लिए कोई सन्देश नहीं है. बीबीसी वालों ने इसरार करते हुए कहा कि यह संदेश दुनिया-भर की अलग-अलग भाषाओं में प्रकाशित होगा, क्योंकि भारत की आज़ादी के इस ऐतिहासिक मौके पर पूरी दुनिया महात्मा गांधी को सुनना चाहती है. गांधी जी ने काग़ज़ की एक पर्ची पर लिख भेजा-
I must not yield to the temptation. They must forget that I know English.
मुझे इस प्रलोभन के आगे नहीं झुकना चाहिए. उन्हें भी यह भूल जाना चाहिए कि मैं अंग्रेज़ी जानता हूँ.
भारत की आज़ादी को लेकर यह उनकी अजीब सी प्रतिक्रिया थी. वे अधिकारियों और पत्रकारों से इस मसले पर कोई बात नहीं करना चाहते थे, वे दुनिया को यह नहीं बताना चाहते थे कि भारत की इस आज़ादी को लेकर उनकी क्या प्रतिक्रिया है. क्योंकि उत्साह उनमें था नहीं, अपनी उदासी वे ज़ाहिर नहीं करना चाहते थे.
क्योंकि गांधी न आज़ादी के जश्न के पक्ष में थे, न ही वे इस तारीख़ को, यानी 15 अगस्त, 1947 को दिल्ली में रहना चाहते थे. इसलिए भागकर कलकत्ता आ गये थे और नोआखली जाना चाहते थे. क्योंकि यह आज़ादी अपने साथ देश के बँटवारे की टीस भी लेकर आ रही थी और इस बँटवारे की वजह से उनके अपने ही देश के लोग एक-दूसरे के ख़ून के प्यासे हो गए थे.
हालाँकि दिलचस्प बात यह है वे प्रार्थना-सभाओं में आम लोगों से और व्यक्तिगत बातों में कांग्रेसी नेताओं से ज़रूर कहते कि यह दिन उन्हें उपवास करते हुए, सादगी से, चरखा कातते हुए मनाना चाहिए. वे याद दिलाते कि हमारे देश में लाखों लोग इतने ग़रीब हैं कि उनके पास खाने के लिए अनाज नहीं, पहनने के लिए वस्त्र नहीं, रात में डिबिया जलाने के लिए तेल नहीं, ऐसे में हमें इस उत्सव में न दिये जलाने चाहिए, न फिजूल खर्जी करनी चाहिए.
सिर्फ एक दिन पहले जब वे पटना में थे तो आठ अगस्त, 1947 की शाम को प्रार्थना-सभा में गांधी जी ने बिहार के लोगों को 15 अगस्त का कार्यक्रम समझाया. वे बोले-
“उस दिन उपवास रखना और सबको अपने-अपने धर्म का पालन करना चाहिए. 15वीं तारीख़ तो हमारी परीक्षा का दिन है. कोई दंगा-फसाद न करे. यह स्वराज ऐसा नहीं कि हम रोशनी करें, ख़ुशी मनाएँ. आज हमारे पास अनाज, कपड़े, घी और तेल कहाँ हैं? इसलिए हम उत्सव कैसे मनाएँ? चरखे की नींव पर बिहार खड़ा है और आज भी इस क्षेत्र में बिहार सबसे आगे है. बिहार को अपनी ज़रूरत का कपड़ा ख़ुद तैयार कर लेना चाहिए.”
नौ अगस्त की शाम कलकत्ता में उन्होंने कहा, “अब हमारी खरी कसौटी का वक़्त आ गया है. अगर हम जरा भी चूके तो भारत फिर से गुलाम बन सकता है. ऐसा हुआ तो मैं उस दिन को देखने के लिए ज़िन्दा नहीं रहूँगा. मेरी आत्मा वह देख कर रो उठेगी. पर ऐसा समय न आए, यही ईश्वर से मेरी प्रार्थना है और आपको भी इसे सच करके दुनिया को दिखाना होगा.”
उन्होंने ऐसा ही किया. आजादी के दिन वे कलकत्ता के बेलियाघाटा मोहल्ले में एक दंगापीड़ित परिवार की गंदी सी हवेली में बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री शहीद सुहरावर्दी के साथ ठहरे थे, जिसकी तसवीर पोस्ट के साथ है. उन्होंने वह दिन सादगी के साथ मनाया. मगर उनकी सदिच्छा का नतीजा यह निकला कि पिछले कुछ हफ्तों से दंगों की भीषण आंच में झुलस रहा कलकत्ता शहर शांत हो गया. आजादी का जश्न शहर के हिंदुओं और मुसलमानों ने एक साथ मिलकर मनाया. वहां गांधी की मौजूदगी की वजह से जैसा अमनचैन कायम हुआ उसे कलकत्ते के चमत्कार का नाम दिया गया.
कुछ दिन बात भारत के पहले वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने गांधी को चिट्ठी भेजी.
“पंजाब में हमारे पास 55 हजार सैनिक हैं, फिर भी वहां बड़े पैमाने पर दंगे हुए. बंगाल में हमारी सेना एक व्यक्ति की है.(गांधी की) मगर वहां कोई दंगा-फसाद नहीं हो रहा. एक अधिकारी और प्रशासक दोनों के रूप में मैं उस एक आदमी वाली सीमा सेना को अपनी अंजलि देना चाहता हूं.”
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