विश्व शिक्षक दिवस पर शिक्षक के बारे में – परिचय दास

0
World Teachers Day

Parichay Das

शिक्षक के बिना दुनिया की कल्पना अधूरी है। वह वही है जो दृष्टि देता है—दृष्टि से भी अधिक, दृष्टि की दिशा देता है। विश्व शिक्षक दिवस केवल किसी पेशे या पद का उत्सव नहीं बल्कि मनुष्य की चेतना के उस सबसे उजले क्षण का उत्सव है, जब वह स्वयं से बड़ा हो जाता है, जब किसी दूसरे के भीतर प्रकाश भरने की साध उसे अपनी निजी कामना से अधिक प्रिय लगती है। यह दिन बताता है कि शिक्षण एक क्रिया नहीं, एक सतत आत्मसंवाद है—जहाँ एक व्यक्ति दूसरे की चेतना में प्रवेश करता है और ज्ञान के बीज को जीवन की मिट्टी में रोपता है।

कभी कहा गया कि गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, गुरु महेश्वर है—क्योंकि सृजन, पालन और संहार, ये तीनों ही शिक्षक के कर्म में एक साथ उपस्थित हैं। वह अज्ञान का संहार करता है, जिज्ञासा का पालन करता है, और विचार का सृजन करता है लेकिन आज के समय में, जब शिक्षक केवल कक्षा में नहीं, स्क्रीन के उस पार भी खड़ा है—जब किताब की जगह डिजिटल फलक ने ले ली है—तब गुरु की यह पारंपरिक छवि एक नए स्वरूप में प्रकट हो रही है। अब शिक्षक केवल व्यक्ति नहीं, एक प्रक्रिया है; वह केवल समझाने वाला नहीं बल्कि सोचने के लिए उकसाने वाला है।

समकालीन युग में शिक्षक की भूमिका पहले से कहीं अधिक कठिन हुई है। समाज में सूचना की अधिकता ने ज्ञान का भ्रम रच दिया है। हर व्यक्ति गूगल की पहुंच में है परंतु विचार की ऊँचाई में नहीं। ऐसे में शिक्षक का काम अब केवल सूचना देना नहीं रह गया बल्कि सूचना और ज्ञान के बीच की पतली रेखा को पहचानने में मदद करना है। वह सिखाता है कि जानना ही पर्याप्त नहीं, जानने के बाद प्रश्न करना भी आवश्यक है। यही कारण है कि आज का शिक्षक, अगर सच्चा शिक्षक है तो वह उत्तर नहीं देता—वह प्रश्न जगाता है।

एक समय था जब शिक्षक और विद्यार्थी के बीच एक दूरी होती थी, एक पवित्र अनुशासन की रेखा। अब यह रेखा संवाद में बदल गई है। आधुनिक शिक्षा के इस युग में, जहाँ संबंध अधिक लोकतांत्रिक हुए हैं, शिक्षक अब केवल आदेश देने वाला नहीं, साथ चलने वाला है। वह मार्गदर्शक है पर मार्ग में वह भी सीखता चलता है। शिक्षक का होना अब ज्ञान के स्रोत के रूप में नहीं बल्कि ‘संवाद की निरंतरता’ के रूप में देखा जाने लगा है।

इस दृष्टि से विश्व शिक्षक दिवस केवल आभार का दिन नहीं, आत्ममंथन का भी दिन है। यह दिन पूछता है—क्या हमारे शिक्षण में संवेदना बची हुई है? क्या शिक्षण आज भी मनुष्य को मनुष्य बना रहा है, या केवल उसे एक दक्ष मशीन में बदल रहा है? स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय—सब अब किसी उत्पादन केंद्र जैसे दिखने लगे हैं, जहाँ विद्यार्थी को नौकरी के लिए तैयार किया जाता है, जीवन के लिए नहीं। ऐसे में शिक्षक का सबसे बड़ा संघर्ष है—अपने भीतर उस ‘मनुष्यत्व’ को बचाए रखना जो शिक्षा को केवल ज्ञान नहीं, अनुभव का प्रसार बनाता है।

आज का शिक्षक, विशेष रूप से भारत में, दोहरे दबाव में है। एक ओर प्रणाली उसे ‘परिणाम’ पर केंद्रित करती है—मार्क्स, रैंक, रिपोर्ट; दूसरी ओर उसके भीतर का शिक्षक उसे ‘प्रक्रिया’ में लौटना चाहता है—विचार, कल्पना, आत्मा। यही द्वंद्व आधुनिक शिक्षण का सबसे गहरा संकट है पर सच्चा शिक्षक वही है जो इस द्वंद्व को जीते हुए भी अपने भीतर की रोशनी बुझने नहीं देता। वह जानता है कि उसकी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है—विद्यार्थी के भीतर जिज्ञासा का बीज रोप देना ताकि वह एक दिन स्वयं अपने प्रश्नों के उत्तर खोज सके।

अगर हम इतिहास की ओर देखें तो पाएँगे कि हर युग की चेतना को शिक्षकों ने ही आकार दिया है। प्लेटो, चाणक्य, अरस्तू, आचार्य नानक, विवेकानंद—सब शिक्षक ही थे। वे जानते थे कि शिक्षा केवल ज्ञान नहीं, दृष्टिकोण है। आज जब दुनिया असहिष्णुता और विभाजन से भरी हुई है, तब शिक्षक ही वह व्यक्ति है जो विचार के पुल बना सकता है। उसकी कक्षा अब केवल चारदीवारी नहीं, एक विस्तृत समाज है—जहाँ हर विद्यार्थी किसी न किसी रूप में विश्व नागरिक बन रहा है।

शिक्षक की सबसे बड़ी पहचान है उसकी विनम्रता। वह जानता है कि जो सिखाता है, वही सबसे अधिक सीखता भी है। हर विद्यार्थी उसे एक नया संसार दिखाता है। उसकी आँखों से वह फिर से देखना सीखता है। यह पुनःदर्शन ही शिक्षक का सबसे बड़ा पुरस्कार है। किसी सम्मान या पदक से अधिक मूल्यवान वह क्षण होता है जब कोई पुराना विद्यार्थी कहीं मिलकर कहता है—“आपने जो सिखाया, वह आज भी याद है।” यही वाक्य शिक्षक के जीवन का शिखर है और यही विश्व शिक्षक दिवस का असली अर्थ भी।

आज जब कृत्रिम बुद्धिमत्ता, तकनीक और एल्गोरिद्म शिक्षा के क्षेत्र में उतर आए हैं, तब यह प्रश्न और भी तीव्रता से उठता है—क्या मशीन शिक्षक का स्थान ले सकती है? शायद नहीं। क्योंकि शिक्षा केवल ज्ञान का हस्तांतरण नहीं, आत्मा का स्पर्श है। मशीन तथ्यों को सहेज सकती है, भावों को नहीं; पर शिक्षक अपने भीतर के भाव से, अपने जीवन के अनुभव से, सीखने की ऊर्जा को जगाता है। इसलिए शिक्षक कभी अप्रासंगिक नहीं होगा—उसका स्वरूप बदल सकता है पर उसकी आवश्यकता नहीं।

विश्व शिक्षक दिवस इस चेतना की पुनर्पुष्टि है कि शिक्षा केवल भविष्य की तैयारी नहीं, वर्तमान को अर्थ देने की प्रक्रिया है। जब शिक्षक किसी विद्यार्थी को प्रेरित करता है तो वह केवल एक व्यक्ति को नहीं, आने वाले समय को आकार देता है। वह भविष्य का बीज बोता है। उसकी मुस्कान में पीढ़ियों का उजाला छिपा होता है।

इसलिए जब हम इस दिन किसी शिक्षक को धन्यवाद कहते हैं तो वह धन्यवाद किसी व्यक्ति को नहीं, एक परंपरा को दिया जाता है—वह परंपरा, जो शब्द से अर्थ तक, और अर्थ से अनुभव तक जाती है। शिक्षक केवल ‘पढ़ाने वाला’ नहीं, ‘जगाने वाला’ है। वह जीवन के सबसे शांत क्षणों में भी एक अदृश्य दीपक की तरह जलता रहता है—कभी अपने भीतर, कभी दूसरों के भीतर।

आज के समय में जब सब कुछ मापने की आदत हो गई है—ज्ञान, योग्यता, सफलता—शिक्षक वही है जो अब भी अमाप्य को महत्व देता है। वह अब भी कहता है कि शिक्षा का उद्देश्य बेहतर इंसान बनना है, बेहतर पेशेवर नहीं और शायद यही बात उसे कालातीत बना देती है।

विश्व शिक्षक दिवस एक स्मरण है—कि जब सब कुछ बदल जाएगा, तब भी कोई न कोई व्यक्ति किसी को कुछ सिखा रहा होगा, किसी को किसी बात की समझ दे रहा होगा। यही मानवता की निरंतरता है। यही शिक्षक का अमर रूप है। शिक्षक समय के पार खड़ा एक शिल्पी है—जो शब्दों से नहीं, आत्माओं से संवाद करता है। और यही संवाद मनुष्य को मनुष्य बनाता है।

शिक्षक का होना मात्र पेशा नहीं, वह एक दृष्टि का विस्तार है—वह निरंतर चलती हुई चेतना है जो मनुष्य को उसकी अधूरी संभावनाओं से मिलाती है। विश्व शिक्षक दिवस इस निरंतरता का उत्सव है। यह हमें स्मरण कराता है कि शिक्षण किसी संस्था या पाठ्यक्रम से कहीं बड़ा कर्म है—यह जीवन का वह शिल्प है जो अनाम, अनदेखे ढंग से समाज के आत्मा में आकार देता है।

हर युग ने अपने शिक्षक को नए अर्थों में पहचाना। कभी वह तपस्वी था जो आश्रम में बैठकर विद्यार्थियों को ब्रह्म की अनुभूति कराता था; कभी वह क्रांतिकारी बना, जिसने समाज की जड़ता को तोड़ा; और आज वह वह व्यक्ति है जो सूचना के अंधड़ में खड़े होकर विवेक की लौ जलाए रखता है। यह लौ आज पहले से कहीं अधिक नाज़ुक है। ज्ञान के नाम पर जो व्यापार फैल गया है, उसने शिक्षा को वस्तु बना दिया है। ऐसे में शिक्षक ही वह हस्ताक्षर है जो कहता है—ज्ञान बिकता नहीं, बाँटा जाता है; शिक्षा का कोई मूल्य नहीं, उसका प्रभाव होता है।

समकालीन भारत में शिक्षक का रूप अनेक स्तरों पर बदल रहा है। वह गाँव के स्कूल में चाक से ब्लैकबोर्ड पर लिखने वाला भी है और किसी महानगर की यूनिवर्सिटी में डिजिटल प्रेज़ेंटेशन देने वाला भी लेकिन दोनों के बीच एक अदृश्य धागा है—सेवा। शिक्षक का कर्म सेवा का ही विस्तार है। वह समाज की सबसे मौलिक ज़रूरत को पूरा करता है—विचार की ज़रूरत। जो समाज अपने शिक्षक को केवल वेतन या पद से मापता है, वह धीरे-धीरे आत्मा से निर्धन होता जाता है।

आज के समय में शिक्षक को सबसे बड़ी चुनौती ‘ध्यान’ की है। विद्यार्थी अब निरंतर विचलित है—सोशल मीडिया, त्वरित जानकारी और तात्कालिक सफलता के जाल में उलझा हुआ। शिक्षक का काम अब ध्यान को पुनः अर्जित कराना है। वह सिखाता है कि सीखने के लिए धैर्य चाहिए; हर चीज़ को तुरंत समझ लेना संभव नहीं। यह युग ‘फास्ट नॉलेज’ का है पर शिक्षक सिखाता है ‘डीप नॉलेज’। यही उसकी प्रासंगिकता है—वह स्थायित्व का प्रतीक है एक अस्थिर युग में।

शिक्षक और विद्यार्थी के बीच अब रिश्ता केवल औपचारिक नहीं, भावनात्मक भी है। यह रिश्ता अब किसी पारंपरिक अनुशासन से नहीं बल्कि पारस्परिक सम्मान से बँधा है। आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में जब ‘फीडबैक’, ‘असेसमेंट’, और ‘परफॉर्मेंस’ के मापदंड हावी हैं, तब भी शिक्षक वही है जो अपने विद्यार्थी को केवल अंक से नहीं, अनुभव से आँकता है। वह जानता है कि हर विद्यार्थी एक अपूर्ण कविता है—जिसे पूर्ण करने का हक किसी और को नहीं, खुद उसे ही है। शिक्षक बस उस कविता में अल्पविराम लगाता है, पूर्णविराम नहीं।

विश्व शिक्षक दिवस पर यह भी समझना होगा कि शिक्षण एक नैतिक कर्म है। यह केवल ज्ञान नहीं, मूल्य देता है। जब समाज में असहिष्णुता बढ़ती है, जब भाषा में हिंसा आ जाती है, जब जीवन केवल उपभोग की दौड़ बन जाता है—तब शिक्षक ही वह व्यक्ति है जो अपने शांत स्वर में कहता है कि मनुष्य होना अब भी संभव है। उसकी कक्षा अब केवल किताबों की नहीं, आत्मा की पाठशाला है। वह विद्यार्थियों को शब्दों के अर्थ ही नहीं, मौन के अर्थ भी समझाता है।

आज के समय में, जब शिक्षा बाज़ार और राजनीति के बीच फँस गई है, तब शिक्षक का काम एक तरह की ‘सांस्कृतिक प्रतिरोध’ की भूमिका निभाना है। वह विचार का प्रहरी है। वह यह सुनिश्चित करता है कि छात्र केवल करियर न बनाएँ बल्कि अपने भीतर ‘विचार का चरित्र’ भी विकसित करें। शिक्षक अपने विद्यार्थियों को यही सिखाता है कि ज्ञान का अर्थ किसी परीक्षा में पास होना नहीं बल्कि जीवन के प्रश्नों के प्रति सजग रहना है।

शिक्षक की इस सजगता का सबसे सुंदर उदाहरण है उसकी निस्वार्थता। वह हर पीढ़ी को तैयार करता है पर अपने हिस्से की प्रसिद्धि नहीं माँगता। उसका श्रम अदृश्य रहता है पर उसके परिणाम सर्वत्र दिखते हैं। एक सफल समाज, एक रचनात्मक संस्कृति, एक संवेदनशील नागरिक—इन सबके पीछे कहीं न कहीं किसी शिक्षक की मौन मेहनत होती है। विश्व शिक्षक दिवस इसी मौन को पहचानने का दिन है—उस श्रम को सलाम करने का दिन जो शोर नहीं करता पर सबसे गहरा परिवर्तन लाता है।

आज जब कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) और मशीन लर्निंग शिक्षा में प्रवेश कर रही हैं, तब यह प्रश्न और प्रासंगिक हो गया है कि मानव शिक्षक का महत्त्व क्या रहेगा? पर यह प्रश्न जितना तकनीकी है, उतना ही दार्शनिक भी। मशीनें ‘डेटा’ सिखा सकती हैं पर वे ‘जीवन’ नहीं सिखा सकतीं। शिक्षक का महत्व इसीलिए शाश्वत है—क्योंकि वह अनुभव को भाव में, और भाव को अर्थ में बदलता है। वह आँकड़ों से नहीं, संवेदना से शिक्षित करता है। उसकी उपस्थिति केवल शिक्षण की प्रक्रिया नहीं बल्कि जीवन की प्रक्रिया का हिस्सा है।

शिक्षक के बिना समाज अपने मूल्यों से भटक जाता है। इतिहास इसका साक्षी है। जहाँ गुरु की प्रतिष्ठा घटी, वहाँ संस्कृति भी क्षीण हुई। भारत में ‘गुरु-शिष्य परंपरा’ इसलिए जीवित रही क्योंकि यह केवल ज्ञान का अनुशासन नहीं, आत्मीयता का अनुशासन था। यह रिश्ता श्रद्धा से शुरू होकर स्वतंत्रता में समाप्त होता था। शिक्षक स्वतंत्र सोच की जड़ें रोपता था, गुलामी की नहीं।

विश्व शिक्षक दिवस के अवसर पर यह भी सोचना आवश्यक है कि क्या आज का शिक्षक स्वयं स्वतंत्र है? क्या वह अपने विचार, अपनी रचनात्मकता को अभिव्यक्त कर पा रहा है? अगर नहीं, तो शिक्षा का वास्तविक अर्थ ही खो जाएगा। शिक्षक की स्वतंत्रता, विद्यार्थी की जिज्ञासा का विस्तार है। जब शिक्षक को सोचने, प्रश्न करने, और आलोचना करने का अवसर मिलेगा तभी वह अपने विद्यार्थियों को भी यही साहस दे सकेगा।

समकालीन समय में शिक्षक के पास अब केवल ब्लैकबोर्ड नहीं बल्कि पूरा विश्व एक कक्षा की तरह है। इंटरनेट के माध्यम से वह हजारों मस्तिष्कों तक पहुँच सकता है परंतु इस पहुँच में जो सबसे बड़ा जोखिम है, वह है ‘संबंध का अभाव’। डिजिटल शिक्षा ने निकटता छीन ली है। इसलिए आज शिक्षक को केवल ‘ऑनलाइन टीचर’ नहीं, ‘ऑनलाइफ गाइड’ बनना होगा—जो तकनीक के भीतर भी मानवीय स्पर्श बनाए रखे।

शिक्षक का असली पुरस्कार तब नहीं मिलता जब उसे मंच पर बुलाकर सम्मानित किया जाता है बल्कि तब जब किसी पुरानी किताब के पन्ने से उसकी आवाज़ गूँज उठती है। जब किसी छात्र की सोच में उसका विचार जीवित रहता है, तब वह अमर हो जाता है। शिक्षक कभी समाप्त नहीं होता—वह अपने विद्यार्थियों में वितरित होकर जीवित रहता है।

विश्व शिक्षक दिवस हमें यह भी सिखाता है कि शिक्षक समाज का दर्पण नहीं, उसका दीपक है। वह दिखाता नहीं, प्रकाशित करता है। वह यह भी याद दिलाता है कि शिक्षा का उद्देश्य केवल सफल व्यक्ति बनाना नहीं, सजग आत्मा बनाना है। वह हर विद्यार्थी में यह विश्वास जगाता है कि ज्ञान का सबसे ऊँचा शिखर विनम्रता है।

जब दुनिया के कोलाहल में हम अपनी दिशा खो देते हैं, तब शिक्षक ही वह व्यक्ति है जो हमें हमारी पहचान की ओर लौटाता है। वह हमें याद दिलाता है कि सीखना एक जीवन-प्रक्रिया है—जो हर अनुभव, हर प्रश्न, हर असफलता में जारी रहती है। विश्व शिक्षक दिवस उसी निरंतरता का उत्सव है—जहाँ शिक्षक केवल व्यक्ति नहीं, एक परंपरा, एक विचार और एक अमर ज्योति है जो हर युग में किसी न किसी रूप में जलती रहती है—अंधकार से संवाद करती हुई पर कभी अंधकार में विलीन नहीं होती।


Discover more from समता मार्ग

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Comment