— सुशोभित —
बहुत वर्षों से यह आरोप लगाया जा रहा है। समय आ गया है कि इस आक्षेप की भी हम तथ्यपूर्ण और मननशील पड़ताल कर लें। गांधी किसी सल्तनत के शहंशाह नहीं थे, जो किसी को अपना उत्तराधिकारी बनाते या उसे अपनी गद्दी सौंपकर जाते। गांधी के पास तो कोई गद्दी तक नहीं थी। वे स्वतंत्र भारत में किसी प्रशासनिक या संवैधानिक पद पर नहीं रहे। कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष भी वे केवल एक ही बार रहे, वह भी वर्ष 1924 में एक वर्ष के लिए।
यह सच है कि गांधी ने नेहरू को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था। लेकिन यह घटना वर्ष 1942 में तब घटी थी, जब नेहरू के प्रधानमंत्रित्व का कोई प्रसंग दूर-दूर तक नहीं था। उस घटना का संदर्भ भी यह है कि गांधी-नेहरू मतभेद बहुत बढ़ गए थे और अफ़वाहों का ज़ोर था। उस परिप्रेक्ष्य में परिदृश्य को स्पष्ट करते हुए गांधी जी ने यह बात कही थी :
“किसी ने कहा कि पण्डित जवाहरलाल और मैं विलग हो गए हैं। यह आधारहीन है। आप लाठी से वार करके पानी को बाँट नहीं सकते। हमें भी विलग करना उतना ही मुश्किल है। राजाजी नहीं, सरदार पटेल नहीं, जवाहरलाल ही मेरे उत्तराधिकारी होंगे। जब मैं चला जाऊँगा तो वे वही करेंगे, जो मैं अभी कर रहा हूँ। तब वे मेरी ही भाषा बोलेंगे।”
गांधीवादी चिन्तक नन्दकिशोर आचार्य ने इस पर टिप्पणी की है कि यह किसी पद या प्रतिष्ठा का नहीं, भारतीय समाज के प्रति कर्त्तव्यों का उत्तराधिकार था!
1946 में नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष होने की हैसियत से अन्तरिम सरकार बनाने का निमंत्रण मिला था। स्वयं कांग्रेस कार्यसमिति ने उन्हें अन्तरिम सरकार बनाने का निमंत्रण स्वीकार करने का निर्देश दिया था। ये सच है कि कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में सरदार पटेल को 15 में से 12 वोट मिले थे, लेकिन वो कांग्रेस पार्टी का अंदरूनी मामला था। जनता में तो उस समय देश के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता गांधी के बाद नेहरू ही थे और बाद में लगातार तीन आम चुनावों को बहुमत से जीतकर नेहरू ने इसे प्रमाणित किया।
इसमें संदेह नहीं कि भारत के पहले प्रधानमंत्री के रूप में गांधी की स्पष्ट पसंद नेहरू ही थे। इसके कारणों को समझना भी कठिन नहीं। गांधी का मानना था- और ठीक ही मानना था- कि नेहरू के पास एक व्यापक और आधुनिक विश्व-दृष्टि है, वे धर्मनिरपेक्ष हैं, प्रखर हैं, नैतिक और सत्यनिष्ठ हैं। उनकी तुलना में सरदार पटेल एक कुशल प्रशासक और सधे हुए निर्णयकर्ता थे। वे गृह मंत्री की भूमिका के लिए सर्वथा उपयुक्त थे। प्रधानमंत्री के रूप में तो नेहरू ही जँचते थे। गांधी जी ने सरदार पटेल को अपनी भावना से अवगत कराया था और सरदार ने इस पर अपनी सहमति देते हुए स्वयं ही नेहरू के प्रधानमंत्री बनने का पथ प्रशस्त कर दिया था।
रोचक बात यह है कि नेहरू अनेक विषयों पर गांधी के मुखर-विरोधी थे, इसके बावजूद गांधी ने नेहरू को पसन्द किया। यहाँ सवाल व्यक्तिगत पसन्द-नापसन्द का कम और देश के लिए उस समय की परिस्थितियों में कौन श्रेयस्कर होगा, इसका अधिक था। भारत-विभाजन के बाद हमें जैसा ज़ख़्मी, खण्डित राष्ट्र मिला था, उसमें केन्द्र में एक निष्पक्ष और व्यापक दृष्टिकोण वाले विज़नरी शासक की प्रतिष्ठा वांछनीय थी।
समाजवादी चिन्तक प्रेमकुमार मणि ने गांधी द्वारा नेहरू के चयन की वैधता को बहुत सूक्ष्म दृष्टि से समझा है। वे कहते हैं : “लोगों को समझने में कठिनाई होती है कि जिन जवाहरलाल ने अनेक स्थलों पर गांधी के विचारों की खुली आलोचना की है, वह गांधी विचार-परम्परा के वाहक कैसे हो सकते थे? लेकिन ऐसे लोग परम्परा और परिपाटी के अंतर को नहीं समझते। वे नहीं जानते कि वेदान्त (वेदों का अंत) ही वैदिक परम्परा का विकास है। पुत्र और शिष्य अपने पिता और गुरु का विकास हैं। अच्छा पुत्र और शिष्य पिता और गुरु की मान्यताओं को माथे पर ढोने वाला नहीं, उनका परिमार्जन करने वाला होता है। न्यूटन का विकास आइंस्टाइन होंगे, जो उनकी कुछ मान्यताओं को ख़ारिज भी करते हैं। विकास हमेशा नवीनता यानी प्रणवता की ओर होता है। पीछे की दिशा में विकास प्रेत-विकास होगा।”
नेहरू ने गांधी की कुछ मान्यताओं को अपनाया तो कुछ को ख़ारिज किया। गांधी के बाद के भारत को उन्होंने अपने साँचे में ढालकर नेहरू का भारत बनाया। गांधी से उन्होंने एक धर्मनिरपेक्ष और बहुलतावादी राष्ट्र के निर्माण का पाठ सीखा, लेकिन गांधी के ग्राम-स्वराज्य को नहीं स्वीकारा और औद्योगिक विकास की ओर बढ़े। धर्म के बजाय उन्होंने अपने शासन में विज्ञान को प्रतिष्ठा दी। हालाँकि उनकी गुटनिरपेक्ष-नीति में गांधीवादी-विवेक झलकता था। उनकी समाजवादी नीतियाँ गांधीवादी अर्थनीति से बहुत दूर नहीं छिटक आई थीं। इसके बावजूद नवम्बर, 1963 में लोकसभा में बोलते हुए पण्डित नेहरू ने स्वीकार किया था कि गांधी जी के रास्ते को छोड़ना एक भूल थी।
आज सोचने पर लगता है गांधी का चयन कितना सही था। भारत जैसे मिथकवादी, पूजा-पाठी, अंधविश्वासों में बह जाने वाले देश के लिए यह आवश्यक और अपेक्षित है कि केन्द्र में ऐसा सत्ताधीश बैठा हो, जो धर्मों के प्रति एक उदासीन दृष्टि रखता हो, जो सेकुलर हो और जो समाज में वैज्ञानिक-चेतना और विश्व-नागरिकता की भावना के प्रसार को महत्त्व देता हो। अगर भारत जैसे देश का नेता ही पूजा-पाठ करने वाला हो जाए तो फिर देशवासियों को धर्मोन्मादी होकर डगमगाने से कोई नहीं रोक सकता- जो कि अब हो रहा है। प्रधानमंत्री का काम नीतियाँ और क़ानून बनाना है, प्रशासन को सुचारु बनाना है, नियमों को लागू करना है और शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार के मोर्चे पर देश को नेतृत्व देना है। धर्म निजी मामला है। अगर कोई प्रधानमंत्री धार्मिक आडम्बर का सार्वजनिक प्रदर्शन करके अपनी सत्ता की वैधता को क़ायम रखने का प्रयास करता है, तो यह लोकतांत्रिक चेतना का अपहरण है!
पहले नहीं लगता था, लेकिन आज सोचने पर बार-बार महसूस होता है कि भारत के नेतृत्व की बागडोर नेहरू के हाथों में सौंपने की इच्छा जताना गांधी की कितनी प्रखर दूरदृष्टि थी!
गांधी और नेहरू के इस युगपत् पर बात करते हुए मुझे रिचर्ड एटेनबरो की फ़िल्म ‘गांधी’ का वह सरल-सा दृश्य याद हो आता है, जिसमें असहयोग आंदोलन के बाद बंदी बनाए गए गांधी जी से जेल में मिलने नेहरू जी आते हैं और उन्हें देश में हो रही गतिविधियों का संवाद सुनाते हैं। वे दोनों एक मेज़ पर पास-पास बैठे होते हैं और गम्भीर मुद्रा में फुसफुसाते हुए बतियाते हैं। लैपटॉप पर फ़िल्म देखते समय मैंने वह दृश्य वहीं रोक दिया और टकटकी लगाकर इन दोनों की युगल-मूर्ति को देर तक निहारता रहा। मुझे लगा मैं परिवार के किसी पुराने एलबम में अपने पुरखों की तस्वीर देख रहा हूँ, जो बरसों पहले चल बसे थे। हठात् मेरा गला रूँध गया!
सहसा, आनंद कुमारस्वामी का एक वाक्य मेरे मन में कौंधा- “ग्राम और नगर- जैसे किसी शिल्पकृति में वस्तु और रूप!”
उनका गौरव भारत का गौरव बन गया। उनकी अपकीर्ति भारत की अपकीर्ति बन गई। उनकी नियति से भारत की नियति जुड़ गई। साम्प्रदायिक ताक़तें चाहे जितना झुठलाएँ, चाहे जितना दुष्प्रचार करें, लेकिन आधुनिक भारत-नियति के ये दो अनिवार्य नक्षत्र हैं-
गांधी और नेहरू!
वस्तु और रूप!!
चरखा और गुलाब!!!
यानी, भारत का अद्वैत!
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