— परिचय दास —
।। एक ।।
वाल्मीकि का साहित्य भारतीय सांस्कृतिक, धार्मिक और साहित्यिक परंपरा का मूल स्तंभ है। उनका सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ रामायण न केवल एक धार्मिक महाकाव्य है, बल्कि भारतीय जीवन मूल्यों, नैतिकता, धर्म और आदर्शों का आदर्श प्रतिरूप भी है। आज के युग में जब समाज भौतिकता और त्वरित लाभ के पीछे दौड़ रहा है, तब वाल्मीकि के साहित्य की प्रासंगिकता और अधिक बढ़ जाती है। उनके ग्रंथों में जो जीवन के आदर्श, कर्तव्य की भावना, और सत्य की रक्षा के लिए संघर्ष की प्रेरणा मिलती है, वह आज के व्यक्ति को आत्ममंथन करने पर विवश करती है।
वर्तमान समय में रामायण को केवल एक धार्मिक ग्रंथ मानना इसकी सीमाओं को संकुचित करना है। आज की दृष्टि से वाल्मीकि का साहित्य सामाजिक संदर्भों में भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। इसमें राजा और प्रजा के संबंध, स्त्री की स्थिति, धर्म और राजनीति का संतुलन, तथा पारिवारिक मूल्यों का गहन चित्रण है। राम के चरित्र में जहाँ मर्यादा पुरुषोत्तम की छवि है, वहीं सीता के माध्यम से नारी शक्ति, सहनशीलता और गरिमा का उद्घाटन होता है। लक्ष्मण, भरत और हनुमान जैसे पात्रों के माध्यम से सेवा, त्याग और भक्ति का संदेश मिलता है।
आज जब समाज में नैतिक मूल्यों का क्षरण हो रहा है, तब वाल्मीकि का साहित्य एक प्रकाश स्तंभ की भांति मार्गदर्शन करता है। उनका काव्य न केवल भाषा और शैली की दृष्टि से उत्कृष्ट है, बल्कि उसमें जो भावनात्मक गहराई और सांस्कृतिक चेतना है, वह आज के युवाओं को भी आकर्षित करती है। तकनीकी युग में जहाँ ध्यान और चिंतन की प्रक्रिया कमजोर हो रही है, वहाँ रामायण जैसे ग्रंथों का अध्ययन मानसिक संतुलन और आत्मिक शांति प्रदान करता है।
आज की दृष्टि से देखा जाए तो वाल्मीकि का साहित्य केवल एक ऐतिहासिक या पौराणिक दस्तावेज नहीं है, बल्कि एक जीवंत विचारधारा है, जो हर युग में नई व्याख्या, नए संदर्भ और नई प्रेरणा देती है। यह साहित्य व्यक्ति को अपने कर्तव्यों, संबंधों और आत्म-ज्ञान की ओर उन्मुख करता है। समसामयिक समस्याओं जैसे कि नारी सशक्तिकरण, पर्यावरण संरक्षण, सामाजिक समरसता आदि विषयों पर भी रामायण की शिक्षाएँ अप्रत्यक्ष रूप से प्रकाश डालती हैं।
इस प्रकार, वाल्मीकि का साहित्य आज भी उतना ही प्रासंगिक और जीवंत है जितना कि हजारों वर्ष पूर्व था। यह केवल अतीत की धरोहर नहीं, बल्कि वर्तमान और भविष्य की दिशा तय करने वाली सांस्कृतिक विरासत है, जो मानवता को धर्म, प्रेम और मर्यादा के पथ पर अग्रसर करती है।
।। दो ।।
वाल्मीकि का नाम लेते ही चेतना के भीतर एक व्यापक स्पंदन जन्म लेता है—एक ऐसा स्पंदन जो साहित्य, संस्कृति, और सभ्यता की जड़ों तक जाकर अपने अर्थ खोलता है। रामायण को केवल धर्मग्रंथ मानना उतना ही सीमित दृष्टिकोण है जितना आकाश को खिड़की से देखना। समकालीन आलोचना की आँख जब वाल्मीकि-साहित्य की ओर उठती है, तो वह न तो श्रद्धा की आँख होती है, न ही खंडन की; वह जिज्ञासा और विवेक की आँख होती है—जिसमें परंपरा को समझने की उत्कंठा होती है और वर्तमान से उसकी मुठभेड़ की तैयारी भी।
रामायण एक कथा है, लेकिन केवल कथा नहीं है। यह काव्य है, लेकिन केवल काव्य नहीं है। यह राजनीति का दर्पण है, सामाजिक संरचना का आलेख है, और मानव मनोविज्ञान का महाकाव्यात्मक विश्लेषण भी। जब हम समकालीन दृष्टिकोण से इस महाग्रंथ को पढ़ते हैं, तो सबसे पहले यह स्पष्ट होता है कि वाल्मीकि केवल रचयिता नहीं हैं—वे प्रश्नकर्ता हैं, साक्षी हैं, और एक गूढ़ आलोचक भी। उनका राम आदर्श है, परंतु वह चुनौतीहीन नहीं है। सीता केवल पत्नी नहीं, एक व्यक्तित्व है, जिसकी अग्निपरीक्षा आज भी भारतीय नारी चेतना में अनुगूंजती है।
यह ध्यान देने योग्य है कि वाल्मीकि ने कोई रूढ़िवादी आख्यान नहीं रचा। उन्होंने जो कहा, वह सत्ता की भाषा नहीं थी, बल्कि एक कवि-द्रष्टा की दृष्टि थी। राम जब शम्बूक का वध करते हैं, तब आलोचक का मन सिहर उठता है। यह कौन-सा धर्म है जो वर्णाश्रमी समाज की रक्षा में एक शूद्र की तपस्या से भयभीत हो उठता है? क्या वाल्मीकि इस प्रसंग को राम के महात्म्य की पुष्टि के लिए रखते हैं, या यह दरअसल एक गंभीर व्यंग्य है उस व्यवस्था पर, जो भयभीत है—एक साधक से, एक ‘नीच’ तपस्वी से?
समकालीन आलोचना के लिए यह आवश्यक है कि वह ग्रंथ को श्रद्धा और अविश्वास—दोनों से परे जाकर देखे। यहाँ राम एक ‘आइकन’ नहीं, एक मनुष्य हैं, जिन्हें संघर्ष करना है अपने कर्तव्यों के जटिल जाल में। जिनके निर्णय न्याय की कसौटी पर हमेशा खरे नहीं उतरते, और यहीं से प्रारंभ होता है पाठक और पाठ के बीच संवाद। यह संवाद ही साहित्यिक आधुनिकता की आत्मा है।
वर्तमान समय में जब विचारधाराएँ ध्रुवीकरण की ओर बढ़ रही हैं, तब रामायण एक सामूहिक आत्मा के परीक्षण की भूमि बन जाती है। वाल्मीकि का सौंदर्यशास्त्र केवल भाषा की कोमलता में नहीं, उनकी दृष्टि की निर्ममता में भी है। वे कोई भावुक संत नहीं हैं; वे जीवन को जैसे है, वैसे स्वीकारते हैं—सभी विडंबनाओं, अन्यायों और महिमा के साथ।
सीता का वनगमन हो या राम का राज्याभिषेक, वाल्मीकि की दृष्टि दोनों में किसी मोह से ग्रस्त नहीं होती। वे किसी भी चरित्र को पूर्ण नहीं कहते—न सीता को देवी बनाते हैं, न रावण को राक्षस मात्र रहने देते हैं। यह ग्रंथ इसलिए महत्वपूर्ण नहीं कि वह नैतिकता की शिक्षा देता है, बल्कि इसलिए कि वह नैतिकता की परीक्षा लेता है। आज जब साहित्य में नैतिक आग्रहों के विरुद्ध नई प्रश्नाकुलता जन्म ले रही है, तब रामायण एक नव-पाठ की माँग करता है।
वाल्मीकि के काव्य में जो लय है, वह केवल छंदों में नहीं, चिंतन में भी है। उनका काव्य दृश्य नहीं, दृष्टि है। यह दृष्टि आधुनिक पाठक से आग्रह करती है कि वह अपने समय की जटिलताओं को समझने के लिए परंपरा को केवल पीठ पीछे नहीं देखे, आँखों में भी देखे।
क्या रामायण आज का पाठ्य है? क्या वाल्मीकि की पीड़ा, उनके प्रश्न, और उनका वैचारिक संघर्ष आज भी हमारे लिए प्रासंगिक हैं? उत्तर न तो पूरी तरह ‘हाँ’ है, न पूरी तरह ‘न’। उत्तर है: यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम उसे कैसे पढ़ते हैं—क्या हम उसे स्मारक की तरह पूजते हैं, या जीवित संवाद की तरह उससे सवाल करते हैं?
समकालीन आलोचना की कसौटी पर वाल्मीकि का साहित्य न केवल खरा उतरता है, बल्कि यह हमें स्वयं अपनी कसौटी भी बदलने को विवश करता है। यह साहित्य हमें भीतर तक झकझोरता है, क्योंकि यह केवल आदर्श नहीं गढ़ता, बल्कि आदर्शों की सीमाओं का संकेत भी देता है। यही वह काव्य है, जो शाश्वत नहीं, सतत है; जो अतीत से निकलकर भविष्य की ओर देखता है।
वाल्मीकि आज भी उतने ही ज़रूरी हैं, जितना कल थे—शायद उससे भी अधिक। क्योंकि अब हम केवल कथा नहीं पढ़ रहे, हम उस दृष्टि को पुनः गढ़ने की कोशिश कर रहे हैं, जिसे हमने कहीं श्रद्धा, कहीं राजनीति, और कहीं उपेक्षा की धूल में खो दिया था।
।। तीन ।।
वाल्मीकि के रामायण को समकालीन आलोचना की दृष्टि से पढ़ना एक दुस्तर यात्रा है—यह न केवल परंपरा से टकराने का साहस माँगती है, बल्कि उस पारदर्शिता की भी माँग करती है जिससे हम अपने सांस्कृतिक मानस का पुनर्पाठ कर सकें। यह पाठ केवल धार्मिक संदर्भों में सीमित नहीं है; यह एक गहरे मनोविश्लेषणात्मक, सामाजिक और राजनीतिक विमर्श की ज़मीन भी है।
आज जब साहित्यिक विमर्शों में वर्ग, जाति, लिंग और सत्ता के प्रश्न केंद्रीय हो चुके हैं, तब वाल्मीकि के रामायण में ये प्रश्न एक नई रोशनी में सामने आते हैं। वह रोशनी, जो आँखों को चौंधिया नहीं देती, बल्कि धीरे-धीरे हमें उन अंधेरों की ओर ले जाती है, जहाँ हमारी सामूहिक चुप्पियाँ दबी हुई हैं।
शम्बूक वध के प्रश्न पर लौटें। इसे केवल एक जातीय अन्याय की कथा कह देना आलोचना की सुविधा हो सकती है, पर क्या यह प्रश्न राम की न्यायप्रियता पर एक आत्मगत व्यंग्य नहीं है? क्या वाल्मीकि यह दिखाना नहीं चाहते कि एक आदर्श पुरुष भी सत्ता के दबाव में निर्णयों की सीमाओं से बँधा हो सकता है? यह द्वंद्वात्मकता ही रामायण को आधुनिक बनाती है—एक ऐसा ग्रंथ जो अपने नायकों की नैतिक संरचना को प्रश्नांकित करने से नहीं डरता।
इसी तरह सीता का चरित्र समकालीन नारीवादी आलोचना के लिए एक चुनौती है। वह स्त्री जिसे अग्निपरीक्षा देनी पड़ती है, जिसे लोकापवाद से बचाने के लिए वनवास भेजा जाता है—क्या वह केवल सहनशीलता का प्रतीक है? या वह एक सूक्ष्म प्रतिरोध की प्रतिमा है, जो अंततः राम के विराट आदर्श को ही प्रश्नों के कठघरे में खड़ा कर देती है? सीता का मौन, उसकी असहमति का एक सूक्ष्म भाष्य है, जो पुरुष-सत्ता के अहंकार के विरुद्ध उसके त्याग में निहित प्रतिरोध की भाषा बोलता है।
समकालीन आलोचना अब ऐसे मौन को अनसुना नहीं करती। वह इन चुप्पियों को टेक्स्ट का हिस्सा मानती है—वह जानती है कि जो नहीं कहा गया, वह भी साहित्य का उतना ही आवश्यक पाठ है जितना जो कहा गया। इसी दृष्टि से देखें तो रामायण एक बहुस्तरीय ग्रंथ है—उसकी सतह पर नैतिक आख्यान है, तो तहों में राजनीतिक निहितार्थ, और गहराई में एक व्यक्तिगत त्रासदी।
राम का वनगमन केवल पिता की आज्ञा का पालन नहीं, सत्ता के विकेंद्रीकरण की एक अनकही कथा भी है। भरत का राज्य त्याग केवल भ्रातृप्रेम नहीं, बल्कि सत्ता के प्रति एक उदासीन आलोचनात्मक चेतना है। लक्ष्मण की भक्ति केवल त्याग नहीं, आत्मविलोपन की एक विचारोत्तेजक प्रक्रिया है। और रावण? वह केवल राक्षस नहीं, वह सत्ता का वह चेहरा है जिसे पराजित किया जाना आवश्यक है—क्योंकि वह स्त्री को वस्तु समझता है, वह अपनी भूख को धर्म का नाम देता है।
समकालीन आलोचना आज उन आयामों की खोज में है जो ग्रंथों को पुनः अर्थवान बनाते हैं। यह पाठक से भावुक श्रद्धा नहीं, सघन बौद्धिकता की माँग करता है। वाल्मीकि का रामायण इस माँग को निराश नहीं करता। वह ऐसा काव्य है जो विचार की लय में बहता है, और जब उसमें उतरते हैं, तो शब्द नहीं, दृष्टियाँ मिलती हैं—प्रश्न, संशय और आत्मचिंतन की दृष्टियाँ।
आज की दुनिया में जहाँ ग्रंथों का पुनर्पाठ अक्सर राजनीतिक या धार्मिक आग्रहों से संचालित होता है, वहाँ वाल्मीकि का साहित्य हमें एक मध्यवर्ती स्थान देता है—जहाँ हम श्रद्धा और आलोचना के बीच एक सृजनात्मक पुल बना सकते हैं। यह पुल ही वह स्थान है जहाँ साहित्य जीवित रहता है, और वहीं आलोचना भी अपनी भूमिका निभाती है।
अतः यह कहा जा सकता है कि वाल्मीकि का साहित्य, विशेषतः रामायण, आज की समकालीन चेतना के लिए केवल सांस्कृतिक उत्तराधिकार नहीं, एक सक्रिय संवाद-स्थल है। यहाँ परंपरा और आधुनिकता एक-दूसरे से लड़ती नहीं, संवाद करती हैं—और शायद यही सबसे बड़ी सांस्कृतिक उपलब्धि है, जिसकी हमें आज सबसे अधिक आवश्यकता है।
।। चार ।।
हम जब समकालीन आलोचना की दृष्टि से वाल्मीकि का अध्ययन करते हैं, तो यह स्पष्ट होता है कि उनका साहित्य न तो बंद ग्रंथ है, न ही चुप कथा। रामायण एक ऐसा जीवित संवाद है, जो समय के हर दौर में नए अर्थ ग्रहण करता है और पाठक से एक सजग बौद्धिक सहभागिता की माँग करता है।
आज जब हम ज्ञान की तमाम शाखाओं—संविधान, स्त्रीवाद, दलित विमर्श, मनोविज्ञान, मीडिया—के साथ साहित्य को पढ़ते हैं, तब यह आवश्यक हो जाता है कि हम ‘राम’ को केवल देवता नहीं, एक ऐतिहासिक चेतना के रूप में देखें। यह चेतना है सत्ता, नीति, प्रेम, पीड़ा, और प्रतिरोध की। और यदि राम एक चेतना हैं, तो वाल्मीकि उसका सबसे सूक्ष्म शिल्पकार—जिन्होंने शब्दों से एक संस्कृति की आत्मा को रेखांकित किया, पर अंकित नहीं किया।
हम भूल जाते हैं कि वाल्मीकि स्वयं एक प्रश्न हैं—वे स्वयं रामायण के भीतर उपस्थित हैं, सीता के वनवास के बाद, जब वह लव-कुश को संस्कार दे रहे होते हैं। यह स्थिति कितनी बौद्धिक रूप से प्रेरक है: एक कवि, जो एक युग का आख्यान रच चुका है, अब उसी आख्यान की नैतिकता को अपनी शिक्षाओं के माध्यम से पुनर्परिभाषित कर रहा है। क्या यह साहित्य का आत्मालोचन नहीं? क्या यह स्वयं ग्रंथकार द्वारा रचित पाठ का री-रीडिंग नहीं है?
यही वह बिंदु है जहाँ समकालीन आलोचना अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है। वह कहती है—वाल्मीकि केवल रामायण नहीं लिखते, वे हमें पढ़ना सिखाते हैं। और यह पढ़ना, केवल अक्षरों का नहीं, संदर्भों का है, स्वरों का है, मौन का है।
समकालीन साहित्यिक विमर्शों में जब ‘सबाल्टर्न’ की चर्चा होती है—उनकी आवाजें, जो इतिहास की मुख्यधारा से बहिष्कृत रही हैं—तब रामायण में शम्बूक, सीता, अहिल्या, मंदोदरी जैसे चरित्र अपने मौन से बोलते हैं। ये आवाज़ें तब हमें सुनाई देती हैं, जब हम श्रद्धा की दीवार को आलोचना की खिड़की से पार करना सीखते हैं।
और यही खिड़की समकालीनता की माँग है—कि हम परंपरा को न तो अंध-श्रद्धा से देखें, न ही क्रोध से नष्ट करें। हमें उसे पढ़ना है, समझना है, और आवश्यक हो तो पुनर्लेखन भी करना है—not in protest, but in pursuit. pursuit of truth, of humanity, of that critical ethos which gives literature its living edge.
आज का समाज अस्मिताओं में बँटा हुआ है, भाषाएँ उग्र हैं, विमर्श अक्सर संवाद-विहीन। ऐसे समय में वाल्मीकि का काव्य हमें संवाद की वह संस्कृति देता है, जिसमें विरोध भी सौंदर्य के साथ आता है। जहाँ रावण जैसा विरोधी भी ‘महापंडित’ कहलाता है, और जहाँ राम अपने आदर्श की कीमत पर भी मौन रहते हैं—क्योंकि उनके भीतर धर्म और करुणा का टकराव है।
वाल्मीकि का साहित्य इसीलिए कालजयी है कि वह ‘निर्णय’ नहीं देता, ‘संघर्ष’ दिखाता है। और यही संघर्ष साहित्य को प्रासंगिक बनाता है। आज जब हम साहित्य को ‘यूज़ एंड थ्रो’ संस्कृति में खपा देने की जल्दबाज़ी में हैं, तब वाल्मीकि हमें पाठ की स्थायित्वशीलता की याद दिलाते हैं—कि कुछ ग्रंथ बार-बार नहीं, लगातार पढ़े जाने चाहिए।
अतः समकालीन आलोचना के लिए रामायण केवल मूल्यांकन का विषय नहीं, साझेदारी का क्षेत्र है। यह वह ग्रंथ है जिसमें परंपरा आलोचना से डरती नहीं, बल्कि उसे आमंत्रित करती है। और वाल्मीकि वह कवि हैं जिन्होंने अपने समय की सत्ता, नैतिकता, और सामाजिक संरचना को इतनी तीव्र दृष्टि से देखा कि उनकी दृष्टि आज भी हमारे समय को देखने का माध्यम बन सकती है।
यह दृष्टि ही उनकी सबसे बड़ी कविता है।
।। पांच ।।
समकालीन आलोचना का उत्तरदायित्व केवल यह नहीं कि वह अतीत को वर्तमान के कटघरे में खड़ा करे, बल्कि यह भी है कि वह परंपरा से वह ऊर्जा खोजे जो वर्तमान को गढ़ने में सक्षम हो। इस दृष्टि से देखें तो वाल्मीकि का रामायण केवल ‘बीते हुए भारत’ का आख्यान नहीं, ‘बनते हुए भारत’ की वैचारिक प्रयोगशाला भी है।
आज जब समाज बहुस्तरीय संकटों से जूझ रहा है—राजनीतिक विघटन, सांस्कृतिक उग्रता, स्त्री-दमन, सामाजिक विषमता और भाषाई असहिष्णुता—तब रामायण की ओर लौटना एक नैतिक वापसी नहीं, एक बौद्धिक अनिवार्यता है। लेकिन यह वापसी श्रद्धा के नर्म तकिए पर नहीं हो सकती; इसके लिए विचार की कठिन चट्टानों पर चढ़ना होगा।
वाल्मीकि का साहित्य हमें सरल उत्तर नहीं देता, वह हमें प्रश्न देता है—और यही उसकी सबसे बड़ी देन है। एक ऐसा समय जब लोग ग्रंथों से ‘तथ्य’ खोजते हैं, ‘सबूत’ माँगते हैं, वहाँ रामायण हमें ‘अर्थ’ से जोड़ता है, ‘संवाद’ से जोड़ता है। यह हमें सिखाता है कि जीवन रेखाओं से नहीं, परतों से बना होता है—और उन परतों में हर चरित्र, हर निर्णय, हर संवाद एक नई परछाईं डालता है।
राम का आदर्श तभी सार्थक है जब वह सीता के मौन को सुन सके। सीता की गरिमा तभी पूरी होती है जब वह रावण के आतंक और राम के निर्णय—दोनों के बीच अपनी अस्मिता की लौ जलाए रखे। लक्ष्मण का त्याग तभी पूर्ण है जब वह जानकी के क्रंदन को ‘कर्तव्य’ के शब्दजाल से मुक्त देखे। और रावण का वध तभी अर्थपूर्ण है जब हम उसमें सत्ता की वह प्रवृत्ति देखें जो स्त्री की स्वतंत्रता को अपने अहंकार की चुनौती समझती है।
समकालीन आलोचना की यही माँग है—contextual reinterpretation। वाल्मीकि का रामायण इसकी भूमि प्रदान करता है। यह ग्रंथ केवल “क्या हुआ था” नहीं पूछता, यह “क्यों हुआ था” और “अब हम क्या करें” की ओर इशारा करता है।
हमारा समय उत्तर-आधुनिक है, लेकिन उत्तरदायी नहीं। वाल्मीकि हमें उत्तर देने की नहीं, उत्तरदायी बनने की चेतना देते हैं। उनका साहित्य हमारे भीतर की थकान को विचार की रोशनी में बदलता है। यह रोशनी स्थायी नहीं, लेकिन निरंतर है—जैसे नदी का प्रवाह, जैसे काव्य का श्वास।
और इसीलिए, वाल्मीकि केवल आदिकवि नहीं हैं—वे आदिचिंतक हैं, जिन्होंने भाषा को शस्त्र नहीं, दर्पण बनाया। एक ऐसा दर्पण, जिसमें अतीत भी दिखता है और हमारा चेहरा भी।
आज जब हम वाल्मीकि के रामायण को पुनर्पाठ की प्रक्रिया में शामिल करते हैं, तो हम न केवल ग्रंथ को, बल्कि स्वयं को भी फिर से लिखने की प्रक्रिया में होते हैं। यह आत्मलेखन ही वह नवचेतना है, जो समकालीन आलोचना की सच्ची उपलब्धि है।
यह नवचेतना ही साहित्य की वह ज़मीन है जहाँ परंपरा और आधुनिकता एक-दूसरे को ख़ारिज नहीं, पहचानते हैं। और जहाँ वाल्मीकि आज भी हमें पढ़ते हैं, ठीक उसी क्षण जब हम उन्हें पढ़ते हैं।
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