अयोध्या का समकाल : राम, राग और मौन – भक्ति की ललित कविता

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Parichay Das

— परिचय दास —

।। एक ।।

योध्या में दक्षिण के संतों की आज संगीतमयी स्मृति एक ऐसा सांस्कृतिक क्षण है, जहाँ गंगा और कावेरी एक ही स्वर में गूँजती हैं। उत्तर की भक्ति और दक्षिण की साधना जब एक सुर में मिलती है तो वह केवल संगीत नहीं रहती—वह साक्षात् आत्मा का उत्सव बन जाती है। राम के नगर में जब वीणा की तानें उठती हैं और मृदंग की लय में दक्षिण का सूर बजता है, तब लगता है जैसे युगों का संवाद पुनः जीवित हो गया है। यह केवल एक संगीतमयी प्रस्तुति नहीं बल्कि एक अदृश्य सेतु है जो भक्ति, भाषा और लोक के बीच झिलमिलाता है।

श्री पुरंदर दास की स्मृति अयोध्या में मानो स्वयं तुलसी की चौपाइयों में घुल गई हो। वे दक्षिण के भक्ति आंदोलन के जनक कहे जाते हैं। उनके पदों में जिस सहजता से कृष्ण के प्रति अनुराग झरता है, वही स्वर आज यहाँ राम के रूप में गूँज रहा है। पुरंदर दास का भजन संसार की मोह-माया को विदीर्ण करता है—“पुरंदर विट्ठला, देवा बारो” की गूँज में जैसे उत्तर का “राम नाम सत्य है” समाहित हो जाता है। भक्ति की यह एक ऐसी भूमि है जहाँ भाषा नही केवल अनुभूति बोलती है। अयोध्या में उनका स्मरण किसी उत्सव की तरह नहीं, एक साधना की तरह हो रहा है। दक्षिण की भक्ति यहाँ उत्तर के श्वास में मिल रही है।

फिर आते हैं श्री त्यागराज—वे जिन्होंने संगीत को ईश्वर से संवाद का माध्यम बनाया। उनकी रचनाएँ केवल कृतियाँ नहीं हैं, वे प्रार्थना के स्वर हैं, जो आत्मा के किसी गुप्त कक्ष में जाकर गूँजते हैं। जब अयोध्या में उनका “एंदरो महानुभावुलु” गाया गया, तब लगा जैसे राम स्वयं उस स्वर को सुनने उतर आए हों। त्यागराज ने अपने राम को संगीत में ढाला, और संगीत को राम में। वे किसी शास्त्रीय मर्यादा के भीतर नहीं बँधते—उनका कर्नाटक संगीत भक्ति की उस लय में बहता है जहाँ तानपरा और हृदय एक साथ स्पंदित होते हैं। अयोध्या की रात में वह स्वर जब उठा, तो लगा जैसे सरयू का जल धीमे-धीमे ताल में झूम रहा हो।

श्री अरुणाचल कवि की उपस्थिति इस संगीतमयी स्मृति को एक और आयाम देती है। वे संत कवि ही नहीं, आत्मचेतना के रागिनीकार हैं। उनके पदों में दक्षिण की तपस्या और उत्तर की करुणा का अद्भुत संयोग है। उन्होंने कहा था कि संगीत केवल सुनने की वस्तु नहीं, जीने का तरीका है। अयोध्या में जब उनके भजनों की ध्वनि उठी, तो लगा कि वह केवल स्वर नहीं, तप की अग्नि से उठता हुआ उजास है। अरुणाचल की शांत चोटी और राम की नगरी—दोनों में एक ही तत्व व्याप्त है: मौन में ईश्वर की गूँज।

इस आयोजन में जब वीणा, मृदंग और स्वर एक साथ उठे, तो समय ठहर-सा गया। अयोध्या के मंदिरों से उठती घंटियों की लय जैसे कर्नाटक संगीत के आलाप में मिल गई। दक्षिण की भाषा के शब्द जब उत्तर की हवाओं में घुले, तो लगा कि भारत अपनी आत्मा को फिर से पहचान रहा है। यह केवल संगीत का संगम नहीं, दो दिशाओं की चेतना का मिलन था—जहाँ उत्तर की कथा दक्षिण के राग में बोली जाने लगी।

भक्ति के इन संतों ने यह दिखाया कि ईश्वर को पाने का मार्ग न तो केवल वेदों में है, न केवल मंदिरों में। वह मार्ग गूँजता है उस स्वर में जो हृदय से उठता है। पुरंदर दास का भजन, त्यागराज की कृति, अरुणाचल कवि का पद—तीनों एक ही राग हैं, जो मनुष्य को उसकी सीमाओं से मुक्त कर देता है। अयोध्या में उनकी स्मृति का यह संगीतमयी क्षण एक राष्ट्र की आत्मा का पुनर्स्मरण है—जहाँ राम केवल एक देवता नहीं, बल्कि एक स्वर हैं, जो युगों से दक्षिण की वीणा और उत्तर की वीणा दोनों पर बजता आया है।

आज जब सायं हो रहा होगी और अयोध्या की गलियों में दीपक जलने वाले होंगे, इस आयोजन की तान हवा में तैर रही होगी। जैसे कोई अदृश्य स्वर कह रहा हो—भक्ति एक है, भाषा अनेक। पुरंदर दास, त्यागराज और अरुणाचल कवि केवल दक्षिण के संत नहीं रहे, वे आज भारत के हृदय में रचे हुए संगीत बन गए हैं। उनके सुरों में राम की वाणी है, उनकी वीणा में कावेरी और सरयू दोनों की धार है। अयोध्या की यह रात अब केवल एक नगर की नहीं रही—यह उस शाश्वत भारत की रात है जहाँ स्वर ही प्रार्थना है, और भक्ति ही संगीत।

।। दो ।।

अयोध्या में दक्षिण के संतों की यह संगीतमयी स्मृति केवल एक सांस्कृतिक आयोजन नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक पुनर्स्मरण है। यह वह क्षण है जब दक्षिण की तपस्या और उत्तर की श्रद्धा एकाकार हो जाती है। मंदिरों की दीपशिखाएँ, सरयू की लहरें और हवा में घुला संगीत — सब मिलकर जैसे एक अखंड अनुष्ठान रचते हैं। उस क्षण में उपस्थित जनसमूह किसी सभा का हिस्सा नहीं रह जाता; वह एक सामूहिक साधना में डूब जाता है, जहाँ हर हृदय एक वीणा बन जाता है।

श्री पुरंदर दास की छवि उस वातावरण में मानो आकाश से उतरकर भूमि पर आ गई थी। उनका संगीत केवल सुरों का अनुशासन नहीं था, वह जीवन का अनुष्ठान था। उन्होंने हर जनभाषा, हर वर्ग के लिए ईश्वर तक पहुँचने का सरल मार्ग बनाया। उनकी भक्ति में करुणा थी, पर करुणा के भीतर दृढ़ता भी। अयोध्या में जब किसी कलाकार ने उनका भजन “गोविंद बोलो हरि गोविंद बोलो” गाया, तो लगा कि वह आवाज़ केवल माइक से नहीं, किसी गहरे लोकस्मृति से उठ रही है। वहाँ मौजूद श्रोता शायद भाषा न समझ पा रहे हों, पर भाव सबने समझा—भक्ति किसी अनुवाद की मोहताज नहीं होती।

त्यागराज की संगीतमयी उपस्थिति तो अयोध्या के लिए मानो राम-नाम की पुनः प्रतिष्ठा थी। वे जीवनभर अपने राम को पुकारते रहे, जैसे कोई बच्चा अपनी माँ को पुकारता है। उन्होंने संगीत में जो अनंत समर्पण दिया, वह अब भी हर राग में, हर ताल में सांस लेता है। उनके भजनों का स्वर जब अयोध्या की गलियों में गूँजा, तो लगा कि रामलला स्वयं मुस्करा उठे हों। दक्षिण के इस महान संत ने अपने रागों के माध्यम से भक्ति को लोक से जोड़ा। उन्होंने दिखाया कि संगीत केवल कला नहीं, आत्मा का मार्ग है। जब उनके “जगदानंद कारक” की तान उठी, तो लगा कि सरयू के तट पर प्राचीन ऋषियों का जप पुनर्जीवित हो उठा है।

और फिर, श्री अरुणाचल कवि — जिन्होंने शब्दों को साधना में बदल दिया। वे केवल कवि नहीं, ध्वनि और मौन के बीच के संतुलन के ज्ञाता थे। उनका विश्वास था कि ईश्वर मौन में अधिक प्रकट होता है, पर उस मौन तक पहुँचने का मार्ग संगीत है। जब उनके रचित भजन “अरुणाचल शिव शरणम्” की ध्वनि गूँजी, तो लगा जैसे अयोध्या की हवा में दक्षिण की पहाड़ियों की सुगंध घुल गई हो। उनके शब्दों ने यह अनुभूति दी कि दक्षिण के संतों की चेतना केवल एक भौगोलिक सीमा में नहीं बंधी, वह भारतीय आत्मा के हर कोने में जीवित है।

यह संगम केवल संगीत का नहीं, संस्कारों का था। उत्तर का राग संयमित, स्थिर, कथा-प्रधान; दक्षिण का राग विस्तृत, तपोमयी, भाव की गहराई में उतरता हुआ। दोनों ने मिलकर एक ऐसा स्वर रचा जिसमें राम और कृष्ण, भक्ति और ज्ञान, प्रेम और विरक्ति सब एकाकार हो गए। उस दिन अयोध्या ने यह अनुभव किया कि राम केवल उत्तर के नहीं, पूरे भारत के हैं — दक्षिण के संतों की आत्मा में भी वे उतने ही गहरे हैं जितने तुलसी या कबीर के पदों में।

रात के अंतिम प्रहर में जब सब स्वर धीरे-धीरे शांत हुए, तब केवल घंटियों की ध्वनि रह गई—एक ऐसी ध्वनि जो शून्य में भी अर्थ रचती है। उस शांति में लगा जैसे पुरंदर दास की वीणा, त्यागराज का तानपरा और अरुणाचल कवि की कलम एक साथ मौन हो गए हों, पर वह मौन भी बोलता रहा। वह कहता रहा कि भारत की भक्ति केवल मंदिरों या शास्त्रों में नहीं, संगीत और कविता में भी सांस लेती है।

अयोध्या की इस संगीतमयी स्मृति में दक्षिण के संतों ने पुनः यह सत्य उपस्थित कर दिया कि भक्ति की दिशा नहीं होती, उसका केवल भाव होता है। चाहे वह तिरुपति के धाम से उठे या सरयू के घाट से, अंततः वह उसी
दिव्यता में विलीन होती है जहाँ स्वर और मौन एक हो जाते हैं। इस रात्रि में, इस संगीत में, इस स्मृति में — भारत का आत्मस्वर धड़कता रहा, अनवरत, शांत, अनंत।

।। तीन ।।

श्री पुरंदर दास का काव्य भारतीय भक्ति-संवेदना की उस गहराई से उत्पन्न हुआ है, जहाँ ईश्वर, लोक और संगीत एक ही अस्तित्व में विलीन हो जाते हैं। वे केवल एक कवि नहीं थे, बल्कि भक्तिकाल की उस अदृश्य परंपरा के सूत्रधार थे जिसने दक्षिण भारत में भक्ति को लोक के हृदय तक पहुँचाया। उनके काव्य का सौंदर्य न तो केवल छंदों में है, न रागों में—वह उस आंतरिक अनुनाद में है, जो आत्मा और ईश्वर के बीच एक गुप्त संवाद बन जाता है। उनका हर पद, हर पंक्ति, भक्ति की एक नई अनुभूति का द्वार खोलती है।

पुरंदर दास की कविता की सबसे बड़ी विशेषता उसकी सरलता में छिपी गहराई है। वे विद्वान होने के बावजूद लोकभाषा में लिखते हैं, ताकि ईश्वर की महिमा केवल मठों और मंदिरों तक सीमित न रहे, बल्कि हर गृह, हर गाँव तक पहुँचे। उनके भजनों में भाषा फूलों की तरह खिलती है—कोमल, सुगंधित और सहज। यह सहजता ही उनकी सबसे बड़ी शक्ति है। जैसे तुलसीदास ने “रामचरितमानस” में अवधी को भक्तिभाव का माध्यम बनाया, वैसे ही पुरंदर दास ने कन्नड़ को भक्ति की भाषा बना दिया। उनका “हरिदास” रूप, उस संत परंपरा का विस्तार है जिसमें कवि और भक्त एक-दूसरे में घुल-मिल जाते हैं।

उनके काव्य में ईश्वर के प्रति अनुराग केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि अत्यंत मानवीय है। वे भगवान को किसी दूरस्थ सत्ता की तरह नहीं देखते, बल्कि अपने जीवन के सहभागी के रूप में पुकारते हैं। उनके भजनों में कभी दास्य-भाव है, तो कभी वात्सल्य; कहीं आत्मसमर्पण का स्वर है, तो कहीं विनम्र प्रतिवाद। जब वे गाते हैं—“पुरंदर विट्ठला, देवा बारो,” तो वह पुकार किसी एक भक्त की नहीं, संपूर्ण मानवता की प्रार्थना बन जाती है। यही वह भाव है जो उनकी कविता को कालातीत बनाता है।

पुरंदर दास की कविताओं में संगीत और अर्थ का अद्भुत सामंजस्य है। वे जानते थे कि शब्द तब तक अधूरे हैं जब तक उनमें स्वर न हो। उनकी कविता संगीत में ढली हुई प्रार्थना है। हर पंक्ति में एक लय है, एक कंपन है, जो सुनने वाले को भीतर से झकझोर देती है। वे भाव को अभिव्यक्ति के स्तर पर नहीं, अनुभव के स्तर पर ले जाते हैं। इसीलिए उनकी कविता को सुनना, केवल अर्थ ग्रहण करना नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक अनुभव से गुजरना है।

उनकी रचनाओं में लोकजीवन का विस्तार भी उतना ही जीवंत है जितना आध्यात्म का। वे ईश्वर की चर्चा खेतों, गलियों, बाजारों और गृहस्थ जीवन की परिस्थितियों में करते हैं। उनके भजनों में चरवाहे हैं, गृहिणियाँ हैं, व्यापारी हैं—हर वर्ग का जीवन भक्ति की धारा से जुड़ा हुआ है। यही कारण है कि उनका काव्य किसी एक जाति या वर्ग का नहीं रहा; वह सबका बन गया। वह ईश्वर की करुणा का लोकतंत्रीकरण करता है।

पुरंदर दास की कविता में गहराई से एक संगीतात्मक नैतिकता दिखाई देती है। वे संसार को नकारते नहीं, बल्कि उसके भीतर ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव कराते हैं। उनके लिए संसार ईश्वर का लीला-क्षेत्र है, और मनुष्य उसका साक्षी। उनका काव्य मोह से मुक्ति का नहीं, मोह में भक्ति खोजने का काव्य है। वे कहते हैं कि जीवन की हर परिस्थिति में ईश्वर का स्मरण संभव है—यह विचार उन्हें मीरा और कबीर के समकक्ष खड़ा करता है।

उनके भजनों में सामाजिक चेतना की झिलमिलाहट भी मिलती है। वे बाहरी आडंबरों, कर्मकांडों और धर्म के दिखावे के विरोधी थे। वे उस सादगी की ओर लौटना चाहते थे जहाँ भक्ति बिना किसी मध्यस्थ के, सीधे हृदय से ईश्वर तक पहुँचे। वे कहते हैं कि मंदिरों और मठों से अधिक महत्वपूर्ण है हृदय की पवित्रता। यह विचार दक्षिण की भक्ति परंपरा को एक नया बौद्धिक और नैतिक आधार देता है।

साहित्यिक दृष्टि से पुरंदर दास की कविता भाव और रूप दोनों स्तरों पर सम्पन्न है। उनमें कल्पना का कोमल स्पर्श है, लेकिन वह किसी कृत्रिम सौंदर्यबोध में नहीं फँसता। उनके रूपक सहज हैं, उपमा जीवन से उठी है। वे नदी, बादल, वंशी और पुष्प की प्रतीकात्मक भाषा में भक्ति को मूर्त कर देते हैं। उनके यहाँ ईश्वर केवल साकार देवता नहीं, बल्कि जीवन के सौंदर्य का प्रतीक है।

पुरंदर दास के काव्य में एक गहन आध्यात्मिक तटस्थता भी है—वे ईश्वर से कुछ माँगते नहीं, केवल मिलन की आकांक्षा व्यक्त करते हैं। उनकी दृष्टि में ईश्वर न तो किसी भय का विषय है, न किसी वरदान का। वह प्रेम का केंद्र है। उनकी कविताएँ यही सिखाती हैं कि भक्ति की श्रेष्ठता उसके सरल भाव में है, किसी तर्क या सिद्धांत में नहीं।

इस भक्ति की सहजता ही उनके काव्य को ललित बनाती है। वहाँ गान और ज्ञान का ऐसा संगम है जो भारतीय काव्य परंपरा में दुर्लभ है। वे कवि होकर भी कवि नहीं, साधक होकर भी साधु नहीं—वे दोनों के बीच का वह पुल हैं जो कला को अध्यात्म में और अध्यात्म को लोक में जोड़ता है। उनके भजन एक ऐसी काव्यात्मा की देन हैं जो भाषा की सीमाओं से परे जाकर मानव के मूल भाव—प्रेम, विनम्रता और करुणा—को व्यक्त करती है।

आज जब हम पुरंदर दास की कविता को देखते हैं, तो वह केवल दक्षिण भारत की नहीं, संपूर्ण भारतीय आत्मा की कविता लगती है। उसमें संगीत की भक्ति है, कविता की शुद्धता है और जीवन की विनम्रता है। वह बताती है कि ईश्वर केवल मंदिर की मूर्ति में नहीं, मनुष्य की करुणा में भी है। उनके शब्द अब भी उसी तरह गूँजते हैं—भीतर से बाहर तक, मन से ब्रह्म तक।

पुरंदर दास का काव्य यह प्रमाणित करता है कि जब कविता में श्रद्धा और सौंदर्य एक हो जाते हैं, तब वह केवल साहित्य नहीं रहती—वह जीवन का आलोक बन जाती है। उनकी कविता आज भी उस उजाले की तरह है जो न केवल दक्षिण की धरती को आलोकित करती है, बल्कि संपूर्ण भारतीय हृदय में एक अनंत संगीत की तरह गूँजती रहती है।

।। चार ।।

श्री त्यागराज भारतीय भक्ति-संगीत और कविता के उस उज्ज्वल शिखर पर विराजमान हैं, जहाँ शब्द और स्वर दोनों एक-दूसरे में विलीन होकर आत्मा की भाषा बन जाते हैं। वे न केवल कर्नाटक संगीत के अमर नायक हैं, बल्कि भक्तिकाव्य की उस परंपरा के अद्वितीय कवि भी हैं, जिसमें ईश्वर केवल आराध्य नहीं, बल्कि आत्मीय सखा बन जाते हैं। उनकी कविता में राग है, रस है, और सबसे अधिक—एक ऐसी भक्ति है जो संगीत में रूपांतरित हो गई है। उनके शब्द किसी शास्त्रीय अनुशासन से बंधे नहीं, बल्कि एक मुक्त संवाद की तरह बहते हैं। यह संवाद मनुष्य और ईश्वर के बीच नहीं, आत्मा और आत्मा के बीच होता है।

त्यागराज की कविताएँ मूलतः तेलुगु भाषा में हैं, पर उनमें जो भाव-संगीत है, वह किसी भाषा की सीमाओं से परे है। वे तुलसीदास की तरह ही राम को अपना सर्वस्व मानते हैं, किंतु उनकी दृष्टि अधिक अंतर्मुखी और सांगीतिक है। वे राम के दर्शन बाह्य जगत में नहीं, भीतर की लय में करते हैं। उनकी पंक्तियाँ मानो तानपुरे की गूँज हों—धीरे-धीरे हृदय के किसी मौन में उतरती हुईं। वे राम को पुकारते नहीं, राम को गाते हैं; और गाते-गाते स्वयं उस स्वर में विलीन हो जाते हैं। उनकी कविता में भक्ति किसी उपदेश का रूप नहीं लेती, वह एक सजीव अनुभूति बन जाती है।

त्यागराज की काव्य-दृष्टि में संगीत साधना का पर्याय है। उनके अनुसार ईश्वर का अनुभव केवल ज्ञान से नहीं, स्वर से होता है। इसीलिए उनकी रचनाओं में एक निरंतर स्पंदन है, जो जीवन और अध्यात्म दोनों का रूपक है। “एंदरो महानुभावुलु”—उनकी यह कृति केवल संगीत का नमूना नहीं, बल्कि उस परंपरा को प्रणाम है, जिसमें संत, कवि और श्रोता—तीनों एक ही सत्य के खोजी हैं। यह कविता बताती है कि भक्ति एक सामाजिक संवाद भी है; हर गायक, हर साधक, हर श्रोता उस दिव्य वृत्त का हिस्सा है जिसमें ईश्वर स्वयं स्वर बनकर उपस्थित हैं।

त्यागराज की कविता की आत्मा राम हैं। उनके लिए राम कोई ऐतिहासिक या दार्शनिक प्रतीक नहीं, बल्कि आत्मानुभव का केंद्र हैं। वे राम को पिता, मित्र, गुरु और प्रेमी—सभी रूपों में देखते हैं। जब वे कहते हैं—“राम नी समनामेवरु?” (हे राम, तेरे समान कौन है?)—तो यह प्रश्न एक विस्मय है, वियोग भी है, और समर्पण भी। यह उनकी कविता की सबसे बड़ी विशेषता है कि उसमें भक्ति और विरह दोनों एक साथ उपस्थित रहते हैं। वे राम से रुष्ट भी होते हैं, पर वही रुष्टता प्रेम का सबसे सघन रूप बन जाती है।

उनकी रचनाएँ औपचारिक सौंदर्य के बजाय भाव की सच्चाई से भरी हैं। वे शब्दों को सजाते नहीं, उन्हें जीते हैं। इसीलिए उनकी कविताएँ गाई जाती हैं, पढ़ी नहीं जातीं। उनका सौंदर्य गले से नहीं, हृदय से फूटता है। वे कहते हैं—“संगीत ज्ञानमु भक्ति विनानु” (भक्ति के बिना संगीत का ज्ञान व्यर्थ है)। यह पंक्ति उनके संपूर्ण काव्य-दर्शन का निचोड़ है। उनके लिए कविता, संगीत और भक्ति—तीनों एक ही साधना के रूप हैं।

त्यागराज के यहाँ प्रकृति का भी एक गूढ़ रूप है। उनके भजनों में नदी, पेड़, वायु और पक्षी सब जीवंत प्रतीक बन जाते हैं। वे कहते हैं कि जब मनुष्य का अंतर्मन शांत होता है, तब पूरी प्रकृति उसके साथ गाने लगती है। उनके काव्य में एक प्राकृतिक लय है, जो किसी भी कृत्रिम अनुशासन से मुक्त है। इसीलिए उनका भक्ति-संगीत जीवन की लय जैसा प्रतीत होता है—कभी कोमल, कभी तीव्र, पर हमेशा सत्य।

उनकी भाषा में एक विलक्षण आत्मीयता है। वे कठिन संस्कृत के बजाय सहज तेलुगु में लिखते हैं। उनके शब्द किसी आडंबर से नहीं, लोक के जीवन से उठे हैं। यही कारण है कि वे विद्वानों के बीच भी पूज्य हैं और साधारण जन के हृदय में भी बसे हुए हैं। उनके पदों में व्याकरण से अधिक भावना है, अलंकार से अधिक लय है। उनके यहाँ कविता शास्त्र नहीं, अनुभूति है—उस अनुभूति की जो हर जीव में सोए हुए ईश्वर को जगा देती है।

त्यागराज के काव्य में करुणा की जो झिलमिलाहट है, वह केवल ईश्वर के प्रति नहीं, समस्त जीवों के प्रति है। वे ईश्वर को देखने से पहले मनुष्य को समझना चाहते हैं। वे कहते हैं—“राम, तुम भीतर भी हो और बाहर भी, पर मैं तुम्हें पहचान क्यों नहीं पा रहा?” यह आत्मसंवाद उनकी कविता को दार्शनिक गहराई देता है। वहाँ भक्ति केवल स्तुति नहीं, आत्म-खोज है।

साहित्यिक दृष्टि से देखें तो त्यागराज की कविता भाव, लय और अर्थ—तीनों स्तरों पर विलक्षण संतुलन रखती है। उनके काव्य में कोई आक्रोश नहीं, कोई तर्क नहीं—केवल आत्मस्वीकृति की शांति है। उनका हर पद आत्मा के भीतर की गति को व्यक्त करता है। वे दुःख में भी लय खोजते हैं, विरह में भी माधुर्य। उनके लिए भक्ति दुख को भी संगीत बना देने की कला है। यही कारण है कि उनकी कविताएँ शोक नहीं, शांति देती हैं।

त्यागराज की कविता हमें यह सिखाती है कि सच्चा सौंदर्य तर्क या शब्दों में नहीं, अनुभूति की सच्चाई में है। उनकी रचनाएँ इस बात का प्रमाण हैं कि कविता जब भक्ति से मिलती है, तो वह केवल साहित्य नहीं रहती—वह साधना बन जाती है। उनकी कविता भारतीय अध्यात्म की उस परंपरा का प्रतीक है जहाँ साधक अपनी आराधना को शब्दों में नहीं, सुरों में ढालता है।

उनका काव्य आज भी उतना ही जीवंत है जितना उनके समय में था। क्योंकि वह किसी काल या भाषा का बंधक नहीं, आत्मा की उस सार्वभौमिक अनुभूति का रूप है जो हर युग में नई होकर जन्म लेती है। त्यागराज की कविता में राम की भक्ति केवल एक धार्मिक भाव नहीं, बल्कि जीवन का संगीत है—जो हर हृदय में गूँज सकता है, यदि उसमें प्रेम, विनम्रता और समर्पण का स्वर शेष हो।

त्यागराज की कविता की यही ललितता है कि वह हमें ईश्वर की ओर नहीं, अपने भीतर के ईश्वर की ओर ले जाती है। उनका काव्य बताता है कि जब शब्द स्वरों में ढल जाते हैं, तब वे प्रार्थना बन जाते हैं; और जब संगीत भक्ति में भीग जाता है, तब वह मुक्ति का मार्ग बन जाता है। यही वह क्षण है जहाँ त्यागराज के शब्द मौन हो जाते हैं, पर उनका संगीत अमर हो जाता है—वही संगीत, जो आज भी अयोध्या से लेकर तंजावूर तक, हर भक्ति-हृदय में गूँजता है।

।। पाँच।।

भारतीय संगीत में मृदंगम, कंजीरा, घटम और मोर्सिंग न केवल वाद्ययंत्र हैं, बल्कि वे एक समग्र भाव और संस्कार की अभिव्यक्ति हैं, जो ध्वनि को केवल संगीत तक सीमित नहीं रहने देते, बल्कि उसे जीवन के एक आयाम में परिवर्तित कर देते हैं। ये वाद्य केवल साधन नहीं, साधना के अंग हैं। इनके भीतर भारतीय संगीत की आत्मा, उसकी लय, उसका समय और उसका धर्म गुँथा हुआ है। हर वाद्य का स्वर केवल कानों तक नहीं पहुँचता, वह हृदय और चेतना के भीतर एक गूढ़ अनुभूति उत्पन्न करता है।

मृदंगम भारतीय संगीत का वह आधार है जो लय का सृजन करता है और सम्पूर्ण संगीत को गति देता है। इसका हर ताल, हर थप्पड़, जैसे जीवन के किसी क्षण का उद्घोष है। मृदंगम केवल तालवादन नहीं है; वह एक संवाद है — संगीत और समय का, साधक और श्रोता का, चेतना और आभा का। इसकी गूँज में भारतीय संगीत की न केवल तकनीक है, बल्कि उसका दर्शन भी छिपा है। मृदंगम की गूंज उस भावना को जगाती है जो कहती है कि जीवन भी एक लय है—उत्सव और मौन का संगम।

कंजीरा, अपने छोटे आकार के बावजूद, मृदंगम के साथ-साथ भारतीय संगीत को एक विशिष्ट रंग देती है। यह एक प्रकार का जीवन स्पंदन है, जहाँ हर खनकार में एक नए अनुभव का बीज बोया जाता है। कंजीरा का स्वर तीव्र और हल्का दोनों होता है, जैसे जीवन का संतुलन — कभी उत्साह से भरा, कभी शांत ध्यान में डूबा। इसका उपयोग केवल ताल को सजाने के लिए नहीं, बल्कि उसमें सौंदर्य और भाव जोड़ने के लिए किया जाता है। कंजीरा की लय में लोक की सहजता है, और वह साधना की गंभीरता में भी प्रवेश कर लेती है।

घटम भारतीय वाद्य परंपरा का एक अनूठा प्रतीक है। मिट्टी का यह सरल बर्तन जब संगीतकार के हाथों में जीवन पाता है तो वह केवल ताल नहीं, अनुभव बन जाता है। घटम का स्वर गूढ़ है, पृथ्वी से जुड़ा हुआ और मौन में गूँजने वाला। इसका वादन केवल तकनीकी कौशल नहीं, बल्कि ध्यान का अभ्यास है। घटम की गूँज में जो कंपन है, वह शरीर और मन दोनों को स्पर्श करता है। यह वाद्य हमें यह स्मरण कराता है कि संगीत केवल श्रवण का विषय नहीं, बल्कि अंतर्मन का दर्पण है।

मोर्सिंग या मुरसिंग, भारतीय संगीत में एक अत्यंत सूक्ष्म, पर प्रभावशाली वाद्य है। इसकी सरलता में गहनता है—एक तार के कंपन में एक सम्पूर्ण भाव जग जाता है। मोर्सिंग की ध्वनि मन को भीतर की ओर खींचती है, जैसे कोई मंत्र। यह वाद्य भारतीय संगीत की उस साधना को मूर्त करता है जिसमें स्वर और मौन एक साथ मिल जाते हैं। मोर्सिंग की गूंज में ध्यान और भक्ति का स्वरूप दोनों व्याप्त हैं। यह केवल ताल का विस्तार नहीं, आत्मा का विस्तार है।

इन वाद्यों में जो लालित्य है, वह केवल उनके स्वर में नहीं, बल्कि उनके प्रयोग के भाव में है। मृदंगम, कंजीरा, घटम और मोर्सिंग प्रत्येक अपने स्वरूप में जीवन के विभिन्न आयामों का प्रतिनिधित्व करते हैं—उत्सव और साधना, आह्वान और मौन, गति और स्थिरता। इनके साथ संगीत केवल श्रवण नहीं रहता, वह अनुभव बन जाता है, एक यात्रा बन जाती है।

भारतीय संगीत में ये वाद्य न केवल शास्त्रीय संगीत का अंग हैं, बल्कि उसके आध्यात्मिक आयाम का भी प्रतीक हैं। वे संगीत को केवल कला नहीं रहने देते, बल्कि उसे साधना का रूप दे देते हैं। हर ताल, हर खनकार, हर कंपन केवल ध्वनि नहीं, जीवन के किसी क्षण की अनुभूति है। यह अनुभूति न केवल संगीतकार के भीतर है, बल्कि श्रोता के भीतर भी उतरती है।

मृदंगम की गूंज हमें चेतना का आधार देती है, कंजीरा की खनक जीवन के भाव की मिठास जोड़ती है, घटम की मौन गूँज आत्मा की आवाज़ बन जाती है और मोर्सिंग की सरलता हमें उस अंतर्मुखी ध्यान की ओर ले जाती है जहाँ स्वर और मौन एकाकार हो जाते हैं। यही इन वाद्यों की ललितता है—वे केवल संगीत का रूप नहीं, जीवन का रूप हैं।

इन वाद्यों का प्रयोग भारतीय संगीत की उस गहन परंपरा का हिस्सा है जो श्रोताओं को केवल श्रवण नहीं कराती, बल्कि उन्हें एक आत्मिक अनुभव देती है। वे शास्त्र के नियमों और लोक के सहज भाव का संगम हैं। इस संगम में संगीत एक साधना बन जाता है, और साधना जीवन का संगीत।

अतः मृदंगम, कंजीरा, घटम और मोर्सिंग केवल वाद्य नहीं, भारतीय संगीत के उन स्तंभों में से हैं जो हमें स्मरण कराते हैं कि संगीत केवल स्वर का निर्माण नहीं, बल्कि आत्मा का प्रतिबिंब है। इनकी गूंज में जो लय और मौन है, वह भारतीय कला का एक सूक्ष्म और गहन सौंदर्य है, जो केवल सुनने में नहीं, अनुभव करने में है। यही उनकी ललितता है—एक ऐसी भाषा जिसमें शब्द कम और अनुभूति अधिक है, और जहाँ संगीत स्वयं एक प्रार्थना बन जाता है।

।। छ:।।

श्री अरुणाचल कवि की कविता भारतीय आध्यात्मिक चेतना का वह शांत, दीप्त और रहस्यमय प्रदेश है, जहाँ शब्द मौन में बदल जाते हैं और मौन अर्थ में। उनका काव्य केवल लिखित अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि एक साधना की यात्रा है। वे उन विरल कवियों में हैं जिनकी कविता में ‘कहना’ गौण है और ‘होना’ प्रधान। उनकी रचनाओं में शब्द, स्वर और शून्य का अद्भुत संतुलन है—जैसे पहाड़ी झरने की ध्वनि और उसकी निस्तब्धता एक साथ उपस्थित हों। उनके लिए कविता केवल भावनाओं का विस्तार नहीं, आत्मा का आलोक है।

अरुणाचल कवि उस परंपरा से आते हैं जहाँ कवि और साधक के बीच कोई भेद नहीं। वे ‘अरुणाचल’ पर्वत को केवल भौगोलिक स्थल नहीं, एक प्रतीक मानते हैं—स्थिरता और ज्योति का। उनके काव्य का केंद्र भी यही ज्योति है जो अंधकार से नहीं लड़ती बल्कि उसे अपने भीतर समाहित कर लेती है। उनकी कविताएँ यह सिखाती हैं कि प्रकाश तब पूर्ण होता है जब वह अंधकार को स्वीकार कर लेता है। यही उनका काव्य-सिद्धांत है, यही उनकी सौंदर्य-दृष्टि।

उनकी भाषा में असाधारण सादगी है, किंतु वह सादगी किसी शून्यता की नहीं, एक गहरी सजगता की है। उनके शब्दों में लय है, किंतु वह लय रागिनी की नहीं, ध्यान की है। उनकी कविता को पढ़ते समय ऐसा लगता है मानो कोई मौन अपने अर्थों को उच्चारित कर रहा हो। वे जीवन के क्षणों को पकड़ने की नहीं, उन्हें पार जाने की चेष्टा करते हैं। उनके लिए अनुभव जितना बाहरी है, उतना ही आंतरिक भी। वे कहते हैं—“जो देखा, वही ईश्वर नहीं; जो भीतर से देखा, वही सत्य।” यह दृष्टि उनके काव्य को एक ऊर्ध्व दिशा देती है।

अरुणाचल कवि की कविता का सौंदर्य उसकी आध्यात्मिक गहराई में है। वे भक्ति, दर्शन और सौंदर्य को तीन अलग आयामों की तरह नहीं, एक ही सत्य के तीन रूपों की तरह देखते हैं। उनकी कविता में कोई उपदेश नहीं, केवल उपस्थिति है। वे ईश्वर की नहीं, ईश्वरत्व की बात करते हैं। उनके पदों में मंदिर की घंटियों की तरह एक धीमी गूँज है, जो भीतर जाकर आत्मा को झंकृत करती है।

उनकी कविता में प्रकृति का प्रयोग अत्यंत आत्मीय है। वे पर्वत, जल, वायु, दीप, आकाश—सभी को प्रतीक नहीं, साक्षी मानते हैं। वे कहते हैं कि जब मनुष्य मौन होता है, तब प्रकृति बोलती है। उनका काव्य इस मौन का संगीत है। उनके लिए सृजन का अर्थ है—ईश्वर की प्रतिध्वनि को अपने भीतर सुनना। उनकी रचनाओं में बार-बार ‘प्रकाश’, ‘मौन’, ‘दीप’ और ‘छाया’ के बिंब आते हैं—ये सब मिलकर आत्मा के उस प्रदेश को रचते हैं जहाँ ईश्वर एक अनुभव है, विचार नहीं।

अरुणाचल कवि की कविता में करुणा का एक अनकहा प्रवाह है। वे संसार के दुःख को देखकर उसे नकारते नहीं, बल्कि उसे साधना का अंग बना लेते हैं। वे मानते हैं कि दुःख वह भूमि है जहाँ से आत्मा अंकुरित होती है। इसीलिए उनकी कविताओं में विषाद भी एक प्रकार की शांति देता है। वे कहते हैं—“जितना रोया, उतना निर्मल हुआ।” यह सरल पंक्ति उनके काव्य की संपूर्ण दार्शनिकता को व्यक्त कर देती है।

उनकी कविता का एक विलक्षण पक्ष उसका ‘मौन-संगीत’ है। वे गाते नहीं, किंतु उनकी पंक्तियाँ सुनने पर प्रतीत होता है कि कोई राग बज रहा है—वह राग जिसे केवल आत्मा सुन सकती है। वे शब्दों की सीमा से परे जाकर उस अनुभव को व्यक्त करते हैं जो अनुभव नहीं, अस्तित्व है। उनका यह मौन-संगीत भारतीय काव्य परंपरा में गहन अद्वितीयता रखता है। वहाँ भक्ति और ध्यान, प्रेम और विरक्ति, दोनों एक ही भाव में मिल जाते हैं।

अरुणाचल कवि की कविता में समय का कोई आग्रह नहीं। वह शाश्वत की भाषा बोलती है। वे इतिहास, राजनीति या समाज से अधिक आत्मा के भूगोल में रमे हुए हैं। उनकी कविताएँ किसी आंदोलन का हिस्सा नहीं, बल्कि आत्मा की यात्रा का ब्योरा हैं। वे अपने भीतर उतरते हैं और जो कुछ वहाँ पाते हैं, उसे कविता बना देते हैं। उनकी कविता में इसलिए किसी बाह्य स्वरूप की हलचल नहीं, बल्कि एक गहरी स्थिरता का संगीत है।

साहित्यिक दृष्टि से उनकी कविता न्यूनतम शब्दों में अधिकतम अर्थ रचने की कला है। वे ‘कहते’ कम हैं, ‘संकेत’ अधिक देते हैं। उनके पदों में कभी-कभी एक ही पंक्ति पूरी अनुभूति को समेट लेती है। उदाहरण के लिए, जब वे लिखते हैं—“ज्योति भीतर है, पर आँखें बाहर देखती हैं”—तो यह पंक्ति केवल आत्मचेतना का नहीं, समूचे मानव-जीवन का प्रतिपादन बन जाती है। यह ललित सौंदर्य और दार्शनिक गहराई का अपूर्व संगम है।

उनकी कविताएँ किसी भाषा या भक्ति-परंपरा की सीमाओं में नहीं बाँधी जा सकतीं। वे रामानुज, शंकर और कबीर—तीनों की परंपराओं से संवाद करती हैं, पर किसी की प्रतिकृति नहीं बनतीं। वे ईश्वर को न तो निर्गुण कहते हैं, न सगुण—उनके लिए ईश्वर ‘अनुभव का सत्य’ है। इसीलिए उनकी कविता हर पाठक को अलग अर्थ देती है। एक साधक उसमें ध्यान देखता है, एक कवि उसमें सौंदर्य, और एक मानव उसमें करुणा।

अरुणाचल कवि की रचना का सौंदर्य इस बात में भी है कि वह आत्मा की निजता को लोक की भाषा में व्यक्त करती है। वे कठिन दार्शनिक भावों को भी सहज प्रतीकों में ढाल देते हैं। दीप का जलना, जल का बहना, वायु का बहाव—ये सब उनके लिए आत्मज्ञान की अवस्थाएँ हैं। वे कहते हैं कि कविता तब तक जीवित नहीं होती जब तक वह किसी की साधना का अंश न बने। इसीलिए उनकी कविताएँ पाठ्य नहीं, प्रार्थनीय हैं।

आज जब हम अरुणाचल कवि की कविता को देखते हैं, तो वह हमें उस भारत की याद दिलाती है जहाँ भक्ति और दर्शन एक ही स्रोत से बहते हैं। उनके काव्य में संगीत नहीं, पर लय है; शब्द नहीं, पर अर्थ है; प्रकाश नहीं, पर आभा है। वह कविता हमें बताती है कि आध्यात्मिकता केवल ग्रंथों में नहीं, आत्मा के अनुभव में है।

अरुणाचल कवि का काव्य उस अंतर्मुखी परंपरा का हिस्सा है, जो भारतीय कविता को केवल सौंदर्य नहीं, दिशा भी देती है। उनकी कविता हमें यह सिखाती है कि जब मनुष्य भीतर की यात्रा पर निकलता है, तो हर शब्द एक दीपक बन जाता है, हर मौन एक प्रार्थना। उनकी रचनाएँ उस प्रकाश की तरह हैं जो जलती नहीं, बस प्रकाशित करती हैं। वे हमें यह स्मरण कराती हैं कि कविता तब सच्ची होती है जब वह ईश्वर के समीप नहीं, ईश्वर के भीतर से बोलती है—और यही श्री अरुणाचल कवि की कविता का शाश्वत ललित सौंदर्य है।

।। सात ।।

भारतीय भक्ति-साहित्य की एक अद्भुत धारा दक्षिण भारत से उठती है, जो स्वर, कविता और साधना — तीनों का ऐसा त्रिवेणी-संगम है, जिसमें जीवन और अध्यात्म एकाकार हो जाते हैं। श्री पुरंदर दास, श्री त्यागराज और श्री अरुणाचल कवि — ये तीनों संत कवि इस परंपरा के ऐसे स्तंभ हैं, जिन्होंने भक्ति को केवल धर्म की अभिव्यक्ति नहीं रहने दिया, बल्कि उसे सौंदर्य, संवेदना और आंतरिक संगीत का प्रतीक बना दिया। इन तीनों की कविता में भक्ति किसी उपदेश का रूप नहीं लेती; वह एक जीवंत, स्पंदित अनुभव बनकर उभरती है।

श्री पुरंदर दास ने भक्ति को जन-संवेदना से जोड़ा। उन्होंने उच्च संस्कृत की सीमा को तोड़कर कन्नड़ में गाया, ताकि भगवान तक पहुँचने का मार्ग सबके लिए खुल सके। उनकी कविताएँ संगीत की सहजता में रची गईं — सरल, मधुर, पर गहन दार्शनिक अर्थों से भरी। “गोविंद बोलो हरि गोविंद बोलो” जैसे पद केवल गेय नहीं हैं, वे लोक के भीतर बहने वाली भक्ति की सरल लहर हैं। पुरंदर दास की कविता का केंद्र प्रेम है, पर वह प्रेम किसी सांसारिक आसक्ति का नहीं, बल्कि उस ईश्वर का है जो हर क्षण हमारे भीतर उपस्थित है। उनके यहाँ ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग त्याग नहीं, जीवन के प्रति करुणा से होकर जाता है। उनके भक्ति-संगीत में लोकजीवन के संघर्ष, श्रम और विश्वास की आहटें हैं। इसीलिए वे दक्षिण के ही नहीं, पूरे भारत के लोक कवि हैं।

श्री त्यागराज की कविता में भक्ति का स्वर कहीं अधिक व्यक्तिगत, कहीं अधिक आर्त और आत्मगोपनीय है। वे राम के कवि हैं, पर उनके राम किसी मंदिर के देवता नहीं — वे उनके अंतःकरण में निवास करने वाले, संवाद करने वाले, सखा समान ईश्वर हैं। त्यागराज के भजनों में संगीत आत्मा की तरह उपस्थित है; राग उनके लिए केवल ध्वनि का साधन नहीं, साधना का मार्ग है। जब वे गाते हैं — “एंदरो महानुभावुलु अंतरिकि वंदनमुलु” — तो उसमें हर महापुरुष, हर साधक के प्रति उनका विनम्र नमन झलकता है। उनकी कविता एक सजीव प्रार्थना है — जहाँ स्वर, शब्द और मौन एक साथ ईश्वर की अनुभूति कराते हैं। उन्होंने भक्ति को किसी सीमित धार्मिक परिपाटी से मुक्त किया, उसे आत्मा के विस्तार के रूप में देखा।

श्री अरुणाचल कवि इस परंपरा में एक गूढ़ और दार्शनिक संत के रूप में आते हैं। उनके लिए शब्द केवल संप्रेषण नहीं, आत्मबोध का साधन हैं। उनके भजनों में शिव का आह्वान है, पर वह आह्वान किसी मूर्ति के प्रति नहीं, अपने भीतर के चैतन्य के प्रति है। “अरुणाचल शिव शरणम्” की पुनरावृत्ति कोई स्तुति मात्र नहीं, वह एक ध्यान की गति है। उनकी कविता ध्वनि से अधिक मौन पर टिकी है। वे हमें यह अनुभव कराते हैं कि भक्ति का सबसे गहरा रूप मौन में ही प्रकट होता है। अरुणाचल कवि की काव्य-संवेदना में रहस्य और सरलता दोनों का अद्भुत मेल है। वे शब्दों को उस बिंदु तक ले जाते हैं जहाँ शब्द समाप्त होते हैं और अनुभव आरंभ होता है।

इन तीनों संत कवियों की भक्ति में भेद होते हुए भी एक गहरी एकता है। पुरंदर दास का लोक-संवाद, त्यागराज का अंतर्मुख ध्यान, और अरुणाचल कवि का मौन — ये तीनों मिलकर दक्षिण की भक्ति को पूर्णता देते हैं। इनके यहाँ भक्ति कोई निष्क्रिय समर्पण नहीं, बल्कि आत्मा की सक्रिय भागीदारी है। ये कवि अपने समय की सीमाओं को लांघकर उस शाश्वत संगीत तक पहुँचते हैं जो भारत की आत्मा में सदा बजता रहता है।

इनकी कविता की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह किसी दर्शन का प्रतिपादन नहीं करती, बल्कि स्वयं दर्शन बन जाती है। इनकी पंक्तियाँ उपदेश नहीं देतीं, भीतर जागृति उत्पन्न करती हैं। पुरंदर दास के भजन जीवन की सहजता में, त्यागराज के पद आत्म-गहराई में, और अरुणाचल कवि की रचनाएँ मौन की रहस्यमयी अनुभूति में हमें ले जाती हैं। ये तीनों मिलकर भारतीय काव्य–परंपरा को वह संतुलन देते हैं जिसमें संगीत, दर्शन, और काव्य एक साथ गुँथे हुए हैं।

यदि तुलसीदास और मीरा ने उत्तर भारत में भक्ति को जनमानस का हिस्सा बनाया, तो इन दक्षिणी संत कवियों ने उसे स्वर और ध्यान की धारा में रूपांतरित किया। इनके कारण ही भारतीय भक्ति-साहित्य केवल भावनात्मक नहीं, सौंदर्यात्मक और दार्शनिक भी बना। अयोध्या की भूमि पर जब इनके राग गूँजते हैं, तो वह केवल संगीत का संगम नहीं होता — वह उस राष्ट्रीय आत्मा का पुनर्जागरण होता है जिसने उत्तर और दक्षिण को, लोक और शास्त्र को, शब्द और मौन को एक कर दिया।

इन संत कवियों की काव्यधारा इस बात का प्रमाण है कि भारत की सांस्कृतिक आत्मा न तो किसी भाषा की बंदिश में बंधी है, न किसी भूगोल की सीमा में। वह स्वर, कविता और भक्ति के रूप में निरंतर बहती रही है — कभी सरयू के तट पर, कभी कावेरी के किनारे, तो कभी अरुणाचल की चट्टानों के बीच। यही प्रवाह भारतीय काव्य की सबसे बड़ी ललितता है — जहाँ साधना और सौंदर्य एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं, और कविता स्वयं एक प्रार्थना बन जाती है।


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