— निसार अहमद —
भारत की आज़ादी का इतिहास केवल राजनीतिक घटनाओं का क्रम नहीं है, वह उन असंख्य आत्माओं की ज्वाला है जिन्होंने न सिर्फ़ गुलामी की ज़ंजीरें तोड़ीं, बल्कि स्वतंत्र भारत में भी सामाजिक न्याय और समता की लड़ाई जारी रखी। कैप्टन अब्बास अली उन्हीं अमर योद्धाओं में से एक थे — एक ऐसा नाम, जो क्रांति की परिभाषा है, और जनसत्ता की आत्मा भी।
साल 1931, भगत सिंह को फाँसी दी गई। पूरा देश स्तब्ध था, लेकिन कुछ दिलों में आग भी धधक रही थी। उन्हीं में से एक था एक ग्यारह साल का बालक — अब्बास अली। यह कोई साधारण बच्चा नहीं था, यह उस रुसतम अली खान का बेटा था, जो 1857 की क्रांति में ही बलिदान हो चुके थे। बचपन में ही पिता की शहादत और देश की पीड़ा को आत्मसात कर चुके अब्बास अली का जीवन वहीं से एक क्रांतिकारी दिशा में बढ़ चला।
जवानी आई तो देश में नेताजी सुभाष चंद्र बोस का बिगुल गूंज रहा था। अब्बास अली ने नेताजी की आज़ाद हिंद फौज में शामिल होकर ब्रिटिश साम्राज्य से युद्ध किया। वे भारत की सरहद पार कर, दिल्ली को आज़ाद कराने निकले। लेकिन युद्ध की विफलता के बाद वे ब्रिटिश सेना द्वारा गिरफ्तार कर लिए गए और उन्हें मौत की सज़ा सुनाई गई। पर किस्मत को कुछ और मंज़ूर था, 15 अगस्त 1947, जब देश आज़ाद हुआ, तब प्रधानमंत्री नेहरू के आदेश पर उन्हें फाँसी के फंदे से रिहा किया गया।
स्वतंत्रता मिलते ही जहाँ कई लोग सत्ता और पद की ओर मुड़े, वहीं कैप्टन अब्बास अली ने दूसरी राह चुनी। जनता की आज़ादी, न्याय और अधिकारों की राह। उन्होंने 1948 में आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण और डॉ. राममनोहर लोहिया के साथ मिलकर सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की। उन्होंने कभी चुनाव नहीं लड़ा, कभी सत्ता की लालसा नहीं की। उनका मानना था कि सच्चा नेता वह है जो जनता के बीच रहे, न कि सत्ता के सिंहासन पर बैठे।
इन्हीं सिद्धांतों और संघर्ष की परंपरा ने उन्हें एक नई पीढ़ी के समाजवादी नेताओं से भी जोड़ा। विशेषकर मुलायम सिंह यादव, जो लोहिया के अनुयायी थे, कैप्टन अब्बास अली को अपना राजनीतिक मार्गदर्शक मानते थे। मुलायम सिंह ने कई बार सार्वजनिक रूप से कहा कि अब्बास अली जैसे त्यागी और निर्भीक समाजवादियों से उन्होंने सीखा कि सत्ता सेवा के लिए होती है, स्वार्थ के लिए नहीं। एक तरह से अब्बास अली, समाजवादी आंदोलन की वह कड़ी थे, जिन्होंने नेताजी और लोहिया के विचारों को मुलायम सिंह जैसे नेताओं तक पहुँचाया।
कैप्टन अब्बास अली का जुड़ाव केवल मुलायम सिंह तक सीमित नहीं था। वे उस पीढ़ी के समाजवादी योद्धा थे, जिन्होंने लोकबंधु डॉ. रामनारायण, राजनारायण, मधु लिमये, जॉर्ज फ़र्नांडिस और अन्य असंख्य समाजवादी साथियों के साथ भारत के लोकतांत्रिक और जनतांत्रिक आंदोलन को आकार दिया।
लोकबंधु रामनारायण और अब्बास अली के बीच केवल वैचारिक साम्यता नहीं थी, बल्कि दोनों के बीच संघर्षों की साझी स्मृतियाँ थीं — जेलों की सलाखों से लेकर धरातल पर चलने वाले आंदोलनों तक।
वे दोनों डॉ. लोहिया की उस समाजवादी चेतना को जमीनी हकीकत में बदलने में लगे रहे, जिसमें सत्ता का अर्थ सिर्फ़ कुर्सी नहीं, बल्कि जन-सेवा, सामाजिक न्याय और बदलाव की प्रतिबद्धता थी।
1975 में जब देश पर आपातकाल का अंधकार छाया, तो इस स्वतंत्रता सेनानी को फिर से जेल में डाल दिया गया — बिना आरोप, बिना सूचना। तीन महीने तक उनकी गिरफ्तारी छिपा दी गई। परिजनों, समाजवादियों और स्वतंत्रता सेनानियों के संघर्ष से सरकार को स्वीकार करना पड़ा कि कैप्टन अब्बास अली जीवित हैं, और हिरासत में हैं। उनका पूरा जीवन इसी तरह संघर्षों से भरा रहा — स्वतंत्र भारत में 50 से अधिक बार जेल गए, लेकिन कभी भी सिद्धांतों से समझौता नहीं किया।
11 अक्टूबर 2014 को जब उन्होंने अंतिम सांस ली, तब भी उनके होंठों पर भगत सिंह की शहादत पर लिखी गई उर्दू कविताएं थीं। ये सिर्फ़ शब्द नहीं थे, बल्कि उनका संकल्प था — कि जब तक इस देश में हर व्यक्ति को बराबरी, न्याय और सम्मान नहीं मिलता, तब तक उनकी लड़ाई जारी है।
कैप्टन अब्बास अली सिर्फ़ अलीगढ़ के नहीं थे, वे भारत की आत्मा के सिपाही थे। उन्होंने दिखाया कि आज़ादी केवल तिरंगे का लहराना नहीं, बल्कि हर नागरिक को गरिमा देना है। वे चले गए, लेकिन उनकी सोच, उनका संघर्ष और उनकी निष्ठा आज भी हमें प्रेरित करती है — यह याद दिलाने के लिए कि क्रांति कोई घटना नहीं, वह जीवन भर का संकल्प है।
दुःख और अफ़सोस की बात है कि आज के समाजवादीजन अब्बास अली जैसे महान क्रांतिकारियों को भुलाते जा रहे हैं। बहुत कम लोग ही उनके संघर्ष और योगदान को याद करते हैं। यह अनदेखी न केवल उनके प्रति अन्याय है, बल्कि समाजवादी आंदोलन की असली जड़ को कमजोर करना भी है। हमें चाहिए कि हम इनके आदर्शों को न सिर्फ याद करें, बल्कि उन्हें अपने जीवन और संघर्ष का हिस्सा बनाएं। तभी हम उनके सपनों का भारत बना पाएंगे।
खिराज-ए-अकीदत के साथ, उनके उज्जवल व्यक्तित्व, अडिग साहस और समाज के प्रति उनकी गहन प्रतिबद्धता को हम सदैव याद रखेंगे। उनकी जिजीविषा और आदर्शों से हम सबको निरंतर प्रेरणा मिलती रहे। उनकी आत्मा को सलाम, और उनके संघर्ष को हमारा सलाम।
“वो शख़्स जो डूबा रहा इस देश की हक़ीक़त में,
ख़ून-ए-आज़ादी से लिखा है उसने नई दास्ताँ।”
जय जनशक्ति। जय समाजवाद
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