ज्ञान मीमांसा का स्रोत छठ त्योहार: एक समाजशास्त्रीय विश्लेषण

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Chhath festival

Ambedkar Sahu

— अम्बेदकर कुमार साहु —

ह आलेख छठ त्योहार का समाजशास्त्रीय विश्लेषण प्रस्तुत करता है। आलेख छठ त्योहार को ज्ञान मीमांसा का स्रोत मानकर यह तर्क देता है कि भारतीय समाज वैश्वीकरण के दौर में वैज्ञानिक ज्ञान से बहुत पीछे है। कई अध्ययनों से पता चलता है कि विद्वानों में छठ त्योहार की उत्पत्ति को लेकर कोई एकमत नहीं है। हालाँकि छठ त्योहार एक प्राचीन हिंदू त्योहार है किंतु व्यवहार में सभी धर्मों को समाहित करता है। तथ्य बताते है कि छठ त्योहार का उद्गम स्थल बिहार राज्य रहा है तथा बिहार से ही भारत के अन्य क्षेत्रों में छठ पर्व का फैलाव शुरू हुआ। इस संदर्भ में बिहार सरकार गजेटियर-1970 के मुताबिक़ छठ त्योहार मगध (वर्तमान बिहार) का त्योहार है जिसे कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष की छठी और सातवीं तीथि को मनाया जाता है (बीबीसी हिंदी, 2022)। यद्यपि छठ त्योहार का उल्लेख प्राचीन भारतीय महाकाव्यों रामायण और महाभारत में भी मिलता है (ब्रिटानिका शब्दकोश)। किंतु ऐसा कोई भी प्रमाण उपलब्ध नहीं है जो भारतवर्ष में छठ पर्व आरंभ होने का एकसमान तथ्य प्रस्तुत करता हो। बावजूद इसके, इक्कीसवीं सदी के वैज्ञानिक दौर में छठ त्योहार का प्रसार वैश्विक पहचान बन चुका है। आखिर यह कैसे संभव हुआ कि तथ्य विहीन त्योहार सदियों से जीवंत है तथा जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होती आ रही है? इन प्रश्नों को आधार मानकर प्रस्तुत आलेख छठ पर्व का सामाजिक अर्थ समझने का प्रयास करता है।

छठ त्योहार का सामाजिक अर्थ

यह विदित है कि भारत एक विविधतायुक्त समाज है। इसलिए यहाँ जितने ऋतुऐं है उससे भी अधिक त्योहार मनाएं जाते हैं। इन्हीं त्योहार में से एक है छठ त्योहार। प्रकृति की ऊर्जा सूर्य को अर्पित छठ त्योहार चार दिवसीय लोक आस्था का पर्व है। यह त्योहार बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, पश्चिम बंगाल राज्य के अलावा नेपाल सहित अमेरिका, ब्रिटेन आदि मुल्क़ में भी भारतीय प्रवासी समुदायों द्वारा मनाया जाता है। कई शोध बताते है कि जनसमुदाय जिस त्योहार को मनाते है, दरअसल वे उस त्योहार के वास्तविकता से अनभिज्ञ होते हैं। अत: छठ त्योहार से पूर्व त्योहार का अर्थ समझना जरूरी है।

त्योहार शब्द लैटिन शब्द ‘फेस्टिवस’ से आया है, जिसका अर्थ ‘आनंदमय’ है तथा जिसका मूल संदर्भ धार्मिक त्योहारों से है। हालाँकि त्योहार एक सामाजिक परिघटना है जिसकी प्रथा बहुत प्राचीन है। समाजशास्त्री ईमाईल दुर्खीम (1958) ने त्योहार को सामाजिक तथ्य के रूप में पवित्र एवं अपवित्र माना है। दुर्खीम ने “त्योहारों को एक ऐसी उमंग के रूप में देखा है जिसकी तीव्रता किसी समूह या लोगों की एकजुटता को पुष्ट करती है, मनुष्य और प्रकृति के नियमों के बीच अदृश्य संबंधों का प्रतिनिधित्व करता है, तथा एक ऐसी वास्तविक संस्था जिसके द्वारा समाज के सदस्यों के बीच के बंधन कायम रहते हैं जो पुनर्जीवित और पुनरुत्पादित होते रहते हैं।” इसी प्रकार, फ्रेज़र (1854) ने “त्योहारों को एक ऐसे कार्यों के रूप में देखा है जो विश्वासों और पौराणिक कथाओं की महान प्रणालियों का पुनरुत्पादन करते हैं।”

अर्थात फ्रेज़र के दृष्टिकोण में छठ त्योहार ज्ञान मीमांसा के जरिए भारतीय विश्वासों और पौराणिक कथाओं का सामाजिक पुनरुत्पादन करते हैं। इसी तरह, आर. के. मर्टन (1910) ने अमेरिका के ‘होपी रेन डांस’ उत्सव को सामाजिक एकता का एजेंट मानते हुए सामाजिक प्रकार्य के रूप में अध्ययन किया है। यानि कि, मर्टन के अनुसार किसी भी त्योहार का मुख्य उद्देश्य सामाजिक एकजुटता को चिरस्थाई बनाए रखना है। उदाहरण के लिए, छठ त्योहार के पीछे छिपे हुए एक पाठ है जो अप्रत्यक्ष तौर पर सामाजिक एकता और सौहार्दपूर्ण जीवन की वकालत करता है। लेकिन आमजन छठ त्योहार में अंतर्निहित पाठ को देखने के बजाय बाहरी खुशियों में मग्न हो जाते हैं। साथ ही त्योहार ज्ञान मीमांसा का स्रोत भी होता है, जिसे अभी तक के समाजशास्त्रियों ने नजरअंदाज किया था। मैंने स्वयं के एक नृवंशवैज्ञानिक अध्ययन में पाया है कि जो त्योहार ज्ञान मीमांसा के स्रोत नहीं थे वे पूर्णत: विलुप्त हो चुके हैं।

ज्ञान मीमांसा का स्रोत: छठ त्योहार

ज्ञान मीमांसा दर्शनशास्त्र की एक शाखा है जिसमें ज्ञान के उ‌द्भव आकार-प्रकार, विधि आदि का अध्ययन किया जाता है। इसके अंतर्गत ज्ञान कैसे उत्पन्न होता है? ज्ञान के क्या आधार हैं? व्यक्ति जो ज्ञान प्राप्त करते हैं, वह उसे कैसे मिलता है? इन सभी प्रश्नों की खोज ज्ञानमीमांसा में की जाती है। ज्ञान मीमांसा में दो तरीके से ज्ञान अर्जित किया जाता है जिसमें ‘रेसनलिज्म एवं इम्पिरिसिज्म’ मुख्य हैं। इस संदर्भ में दार्शनिक कांट (1724) ने ज्ञान मीमांसा के दो स्वरूप बताया है ‘ए पोस्टेरियरी’ (इनडक्टिव) और ‘ए प्रायोरी’ (डिडक्टिव)। आगमनात्मक विधि तर्कशास्त्र की एक पद्धति है जिसमें अवलोकन प्रेक्षण के आधार पर परिणाम निकाले जाते है। इस विधि में खोज की प्रक्रिया विशिष्ट से सामान्य की ओर चलती है। इसके विपरीत निगमनात्मक विधि में किसी सिद्धान्त को किन्हीं दृष्टान्तों पर लागू किया जाता है। अर्थात् दृष्टान्तों को ज्ञात नियम पर घटाकर उसकी सत्यता को प्रमाणित किया जाता है। इसमें खोज की प्रक्रिया सामान्य से विशिष्ट की ओर चलती है। निगमनात्मक की शुरुआत सिद्धान्त से होती है। इसके आधार पर प्राक्कल्पनाए निर्मित की जाती हैं। इन प्राक्कल्पनाओं का प्रेक्षण और भविष्यगत कथनों का परीक्षण बाद में किया जाता है। प्राकृतिक विज्ञानों में प्राय: इसी निगमनात्मक विधि का प्रयोग किया जाता है।

इस प्रकार, छठ त्योहार ज्ञान मीमांसा के निगमनात्मक विधि का हिस्सा है। इस विधि से अवलोकन करने पर पता चलता है कि व्यापक जनसमुदाय यह पहले ही मान लिया (सिद्धान्त) है कि छठ त्योहार से व्यक्ति का स्वास्थ्य ठीक रहता है। श्रद्धालुओं यानि आमजन की धारणा है कि छठ के दिन सूर्य की उपासना से छठी माई प्रसन्न होती हैं तथा बच्चों पर छठि देवता का आशीर्वाद बना रहता है। अत: जनमानस का छठ के प्रति धारणा एक प्राक्कल्पनाए है जिसे सदियों से समाज वैज्ञानिक न तो साबित कर पाए है और न ही सिद्धांत स्वरूप छठ पर्व का खण्डन कर पाया है। हालाँकि तथाकथित लोगों का यह तर्क है कि इस समय सूर्य के रौशनी से व्यक्ति के स्वास्थ्य और स्वभाव भी प्रभावित होती है।

तथापि अक्सर मैंने भारतीय समाज में पाया है कि घर के बुजुर्ग महिलाओं द्वारा छठ त्योहार (अन्य त्योहार भी) से संबंधित मूल्य, प्रतिमान और लोकाचार को नवयुवती कन्याओं को विशिष्ट ज्ञान देकर यह सिखाया जाता है कि छठ व्रत को कैसे निष्ठा के साथ पालन करना है। चूँकि इस पर्व का कोई लिखित प्रालेख उपलब्ध नहीं है। अत: मौखिक रूप से छठ त्योहार से संबंधित ज्ञान पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित हो रही है। हालाँकि छठ त्योहार के परंपरागत मूल्य में आधुनिकीकरण जरूर हुआ है; किंतु छठ त्योहार की संरचना आज भी मजबूत है।

चार दिवसीय छठ त्योहार की संरचना प्रथम दिन ‘नहाय खाय’ से आरंभ होता है जिसमें घर की सफ़ाई, स्नान और शाकाहारी भोजन से व्रत की शुरुआत की जाती है। द्वितीय दिन व्रतधारी दिनभर उपवास रखने के बाद शाम को भोजन करते है जिसे व्रतधारी के शब्दों में ‘खरना’ कहा जाता है। तीसरे दिन घर के लोग मिलकर छठ का प्रसाद तैयार करते हैं जिसमें ठेकुआ, भुसवा (चावल के लड्डू) और फल शामिल होते हैं जिसे बांस के टोकरी में सजाया जाता है। इसी दिन शाम को डूबते सूर्य का अर्घ्य दिया जाता है। प्राय: तालाब या नदी किनारे महिला, पुरूष, हिंदू, मुस्लिम आदि वर्ती द्वारा सामूहिक रूप से सूर्य देवता को अर्घ्य अर्पित किया जाता है।

छठ पर्व के अंतिम चौथे दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी को उगते सूरज को अर्घ्य दिया जाता है। ज्ञान की इस परंपरा में लोग एक दूसरे से अधिक सीखते हैं जिसे बर्जर और लकमैन ने ‘हैबिटुअलाइज़ेशन’ की प्रक्रिया कहा है। मौखिक ज्ञान मीमांसा के मुताबिक सूर्य को कुष्ठ की बीमारी के उपचार के देवता के रूप में माना जाता है। परंपरा के अनुसार कहीं सूर्य को बच्चों के लालन-पालन की देवी मानी जाती है तो कहीं देवता। यह दुविधा दस्तावेज के अभाव के कारण हैं।

मैं यहाँ तर्क देता हूँ कि भारतीय समाज आधुनिकता और वैश्विकरण के दौर में वैज्ञानिक ज्ञान से बहुत पीछे है तथा छठ त्योहार की ज्ञान मीमांसा किसी भी तरीके से वैज्ञानिक ज्ञान देने में असफल रहा है। इस संदर्भ में फ्रांसीसी समाजशास्त्री अगस्त काम्ट (1798) कहते है कि मानव का बौद्धिक विकास तीन चरणों में हुआ है- धार्मिक, तात्विक और वैज्ञानिक। धार्मिक स्तर में व्यक्ति घटनाओं की व्याख्या अलौकिक शक्ति, जादू और देवताओं आदि अनेक माध्यमों से करता है। तात्विक स्तर में धार्मिक मान्यताओं की जगह अमूर्त सिद्धांतों और शक्तियों में विश्वास बढ़ जाता है जिसमें व्यक्ति विशिष्ट कार्य के लिए केवल एक ही शक्ति को जिम्मेदार कारक मानते हैं। उदाहरण के लिए, सूर्य को कुष्ठ की बीमारी के उपचार के देवता के रूप में मान्यता देना आदि। वैज्ञानिक स्तर में व्यक्ति घटनाओं की व्याख्या वैज्ञानिक अवलोकन और तर्क के आधार पर करते हैं। इस स्तर में व्यक्ति कार्य-कारण संबंध को अधिक महत्वपूर्ण मानते है। इस आलोक में भारतीय समाज ऐतिहासिक रूप से केवल धर्मशास्त्रीय स्तर से आगे बढ़ा है जबकि वैज्ञानिक स्तर से अभी भी बहुत पीछे है।

तथ्यों से पता चलता है कि छठ के त्योहार में अधिकांश लोग किसी तरह का मंत्र नहीं पढ़ते हैं। इससे यह मालूम होता है कि भारतीय समाज में आरंभ से ही साक्षरता दर कम रहीं है तथा संस्कृत जैसे विषय से जनसमुदाय वंचित रहा हैं। इसके अलावा, छठ त्योहार जाति आधारित श्रम-विभाजन को भी बढ़ावा दिया है जिसमें जाति के आधार पर लोग छठ से संबंधित वस्तुओं का निर्माण करते हैं। वास्तव में ज्ञान मीमांसा के तौर पर छठ त्योहार ने जाति आधारित श्रम-विभाजन को बढ़ावा दिया है। इसलिए आज भी छठ त्योहार में बांस की टोकरी, सूप, मिट्टी के घड़ा, कोसिया कुरवार आदि का निर्माण क्रमश: डोम और कुम्हार जैसे निम्न जाति द्वारा तैयार किया जाता है। इससे यह भी पता चलता है कि भारत में जाति-व्यवस्था उतना ही प्राचीन है जितना कि छठ त्योहार।

छठ त्योहार का आधुनिकीकरण

प्रो. योगेन्द्र सिंह (1932) ने अपनी पुस्तक ‘मॉडर्नाइजेशन ऑफ इंडियन ट्रेडिशन’ में बताया है कि भारतीय परंपराओं का आधुनिकीकरण हुआ है। इस आधुनिकीकरण के प्रभाव से छठ त्योहार में भौतिक पक्ष का मजबूती से समावेश हुआ है। लोग मिट्टी का घड़ा और दीपक के स्थान पर पीतल के घड़ा और दीपक का उपयोग करने लगा है जिसे ऑगबर्न ने ‘भौतिक संस्कृति’ कहा है। मैंने पाया है कि अर्घ्य के दौरान व्रतधारी व्यक्ति पानी में सूर्य नमस्कार के बजाय फोटोग्राफी पर विशेष ध्यान केंद्रित करने लगे हैं। छठ पर्व में दिखावापन विशेष बढ़ गया है तथा पूजा-पाठ का समय भी सीमित हो चुका है। इस प्रकरण को समाजशास्त्री एम. एन. श्रीनिवास (1916) ने ‘लौकिकीकरण’ कहा है। हालाँकि इस संक्षेप बदलाव के परिणामस्वरूप छठ त्योहार की प्रकृति, संरचना और प्रकार्यात्मक पहलू आज भी बहुत सशक्त है। यही कारण है कि सोशल मिडिया के दौर में छठ त्योहार लघु परंपरा से वृहद परंपरा की ओर अग्रसर है।

निष्कर्ष एवं सुझाव

छठ त्योहार भारतीय परंपरा के अग्रदूत में से एक है। यह त्योहार प्राचीन भारतीय मूल्य एवं प्रतिमान को ज्ञान मीमांसा के के रूप में गति दे रही है। आज पूरे विश्व ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ने से पर्यावरणीय संकट के दौर से गुजर रहा है। ऐसे में छठ जैसे त्योहार पर्यावरण के अनुकूल है जो पर्यावरण संरक्षण की वकालत भी करता है। हालाँकि जिस गंगा में छठ पर्व मनाया जाता है उसकी स्थिति अक्सर गंध से लिप्त रहता है। यद्यपि आधुनिकीकरण का प्रभाव बढ़ रहा है ऐसे में छठ त्योहार में आतिशबाजी प्रदूषण को बढ़ावा देती है। चूँकि छठ त्योहार आनंद और भावनाओं का भी त्योहार है। अत: हमें एक विशिष्ट सिद्धांत की आवश्यकता है जो भारत जैसे विविधतायुक्त समाज में विद्यमान छठ त्योहार का वास्तविकता से अध्ययन कर सकें।


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