‘राष्ट्र के नाम’ संदेश बनाम ‘राष्ट्र का’ संदेश

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स्क्रोल से साभार

— श्रवण गर्ग —

नता अपने प्रधानमंत्री से यह कहने का साहस नहीं जुटा पा रही है कि उसे उनसे भय लगता है। जनता उनसे उनके ‘मन की बात’, ‘उनके राष्ट्र के नाम संदेश’, चुनावी सभाओं में दिए जाने वाले जोशीले भाषण सब कुछ धैर्यपूर्वक सुन लेती है पर अपने दिल की बात उनके साथ साझा करने का साहस नहीं जुटा पाती है। प्रधानमंत्री को जनता की यह सच्चाई कभी बताई ही नहीं गई होगी। संभव यह भी है कि प्रधानमंत्री ने ऐसा कुछ पता करने की कोई इच्छा भी कभी यह समझते हुए नहीं जाहिर की होगी कि जो लोग उनके इर्द-गिर्द बने रहते हैं वे सच्चाई बताने के लिए हैं ही नहीं।

प्रजातांत्रिक मुल्कों के शासनाध्यक्षों को आमतौर पर इस बात से काफी फर्क पड़ता है कि लोग उन्हें हकीकत में कितना चाहते हैं! वे अपने आपको लोगों के बीच चहाने के चोचले या टोटके भी आजमाते रहते हैं। मसलन, अमरीकी जनता को व्हाइट हाउस के लॉन पर अठखेलियाँ करते राष्ट्रपति के श्वान के नाम, उम्र और उसकी नस्ल की जानकारी भी होगी। शासनाध्यक्ष यह पता करवाते रहते हैं कि लोग उन्हें लेकर आपस में, घरों में, पार्टियां शुरू होने के पहले और उनके बाद क्या बात करते होंगे! यह बात तानाशाही मुल्कों के लिए लागू नहीं होती, जहां किसी वर्ग विशेष के व्यक्ति के हल्के से मुस्कुरा लेने भर को भी सत्ता के खिलाफ साजिश के तौर पर देखा जाता है।

पुराने जमाने की कहानियों में उल्लेख मिलता है कि राजा स्वयं फकीर का वेष बदलकर देर शाम या अँधेरे में अपनी प्रजा के बीच घूमने निकल जाता था और उसके बीच अपने ही शासन की आलोचना करते हुए डायरेक्ट फीडबैक लेता था कि उसकी लोकप्रियता किस मुकाम पर है। वह इस काम में किसी पेड एजेन्सी  या पेड न्यूज वालों की मदद नहीं लेता था। हमारी जानकारी में क्या कभी ऐसा हुआ होगा कि प्रधानमंत्री ने अपने ‘डाई हार्ड’ समर्थकों के अलावा देश की बाकी जनता से यह पता करने की कोशिश की होगी कि वह उन्हें दिल और दिमाग दोनों से कितना चाहती है या कितना खौफ खाती है ?

आपातकाल लागू होने के बाद ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई थी कि लोग आपस में बात करते हुए भी इस चीज का ध्यान रखते थे कि आसपास कोई दीवार तो नहीं है। भ्रष्टाचार का रेट भी ‘दूर दृष्टि’ और ‘कड़े अनुशासन’ के बीस-सूत्री कार्यक्रमों के रिस्क के चलते काफी बढ़ गया था। पर जनता पार्टी शासन के अल्प-कालीन असफल प्रयोग के बाद जब इंदिरा गांधी  फिर से सत्ता में आईं तब तक उन्होंने अपने आपको काफी बदल लिया था। उनके निधन के बाद किसी ने यह नहीं कहा कि देश को एक तानाशाह से मुक्ति मिल गई। ऐसा होता तो सहानुभूति लहर के बावजूद ‘परिवार’ के एक और प्रतिनिधि राजीव गांधी इतने बड़े समर्थन के साथ सत्ता में नहीं आ पाते। अटल जी का तो जनता के दिलों पर राज करने का सौंदर्य ही अलग था।

नायक कई मर्तबा यह समझने की गलती कर बैठते हैं कि जनता तो उन्हें खूब चाहती है, सिर्फ मुट्ठी भर लोग ही उनके खिलाफ षड्यंत्र में लगे रहते हैं यानी शासक के हरेक फैसले में सिर्फ नुस्ख ही तलाशते रहते हैं।

अगर यही सही होता तो दुनिया भर में सिर्फ़ एक ही व्यक्ति, एक ही परिवार या एक ही पार्टी की हुकूमतें राजघरानों की तर्ज पर चलती रहतीं। ऐसा होता नहीं है। नायक गलतफहमी के शिकार हो जाते हैं और वर्तमान को ही भविष्य भी मान बैठते हैं।

सात जून की दोपहर जैसे ही प्रधानमंत्री कार्यालय से जारी ट्वीट के जरिए लोगों को जानकारी मिली कि मोदी शाम पाँच बजे राष्ट्र को संबोधित करेंगे तो (चैनलों को छोड़कर) जनता के मन में कई तरह के सवाल उठने लगे। मसलन, प्रधानमंत्री कोरोना की पहली लहर के बाद जनता द्वारा बरती गई कोताही और उसके कारण मची दूसरी लहर की तबाही के परिप्रेक्ष्य में संभावित तीसरी लहर के प्रतिबंधों पर तो कुछ नहीं बोलने वाले हैं? या फिर मौतों के आँकड़ों को लेकर चल रहे विवाद पर तो कोई नई जानकारी नहीं देंगे? या फिर क्या वे इस बात का जिक्र करेंगे कि दूसरी लहर के दौरान समूचा सिस्टम कोलेप्स कर गया था और लोगों को इतनी परेशानियाँ झेलनी पड़ीं।

संबोधन में ऐसा कुछ भी व्यक्त नहीं हुआ। कुछ सुनने वालों ने राहत की साँस ली और ज्यादातर निराश हुए। प्रधानमंत्री को शायद सलाह दी गई होगी कि दूसरी लहर उतार पर है और अब उन्हें अपनी अर्जित लोकप्रियता की लहर पर सवार होकर जनता की नब्ज टटोलने के लिए उससे मुखातिब हो जाना चाहिए।

पीएमओ को किसी निष्पक्ष एजेन्सी की मदद से सर्वेक्षण करवाकर उसके आँकड़े प्रधानमंत्री, पार्टी और संघ को सौंपने चाहिए कि संबोधनों में उनके बोले जाने का असर जनता के सुने जाने पर कितना और किस तरह का पड़ रहा है?

प्रधानमंत्री ने अपने सात जून के संबोधन में केवल इस बात का जिक्र किया कि 2014 (उनके सत्ता में आने के साल) के बाद से देश में टीकाकरण कवरेज साठ प्रतिशत से बढ़कर नब्बे प्रतिशत हो गया है। उन्होंने यह नहीं बताया कि जनता में उनके प्रति भय अथवा नाराजगी का कवरेज क्षेत्र भी उसी अनुपात में सात सालों में और बढ़ा है या कम हो गया है। समय  बीतने के साथ ऐसा हो रहा है कि प्रधानमंत्री के मंच और और जनता के बैठने के बीच की दूरी लगातार बढ़ती जा रही है। दोनों ही एक-दूसरे के चेहरे के ‘भावों’ को नहीं पढ़ पा रहे हैं। अपार भीड़ की ‘अभाव’पूर्ण उपस्थिति ऐसी खुशफहमी में डाल देती है जो परिणामों में गलतफहमी साबित हो जाती है। बंगाल में ऐसा ही हुआ। एक ‘अलोकप्रिय’ मुख्यमंत्री एक ‘लोकप्रिय’ प्रधानमंत्री को चुनौती देते हुए फिर सत्ता पर काबिज हो गई।

प्रधानमंत्री को सरकार की उपलब्धियाँ गिनाने, मुफ्त के टीके और अस्सी करोड़ लोगों को दीपावली तक मुफ्त का अनाज देने की बात करने के बजाय मरहम बाँटने का काम करना चाहिए था। जितने लोगों की जानें जानी थीं, जा चुकी हैं। अब जो हैं उन्हें कुछ और चाहिए। प्रधानमंत्री से इस बात का जिक्र छूट जाता है कि जनता उनसे क्या अपेक्षा रखती है जिसे कि वे पूरी नहीं कर पा रहे हैं। जब वे कहते हैं कि इतनी बड़ी त्रासदी पिछले सौ सालों में नहीं देखी गई तो लोगों की उम्मीदें भी अब वैसी ही हैं जो सौ सालों में प्रकट नहीं हुईं। और उसे समझने के लिए यह जानना पड़ेगा कि उनका 2014 का मतदाता 2021 में उनके संबोधन को टीवी के पर्दे के सामने किसी अज्ञात आशंका के साथ क्यों सुनता है?

अंत में : अंग्रेजी अखबार ‘द टेलिग्राफ’ ने लिखा है कि प्रधानमंत्री ने अपने बत्तीस मिनट के संबोधन में कोई छब्बीस सौ शब्दों का इस्तेमाल किया पर देश की उस सर्वोच्च अदालत के बारे में उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा जिसे कि जनता अपने लिए मुफ्त टीके का श्रेय देना चाहती है!

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