— केशव शरण —
कभी हिंदी कविता में एक वाम शिविर हुआ करता था। बनारस में उस शिविर के तीन विशिष्ट कवि थे। धूमिल और गोरख पाण्डेय, तथा इनके बीच की कड़ी राजशेखर। मूर्धन्य समालोचक नामवर जी की कृपा सिर्फ धूमिल पर बरसी। धूमिल का निधन आपातकाल के दौरान हुआ था। सोवियत संघ के विघटन के बाद गोरख पाण्डेय ने आत्महत्या कर ली जो धूमिल से उम्र में काफी छोटे थे।
राजशेखर जी साम्यवादी तो थे पर किसी लेखक संघ के सदस्य या पदाधिकारी नहीं बने। वे साम्यवाद के पथ पर अपने ढंग से एकला चलते रहे। वे धूमिल और गोरख पाण्डेय दोनों से जुड़े थे और दोनों के साथ समय बिताया था। राजशेखर जी की कविता भी इन दोनों के बीच की कविता है, जहाँ तक मैं समझता हूँ।
बनारस के बाहर के लोग राजशेखर जी को उनकी कविता से ज्यादा धूमिल के दूसरे संग्रह ‘कल सुनना मुझे’ के संपादन और उसपर उनके संपाददकीय के लिए जानते हैं। इस कृति पर धूमिल को मरणोपरांत साहित्य अकादेमी पुरस्कार प्राप्त हुआ। धूमिल के इस संग्रह की प्रस्तावना किसी साम्यवादी समालोचक ने नहीं, विद्यानिवास मिश्र जी ने लिखी थी।
राजशेखर जी कट्टर साम्यवादी थे लेकिन विद्यानिवास मिश्र जी उन्हें चाहते थे। वे उन्हें कहीं काम भी दिलवाना चाहते थे। लेकिन घोर अभावों में संघर्षरत राजशेखर जी तब युवा नहीं रह गये थे, और दूसरे, वे अपने साम्यवादी संकोचवश उनका कार्मिक प्रस्ताव स्वीकार नहीं कर पाए। यूं उद्यम तो कई राजशेखर जी ने किए लेकिन किसी में सफल नहीं हो पाए। साझे का उनका छापाखाना भी बैठ गया जिसमें उनके पार्टनर के साथ उनकी मुकदमेबाजी भी हुई।
‘कहानीकार’ पत्रिका के संपादक और कहानीकार कमल गुप्त ने रोटरी क्लब की तरफ़ से एक टाइपराइटर दिलवाया था जिसे लेकर वे कई साल बनारस कचहरी जाते रहे और कागजात टाइप करते रहे। एक दिन वह टाइपराइटर भी बैठ गया। फिर फ्रीलांसिंग ही चारा रह गया। लेकिन तब तक उनके दो बड़े बेटे कमाने लगे थे और उनपर आर्थिक दबाव कम हुआ। पाँच बेटों और चार बेटियों के पिता राजशेखर जी ने कैसे घर सँभाला, संतानों की परवरिश की, सभी बेटियों की शादी की, सतत और दीर्घ साहित्य-साधना की, एक कमाल ही है। राजशेखर जी से भी ज्यादा इसका श्रेय राजशेखर जी की पत्नी को है।
राजशेखर जी की पत्नी ने, कोई भी परिस्थिति रही हो, राजशेखर जी को कोई तनाव नहीं दिया। वे पति को परमेश्वर समझने वाली महिला थीं। राजशेखर जी को जो तनाव मिला वह घर के बाहर से मिला। और जो कुछ मदद उन्हें मयस्सर हुई वह उनके उस छोटे भाई से मिली जो बहुत पहले से अमरीका जा बसे थे। सात साल पूर्व अपनी पत्नी के निधन के बाद राजशेखर जी टूट गए और उनका लिखना-पढ़ना एकदम-से बंद हो गया।
राजशेखर जी ने ख़ूब लिखा। कविताएँ लिखीं, गीत, ग़ज़ल सानेट लिखे। काव्य-नाटक लिखे। उनके काव्य-नाटक आकाशवाणी से प्रसारित हुए, प्रशंसित हुए। आकाशवाणी की अखिल भारतीय नाट्य प्रतियोगिता में उनके काव्य-नाटकों को पुरस्कार भी मिले। इसके बावजूद बनारस की किसी नाट्य-संस्था ने उनके काव्य-नाटकों को मंचित नहीं किया जबकि उनके काव्य-नाटक मिथक कथाओं और चरित्रों को लेकर थे, बस एक हल्का-सा प्रगतिशील पाठ लिये, जो हमारे समाज के लिए ठीक ही था। अलबत्ता उनके काव्य-नाटकों की भाषा संस्कृतनिष्ठ थी और कथा-तत्त्व उनमें कम रहता था। उनके लिखे चार काव्य-नाटक हैं लेकिन प्रकाशित कोई नहीं हुआ है। उनकी दो ग़ज़लें साप्ताहिक हिंदुस्तान में छपकर खूब प्रशंसा पाई थीं –
बोतलों से ढारकर मुझको अँधेरा
पी रहा है गारकर मुझको अँधेरा
खोलकर चुपचाप अपना द्वार रात
ढूँढ़ती है धुन्ध में आकार रात
उनके जीते-जी उनकी एक ही किताब प्रकाशित हुई थी, ग़ज़लों की किताब ‘बोल लहू में डूबी शाम’ जिसे छपवाने का श्रेय गीतकार और तत्कालीन तहसीलदार ओम धीरज जी को है। शेष सारा लेखन छपने की बाट जोहता रहा। आज भी जोह ही रहा है।
एक दशक से राजशेखर जी साहित्य-समारोहों में नहीं जा रहे थे। लोगों से मिलने के प्रति उदासीन हो गये थे। उनमें कहीं गहरे यह भाव पैठ गया था कि लोगों ने उनकी उपेक्षा की है, तिरस्कार किया है। यह सही भी था। उनकी कृतियों का अप्रकाशित रह जाना, सरकार की ओर से पेंशन की व्यवस्था न हो पाना, कठिनाइयों के वक्त लोगों के मुँह फेर लेने के अनुभव, जब वे कहीं आने-जाने लायक नहीं रह गए तब किसी का उनके पास जाकर उनका हालचाल न लेना, ये कुछ ऐसे घाव थे जो उनके लिए बहुत पीड़ाजनक थे।
राजशेखर जी के अकेले पड़ते जाने के पीछे उनका स्वभाव भी एक कारण था। वे एक विचार-कट्टर व्यक्ति थे और उग्र स्वभाव का होने के कारण किसी की ग़लत बात बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। उनको आप कैसे झेलते हैं एक मुहावरा बन गया था।
ऐसे अनेक उदाहरण हैं कि जब राजशेखर जी को गलत समझा गया और उनके साथ गलत व्यवहार किया गया।
अक्सर लोग मुझसे पूछते थे कि राजशेखर जी का क्या हालचाल है। कारण कि वे बनारस में उसी मुहल्ले के थे, जिस मुहल्ले (सिकरौल) का मैं हूँ। हाईस्कूल पास करते-करते मैं कविताएँ लिखने लगा था। ग्यारहवीं पास किया तो जनकवि गणेश प्रसाद सिंह ‘मानव’ के घर आयोजित होनेवाली गोष्ठी में काव्य पाठ करने लगा। वहाँ लोग मुझसे पूछने लगे,राजशेखर जी को जानते हो, बहुत बड़े कवि हैं और तुम्हारे ही मुहल्ले सिकरौल में रहते हैं। मानव जी की गोष्ठी में वे भी जाते थे लेकिन उस समय कई हफ्तों से वे वहाँ नहीं गए थे। मैंने सिकरौल में पता किया यहाँ कवि राजशेखर जी कहाँ रहते हैं। कोई नहीं बता पाया।
संयोग से एक दिन मैं घर आ रहा था। मुख्य सड़क से गाँव या मुहल्ले के मोड़ पर दो आदमी बतिया रहे थे जिनमें एक गोरे-चिट्टे, नाटे क़द के व्यक्ति थे जिनकी उम्र पचास के आसपास रही होगी। उनकी बातचीत में मुझे एक शब्द सुनाई दिया- कविता। यह शब्द सुनकर मैं वहाँ रुक गया और इंतजार करने लगा, दोनों के अलग होने का। कुछ देर बाद उन्होंने एक-दूसरे को विदा किया। गोरे-चिट्टे व्यक्ति ने गाँव में प्रवेश किया। मैं समझ गया यही राजशेखर जी होंगे और अगर ये नहीं हुए तो भी ये राजशेखर जी को जानते होंगे और उनका पता बता देंगे। उनके पीछे-पीछे चलता हुआ मैं उनके पास पहुँचा। उन्हें प्रणाम किया और पूछा, क्या आप राजशेखर जी को जानते हैं? उन्होंने बताया कि वे ही राजशेखर हैं, बताओ क्या काम है?
मैंने बताया कि मैं कविता लिखने का अभ्यास कर रहा हूँ। मानव जी की गोष्ठी में मुझे बताया गया था कि राजशेखर जी एक बड़े कवि हैं और सिकरौल में ही रहते हैं, तुम उनसे मिलो। तभी से मैं आपसे मिलना चाहता था। उन्होंने पूछा, किसके घर के हो। मैंने बताया कि मैं शिवव्रत जी का बेटा हूँ। हालाँकि, मेरे पिताजी छह साल पहले गुज़र चुके थे। फिर वे जान गये मेरे दादा और ताऊ जी कौन हैं। बाद में उन्होंने बताया कि वे और मेरे ताऊ जी सहपाठी थे और तुम्हारे पिता कनिष्ठ थे और हम तीनों पिसनहरिया मिडिल स्कूल में एक साथ पढ़ने जाते थे। वे मुझे अपने घर ले गये और चाय पी-पिलाई।
सिकरौल गाँव में मेरे पिता और ताऊ के अलावा उनके दोस्तों में एक निषादराज यादव भी थे जो सिकरौल गाँव के नगर महापालिका में शामिल होने के बाद पहले सभासद बने थे लेकिन उसके बाद वे अचानक गायब हो गए और उनका कभी पता नहीं चला। निषादराज यादव बहुत पढ़ाकू थे। साहित्य के प्रति अभिरुचि उनके कारण ही राजशेखर जी में जगी।
राजशेखर जी बताते थे कि निषादराज यादव ने मुंशी प्रेमचंद के प्रेस में भी काम किया था। ज्ञातव्य है कि प्रेमचंद का प्रेस उनकी मृत्यु के बाद भी बरसों बनारस में चलता रहा। राजशेखर जी के साथ अपने या उनके घर में बैठने से ज्यादा घूमने में मजा आता था। ऐसे में राजशेखर जी संस्मरणजीवी हो जाते थे, तब उनकी तल्खियाँ कम हो जाती थीं। अपने इलाके की गलियों से होते हुए जब हम वरुणा नदी की ओर जा रहे होते तो खुशी से वे चहक उठते कि यार केशव! तुम तो मुझे मेरे बचपन में ले आते हो। वे वनस्पतियों के औषधीय गुणों और पशु-पंछियों की विशेषताओं का वर्णन करते चलते।
राजशेखर जी का जन्म 9 अगस्त 1933 को सिकरौल गाँव, वाराणसी में हुआ था। उनके पिताजी पश्चिम बंगाल में भवन-निर्माण के विशेषज्ञ और ठेकेदार थे। उनका हाथ बँटाने 1955 में वे पश्चिम बंगाल चले गये। नक्सल आंदोलन में धर-पकड़ से बचने के लिए वे बनारस आ गए और फ्रीलांसिंग करने लगे। अनेक सृजनात्मक विधाओं में लेखन के साथ वे अखबारों में लेख और कॅालम भी लिखते रहे। बाल साहित्य भी लिखा। बीच में जब उनका मन होता, चित्र भी बनाते। उनका लिखा मन को भावांदोलित करता था तो उनके बनाये चित्र आँखों को बाँधते थे।
उनके विपुल लेखन और चित्रण का संचयन लगता है एक सपना ही है क्योंकि वे अकादमिक दुनिया से जुड़े नहीं थे। वे लोगों के बीच लोगों के कवि थे। धूमिल और गोरख पाण्डेय से जुड़ा होना उनके लिए प्रीतिकर था तो त्रिलोचन शास्त्री के सान्निध्य का आह्लादक अनुभव था। त्रिलोचन शास्त्री के साथ रहते और घूमते-फिरते वे भी सॉनेट लिखने लगे। हिन्दी में सॉनेट के कवि के रूप में त्रिलोचन जी के बाद राजशेखर भी एक शिखर हैं।
कभी कमलेश्वर ने एक पत्रिका निकाली थी ‘कथायात्रा’ नाम से। उसमें उन्होंने राजशेखर जी के तीन सॉनेट छापे थे। इसके दूसरे अंक में क़तील शिफ़ाई का एक इंटरव्यू छपा था जिसमें क़तील साहब ने राजशेखर जी के उन सॉनेटों की काफी तारीफ की थी।
राजशेखर जी के सॉनेट से परिचय के लिए उनका एक सॉनेट पढ़ते चलें जिसे उन्होंने अपने कवि मित्र मिलिन्द काश्यप को याद करते हुए लिखा था। उन्होंने इसका शीर्षक दिया है- मिलिन्द काश्यप से एक वार्ता :
तुम्हें याद है निर्वासन की वे यात्राएँ
पुलिस ज़ुल्म की वह त्रासद ग़मनाक कहानी
सहमे देख रहे थे जिसे छात्र-छात्राएँ
बाहर हम कर दिए गए थे घर से बेमानी
ख़ूब याद है मुझे टूटते कैसे पंजर
भाड़े के मकान में रहकर जाना
बदल गए होते उपवन में कितने बंजर
जितना हमें पड़ा है अपना ख़ून बहाना
अर्थहीन लेखक का साथ कौन देता है
किन्तु लालफीताशाही के इस निज़ाम में
दिन यदि काले हों तो हाथ कौन देता है
फ़र्क़ नहीं होता कुछ अध्यापक ग़ुलाम में
पीड़ित हो तुम! पीड़ित का स्वर बूझ रहे हो
मेरे साथ मित्र तुम भी तो जूझ रहे हो
राजशेखर जी की कविता उस संत्रास की कविता है जो घर की दहलीज़ से लेकर विश्व के छोर तक फैला है। इसके विभिन्न अनुभवों व रूपों को उन्होंने टकराने के अंदाज में बाँधा है। उनकी एक अलग काव्यशैली और भाषा है। कहाँ तक कितने उद्धरण दिए जाएँ! परिचयात्मक सुविधा की दृष्टि से उनकी एक छोटी-सी कविता दे रहा हूँ जो उनकी पूरी कविता का अक्स है, ऐसा हम कह सकते हैं। कविता का शीर्षक है ‘सौगंध’-
आततायी के हाथों/ पिटा हुआ आदमी/ प्रत्याक्रमण से पलटकर/ यदि बर्बर के ख़िलाफ़/ मुट्ठी बाँधकर खड़ा हो जाता है/ तो मेरी कविताओ !/ ज़ख़्म से रिसते/ ताज़े लहू की सौगंध है तुम्हें/ आख़िरी साँस तक तुम/ उसका साथ मत छोड़ना !
राजशेखर जी कविताएँ जीवन में अत्यधिक संघर्षरत एक रेडिकल कम्युनिस्ट की कविताएँ हैं।
एक साल बिस्तर पर रहने के बाद वे 25 जनवरी 2021 को दुनिया छोड़ गए। फेसबुक, व्हाट्सऐप और समाचारपत्रों में उनके निधन की सूचना प्रसारित होने के बाद भी उनकी शवयात्रा में शामिल साहित्यकारों की संख्या अफसोसनाक रूप से कम थी। तेरहवीं पर लोग जरूर जुटे और एक संतोषजनक श्रद्धांजलि सभा हुई, राजशेखर जी के कई फोटो के एक बड़े पोस्टर और लम्बी-चौड़ी मेज पर उनकी दस-बारह किताबों के साथ। दरअसल, वे किताबें नहीं उनकी टंकित पांडुलिपियाँ थीं जिन पर कवर डिजाइन करके डाल दिया गया था। यह कमाल उनके सुपुत्र धनंजय कुमार का था। धनंजय कुमार ने बताया कि इनके अलावा भी कई पांडुलिपियाँ हैं जिन्हें वे अपने हाथों टंकित करके सुरक्षित रखे हैं। राजशेखर जी की सुरक्षित पांडुलिपियाँ प्रकाशित हों, आइए हम सब प्रार्थना करें!
हिंदी की जनवादी कविता को इंक़लाबी जड़ों तक पहुंचाने में धूमिल और गोरख पांडेय बड़े नाम हैं। लेकिन कम लोग जानते हैं कि बनारस के जनकवि राजशेखर इन दोनों के बीच कला और विचार सेतु हैं।उनके अंतिम दिन गुमनामी के रहे।लेखक,पाठक और प्रकाशक तीनों का उनके प्रति सौतेला व्यवहार रहा।मेरे बनारस आने के बाद कवि रामेश्वर त्रिपाठी और साहित्यसेवी वाचस्पति लगातार मुझे उनकी जानकारी देते रहे।कुछ वर्षों पहले वे गुमनाम ही चले गए।मुझे अफसोस है कि मैं उनसे नहीं मिल पाया।हालांकि 2014 में मुझे पूरा अंदाजा था कि भारत में कारपोरेट फासीवाद आ रहा है।बनारस और बेगूसराय में दो गोष्ठियां करवायीं।बेगूसराय में प्रतिबिम्ब के बैनर तले और बनारस में तानाबाना के बैनर तले।बनारस के 41 कवियों की साम्प्रदायिकता विरोधी कविताओं की पुस्तक सम्पादित की।’कबीर से उत्तर कबीर’ किताब में मैंने राजशेखर की रचनाओं को मंगाकर छापा।तब महसूस हुआ कि उनकी कविताएं आग की सावनी नदी है।हिंदी में वे पाश,धूमिल,आलोकधन्वा,माहेश्वर, गोरख के धरातलों से जुड़नेवाले कवि हैं।जैसे भुवनेश्वर गुमनाम रहे वैसे ही राजशेखर।उनपर यह जरूरी लेख पढ़िए और हो सके तो उनकी कविताओं को खोजकर उनका भी आस्वाद लीजिए।नई पीढ़ी उनसे सीख सकती है।