(देश में इस वक्त जो हालात हैं और जो राजनीतिक-सामाजिक चुनौतियां दरपेश हैं उनके मद्देनजर सभी संजीदा एवं संवेदनशील लोग हिंदुओं और मुसलमानों के बीच अविश्वास की खाई पाटने तथा सौहार्द का रिश्ता मजबूत व जनव्यापी बनाने की जरूरत शिद्दत से महसूस करते हैं। इस तकाजे की एक समझ और दृष्टि बने, इस मकसद से डॉ राममनोहर लोहिया का 3 अक्टूबर 1963 को हैदराबाद में दिया गया भाषण बहुत मौजूं है। यह भाषण ‘हिंदू और मुसलमान’ शीर्षक से छपता रहा है। हमने इसे आईटीएम यूनिवर्सिटी, ग्वालियर से प्रकाशित पुस्तिका से लिया है, जिसमें लोहिया का एक और प्रसिद्ध प्रतिपादन ‘हिंदू बनाम हिंदू’ भी संकलित है।)
जिस तरह मैंने हिंदू मन के बदलाव की बात कही, उसी तरह मुसलमान मन के बदलाव की बात करता हूं। जहां कहीं मैंने अंग्रेजी हटाने की बात कही, जो मुसलमान बहुत दिनों से साथ रह रहे हैं वे तो समझ लेते हैं, वरना दूसरों का माथा उसी दम ठनक जाता है कि यह क्या कह रहा है, यह तो हिंदी लादना चाहता है। कितना शक है मुसलमान के दिमाग में। मैं तो कह रहा हूं अंग्रेजी खत्म करो। मैं कहां कह रहा हूं कि हिंदी लादो। मैं तो अंग्रेजी खत्म करने की बात कह रहा हूं ताकि वह जबान जो 50 लाख बड़े लोगों की है, हमारे ऊपर लदी न रहे, हम करोड़ों लोगों को राहत मिले, हम अपनी सरकार का कामकाज अपनी भाषा में चला सकें। जिस भाषा को मैं लाना चाहता हूं वह तो मातृभाषा है। हिंदी से उसका ताल्लुक है ही नहीं। तमिलनाडु में अपनी तमिल लाओ बंगाल में बंगला।
सच पूछो तो इस वक्त मेरे बारे में बहुत जोरों से, गलत ढंग से भी अखबारों ने गंदा प्रचार किया है कि जैसे मैं हिंदी लादना चाहता हूं। यह बिलकुल झूठी बात है।
सब भाषाओं के प्रांत बने, इसके लिए लोगों ने बड़ा हल्ला मचाया, मराठों ने मराठी के लिए हजारों की तादाद में अपनी जान दी लेकिन जब महाराष्ट्र बन गया तब मराठी बेचारी अलग रह गई। मुझे तो सदमा इस बात का है। वहां अभी भी अंग्रेजी रानी राज कर रही हैं। तमिलनाडु में भी यही अंग्रेजी रानी राज कर रही हैं। आंध्र प्रदेश में भी अंग्रेजी रानी राज कर रही हैं। मैंने तो उसी संबंध में कहा कि इन अंग्रेजी रानी को हटाओ, अपनी-अपनी भाषाओं को लाओ।
लेकिन लोगों को डर लगता है कि जब अपनी-अपनी मातृभाषाएं आएंगी तो दिल्ली में हिंदुस्तानी आ जाएगी। इसका मेरे पास क्या इलाज है? आप चाहो तो मैं इसके लिए तैयार हूं हिंदी रानी न आए। अगर मान लो गैर-हिंदी इलाके के लोग किसी एक भाषा पर राजी हो जाते हैं, तमिल या बंगला पर, तो मैं इस बात का ठेका लेता हूं कि हिंदी इलाके के 20-22 करोड़ आदमियों को राजी कर लूंगा कि दिल्ली की भाषा तमिल बने या बंगाली बने।
खैर, इस बात को अभी आप छोड़ो। मुसलमानों वाली बात लो कि हिंदुस्तानी और हिंदी की बात होती है तो झट से उसके मन में शक हो जाता है। मुसलमान को समझना चाहिए कौन आदमी है, लेकिन फिर भी शक हो जाता है कि यह तो हिंदी लादना चाहता है। जो जबान मैं बोल रहा हूं वह आखिर क्या है? मेरा तो ऐसा खयाल है कि अगर फिर से यह देश एक हुआ तो उसका भाषा यही होगी जो मैं इस वक्त बोल रहा हूं, जो चालू भाषा है अपभ्रंश से निकली है।
वैसे, वह लंबा-चौड़ा किस्सा है। इतना ही मैं आपको दूं कि यह सही है कि वह पाली और संस्कृत की औलाद है लेकिन वह अपभ्रंश वाली, जो जनता में टूट-टाट गई। अपभ्रंश में तो फारसी के भी शब्द आ जाते हैं, अरबी के भी आ जाते हैं। मिलाजुला कर कोई चीज बनी है, लेकिन खाली इसलिए नहीं कि मुझको फारसी या अरबी का इस्तेमाल करना है। दिखाना नहीं चाहूंगा, मुसलमान को खुश करने के लिए अपनी बात नहीं बदलूंगा। जो चालू भाषा है, ताकतवर भाषा है, उसमें लोग अपने ईमान और जान का एक ठोस भाषा में इस्तेमाल करते हैं। उसी से देश को बनाना है। और इसी पर मुसलमान शक करता है तो मैं कहता हूं कि उसके दिमाग में कितना कूड़ा भर दिया गया है यह क्या सोचना है।
फिर बात उठ जाती है कि किस लिपि में, लिखावट में, यह भाषा लिखी जाए। मुझे आज इस सवाल से मतलब नहीं। लेकिन मान लो कोई आदमी यह प्रस्ताव रखता है कि हिंदुस्तान की जितनी भाषाएं हैं सब नागरी में लिखी जाएं तो पहली बात तो यह कि नागरी के मानी हिंदी नहीं होते। यह गलती कभी मत कर बैठना। नागरी तो एक लिखावट है जो हिंदुस्तान में सभी भाषाओं के लिए चला करती थी, किसी न किसी रूप में ब्राह्मी।
अब भी जितनी भी लिखावटें हैं, तेलुगु, तमिल इत्यादि ये सब एक ही चीज के रूप हैं। अगर कोई ऐसी बात कहता है तो फिर उसको बड़े ध्यान से और प्रेम से सुनना चाहिए। उससे घबराना नहीं चाहिए।
असल में, आज हिंदू और मुसलमान दोनों का मन वोट के राज ने बिगाड़ दिया है। चुनाव के मौके पर जाते हैं, और मौकों पर जाते नहीं। सभाएं भी नहीं करते और वोट मांगते हैं। वोट मांगने वाले हमेशा इस बात का खयाल रखते हैं कि कोई ऐसी चीज न कह दें कि सुनने वाला नाराज हो जाए। नतीजा होता है कि हिंदुस्तान में जितनी भी पार्टियां हैं, वे हिंदू-मुसलमान को बदलने की बात बिल्कुल नहीं कहतीं।
मन में जो पुराना कूड़ा पड़ा हुआ है, जो गलतफहमी है, जो भ्रम है, उन्हीं को तसल्ली दे-दिला कर वोट ले लेना चाहते हैं। यह है आज हमारे राजनैतिक जीवन की सबसे बड़ी खराबी कि हम लोग वोट के राज में, नेता लोग खासतौर से, सच्ची बात कहने से घबरा जाते हैं। इसका नतीजा है कि हिंदू और मुसलमान दोनों का मन खराब रह जाता है, बदल नहीं पाता।
इसमें तो सुधार होना चाहिए। साफ-सी बात है कि मुसलमान जैसी चीज नहीं रहनी चाहिए राजनीति में। टूट जाना चाहिए। जैसे हिंदू टूटते हैं अलग-अलग पार्टियों में, वैसे मुसलमानों को भी टूटना चाहीए। लेकिन यह बात कुछ मानी हुई-सी है कि मुसलमान जाएगा तो एकसाथ जाएगा। हमेशा वह कोई न कोई इत्तेहाद बनाएगा। पहले कोई रहा है वह इत्तेहादुल मुसलमीन था, रजाकार, फिर अभी भी इत्तेहाद। हमेशा एक टुकड़ी बनकर, सबके सब मुसलमान, जहां तक बन सके एक टुकड़ी में चले हैं। यह बात तो ठीक नहीं। इसका नतीजा तो यह भी हो सकता है कि हिंदू लोग सबके सब एक टुकड़ी में चलने लगें।
अपने ईमान से जो सही सियासत हो, उसको पकड़कर चलो। अगर आज हैदराबाद में हिंदू और मुसलमान हजारों की बल्कि अगर लाखों की कहूं तो ज्यादा न होगा, तादाद में मिलकर इस चीज के लिए आगे बढ़ते हैं और शहर में दो-चार मील लंबे जुलूस निकालते हैं तो न सिर्फ आंध्र प्रदेश में बल्कि सारे हिंदुस्तान में बिजली दौड़ जाएगी कि यह क्या चीज हो रही है कि हिंदू-मुसलमान दोनों मिल करके किसी चीज को ले रहे हैं।
वह मेल तब हो सकता है जब लोग हिंदू और मुसलमान की हैसियत से इकट्ठा नहीं होंगे बल्कि अपनी नजर से कि हमको कौन-सी राजनीति करनी है, उसको लेकर इकट्ठा हों।
इसमें थोड़ी-सी दिक्कत यह हो जाती है कि 90 सैकड़ा काम तो अपना सबका एक होता है? जैसे चीनी का दाम कितना है? यह तो एक ऐसा सवाल है जिससे न हिंदू का मतलब, न मुसलमान का मतलब। मोटे कपड़े का दाम कितना है, किरोसीन तेल का दाम कितना, मजदूरी कितनी मिल रही है, हिंदुस्तान में जो खेती-कारखाने की पैदावार में बढ़ती होती है वह किसके यहां जाती है? ये सब सवाल तो हिंदू-मुसलमान दोनों के एक से हैं। जैसे मैंने यह सवाल उठाया कि हिंदुस्तान में एक तो बढ़ती हो ही नहीं रही है, दो वर्ष से बिलकुल बंद है। दो वर्ष पहले होती थी तो दो नया पैसा हर आदमी रोज के हिसाब से होती थी, औसत। और वह दो नया पैसा भी 44 करोड़ को नहीं मिलता था, वह ज्यादातर मिल जाता था 50 लाख बड़े लोगों को और चौथाई या आधा पैसा बचता था मिल जाता था, 5-10 करोड़ के बीच के लोगों को। 27 करोड़ को तो कुछ मिलता ही नहीं था जो तीन आने रोज पर जिंदगी चलाते हैं।
यह बात हिंदू-मुसलमान दोनों के लिए लागू है और हरिजन और दूसरे अल्पसंख्यक देखें तो उनके लिए और ज्यादा लागू है। यहां तो कोई फर्क नहीं पड़ता। चीजों के दाम, सरकारी नौकर कितनी तादाद में हैं, टैक्स कैसे लगता है, पुलिस का महकमा किस ढंग से चलता है, पुलिस का और जनता का आपस में व्यवहार कैसा है, ये जिंदगी के 90 सैकड़ा मामले ऐसे हैं कि कोई मतलब नहीं कि कौन हिंदू है कौन मुसलमान। लेकिन वे 10 सैकड़ा मामले हैं जो गड़बड़ कर दिया करते हैं। पहले भी इन्हीं ने गड़बड़ किया और अब भी वे ही गड़बड़ करते हैं कि किसको नौकरी मिलती है; बड़ी नौकरी, छोटी नौकरी नहीं, हाजरी नौकरी किसको मिलती है, और मध्यम वर्ग के पढ़े-लिखे लोगों का सवाल आ जाता है। इसी तरह से कुछ और हैं कि किसके सबब से मन खट्टे हो जाते हैं। इसलिए मैं यही कहना चाहूंगा कि 90 सैकड़ा मामले को ठीक कर लो तो सब ठीक हो जाएगा। इन 10 सैकड़ा मामले को नजरअंदाज कर देने से रगड़ चलती रह जाएगी, इसलिए इन मामलों को ठीक करना जरूरी है। लेकिन इनके लिए सोच-समझ करके कौन-सी सियासत ठीक है, उसको पकड़ना चाहिए।
(अगली किस्त कल )