स्मृति आत्म-द्वीप का खुला आकाश है
एक
घनी पत्तियों से ढँकी
स्मृति
अर्घ्य देते सूर्य के बिम्ब में
सूख जाती है।
दो
शब्दों की वेशभूषा
ढाँप लेती है
रक्षा कवच
रंगों से उड़ते रंग
उड़ते रहते हैं रंगों में
हवा के झरोखे में
आख्यान
विन्यास रचते हैं
स्मृति के पैर
काई जमे पत्थरों से
फिसल जाते हैं।
तीन
गोद से गिरते-गिरते बच्चे को बचाते
छूटते दर्पण को सँभालते-सँभालते
आख़िर
गिरकर-टूटकर बिखर जाता है
किरच-किरच में
समा जाती है
स्मृति की बिखरती छवियाँ।
चार
गोद में लिया बच्चा
किलकारी-संगीत लिये
दूसरी गोद की आतुरता में
आलोड़ित होता
उछलता है
लरजती
स्मृति प्रक्षालित होती
अपने निकुंज में लौट आती है।
पाँच
बादलों के घूँघट हटाती
शुभ्रता
जल-प्रवाह में झिलमिलाती है
तरंगों की बौछारें
फुरफुराती
शान्त मौन में ठहर जाती हैं
स्मृति
फुहारों के अन्तर्मन का आचमन है।

छह
कितनी ही बार
स्मृति का विकल सन्नाटा
ख़ामोशी में थरथराता
अंधकार में
रूपांतरित हो जाता है
स्मृति
मूर्त-अमूर्त की
अलौकिक कल्पनाओं का
अनुष्ठान है।
सात
शब्द के कमजोर हाथों से
छूटकर
अर्थ अरण्य हो जाता है
स्मृति
आभ्यंतर शरण-स्थली है
जिसे एकान्त के बीहड़ में
आच्छन्न हो जाना है।
आठ
चिलचिलाती धूप
रेत के जलते पाँवों में
स्मृति के छाले हैं
हवा
रेत की देह में तरंगें बिछाती
लौट जाती है हवा में
स्मृति की मुट्ठियों से
फिसलती रेत
हथेलियों को खोल देती है।
नौ
स्मृति के खण्डहर में
शिला के पुरातत्त्व वक्ष में खुदे
शिलालेख
अनगढ़ भाषा का सौष्ठव हैं
स्मृति
आत्म-द्वीप का खुला आकाश है।
दस
पेड़
घने पत्तों में छिपा
घनी छाँव में घनीभूत
चिड़िया का गान
हवा में थिरकता, गूंजता
वसुंधरा की सौंधी महक में
डूबता है
स्मृति
उड़ती चिड़िया का पंख है।
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