(दूसरी किस्त )
— अशोक माथुर —
गुलामी से आजादी के साथ ही दुर्भाग्यपूर्ण (अप्राकृतिक) विभाजन भारत को झेलना पड़ा। विभाजन केवल धरती का नहीं हुआ, पानी का बंटवारा भी एक अहम मुद्दा था। पानी के बंटवारे के लिए विश्व बैंक (विदेशी सलाहकार) पंच बनकर हमारे बीच उतरा। उत्तर भारत की नदियों, जिनमें कश्मीर, हिमाचल और पंजाब की नदियां थीं, कश्मीर की नदियों का पानी पाकिस्तान के लिए और शेष नदियों का पानी भारत के लिए निर्धारित किया गया। अगर चतुर लोगों का जोर चलता तो वे समस्त प्राकृतिक संसाधनों जैसे हवा का भी बंटवारा कर देते। यह बडी विचित्र पंचायत थी। इसमें भारत, पाकिस्तान और राजस्थान को हिस्सेदार बनाया गया।
पानी प्रकृति का ऐसा अनमोल रत्न है, जो सम्पूर्ण जीव-जगत के अस्तित्व के लिए आवश्यक तत्व है। हम इस बात की ओर इशारा करना चाहते हैं कि हमारे जीवन के फैसले हमारे हाथ में क्यों नहीं हैं? इतिहास की बात को यदि अलग रख दिया जाए तो वर्तमान में भी विश्व बैंक और अन्तरराष्ट्रीय एजेंसियों ने पानी के महत्व को वैसे ही समझा जैसे पेट्रोल का महत्व है। कई वर्ष पहले, उन्होंने पानी के व्यावसायिक महत्व को समझते हुए इसे मुनाफे का कारोबार बनाने का सुझाव दिया। यह कोई सामान्य बात नहीं थी। इसमें पानी का निजीकरण और एकाधिकार जैसे एजेंडे थे।
भारत का राजनैतिक तंत्र संविधान की किताब के मुताबिक एक सार्वभौमिक सत्ता की घोषणा करता है, लेकिन नीतिकार कुछ और होते हैं।
देखते ही देखते थार मरुस्थल में आनेवाले सतलज, व्यास और रावी के पानी से धन उपजाने की नीति हमारे शासकों ने भी बना डाली। गंग भाखड़ा और इंदिरा गांधी नहर के लिए कभी यह कहा गया था कि यह सुरक्षा पंक्ति है और नगाड़े बजाकर किसानों, गरीबों तथा जनसामान्य को यह भी कहा गया कि ये सिंचाई की सबसे बड़ी परियोजनाएं हैं। करोड़ों किसान थार के रेगिस्तान में आ बसे। सरकार ने उन्हें सिंचित कृषि भूमि के नाम पर एक टुकड़ा जमीन का दे दिया। हर किसी को लग रहा था कि थार की धरती अन्न और धन उपजाएगी।
शासकों ने जमीन बेचकर धन कमाया परन्तु सिंचाई के लिए नहर प्रणाली से आनेवाले पानी से लाभ कमाने का मंसूबा बना डाला। पेयजल के नाम पर शेखावटी, नागौर, जोधपुर की बड़ी-बड़ी शहरी आबादियों के लिए जल वितरण का इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा किया गया। दस जिलों के शहरों व कस्बों के लिए जब यह प्रणाली स्थापित की जा रही थी, तो पूरे षडयन्त्रपूर्वक परम्परागत स्थानीय स्रोत और प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट व बंद करने का काम भी किया गया। ताकि शहर में बसनेवाली आबादियां जलदाय विभाग का बिल बगैर देखे हुकूमत को पैसे जमा करा दें।
नहर से आनेवाले पानी को शहर में बेचने का यह अद्भुत करिश्मा पूरे राजनैतिक तंत्र और नौकरशाही की इच्छा का परिणाम है। यह अप्राकृतिक तो है ही, मुसीबत पैदा करने वाला गोरखधंधा भी है। तकनीकी लोगों ने भी सरकार की मंशा को देखते हुए अपनी सहमति जताई होगी।
यह सब करते वक्त किसी ने यह सोचा नहीं होगा कि हिमालय और उसकी नदियों पर बनाये गये बांध पानी बनाने वाली फैक्ट्रियां नहीं है और हमारे पड़ोसियों से हमें पानी देने की कोई गारंटी भी नहीं है। जलवायु परिवर्तन एक नई चुनौती भी है।
पानी बेचने की फिक्र करने वाले लोगों ने थार के रेगिस्तान के लिए वरदान माने जाने वाली गंग, भाखड़ा व इंदिरा गांधी नहर का उद्देश्य ही बदल दिया। अभी तक यह घोषित रूप से कोई नहीं कह रहा है कि यह नहरी तंत्र सिंचाई तंत्र है या पेयजल का तंत्र। गंगानगर, हनुमानगढ़, बीकानेर, जोधपुर, जैसलमेर व बाड़मेर तथा सीकर के शहरियों से जलदाय विभाग कितना रुपया वसूलता है, इस आंकड़े की खोज होनी चाहिए। शहरवासियों को पानी मिले इससे कोई एतराज नहीं है, लेकिन सरकार हिम्मत करके यह घोषित तो करे कि उत्तर-पश्चिमी थार का पूरे नहरी तंत्र की प्रथम प्राथमिकता अब खेतों को पानी देने की नहीं है। अगर खेतों को पानी देना प्राथमिकता नहीं हैं, तो क्या फिर से थार की बसावट उजड़ जाएगी।