(समाजवादी आंदोलन को अमूमन पिछड़ों के उभार से जोड़कर देखा जाता रहा है। समाजवादी आंदोलन ने दलितों-आदिवासियों के लिए कौन-सी लड़ाइयां लड़ीं, इसकी जानकारी दूसरों को क्या, अब समाजवादी धारा के भी कम लोगों को है। लिहाजा, यहां समाजवादी आंदोलन के इस अपेक्षया ओझल इतिहास को सामने लाने की एक संक्षिप्त कोशिश की गयी है। इस लेख की अगली किस्त में दलित प्रसंग में समाजवादियों के कुछ और आंदोलनों की जानकारी देने के साथ ही मौजूदा चुनौती की भी चर्चा की जाएगी।)
भारतीय समाजवादियों ने दलित प्रश्नों से जुड़े कई प्रसंगों में 1934 से अबतक अनेकों आंदोलनों की पहल की और अन्य मंचों द्वारा किये गये आन्दोलनों का समर्थन किया। इन आन्दोलनों से उभरे राजनीतिक कार्यकर्ताओं में से अनेकों ने चुनावी मोर्चों पर भी उल्लेखनीय योगदान किया है। इन कार्यक्रमों का बौद्धिक क्षेत्र में साहित्यकारों और समाजवैज्ञानिकों में भी प्रतिबिम्ब बना। साने गुरुजी, फणीश्वरनाथ ‘रेणु’, धर्मवीर भारती, यू. आर. अनंतमूर्ति, रघुवीर सहाय, ओमप्रकाश ‘दीपक’, कमलेश, गणेश मंत्री, गिरिराज किशोर, अशोक सेकसरिया, सच्चिदानंद सिन्हा, मस्तराम कपूर, राजकिशोर, गिरधर राठी से लेकर डी. आर. नागराज, गणेश देवी, योगेन्द्र यादव और राजेन्द्र राजन की रचनाएँ इसका उदाहरण हैं। इसमें उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश, तमिलनाडु, केरल, आन्ध्र प्रदेश, ओड़िशा, गुजरात, महाराष्ट्र और कर्नाटक के समाजवादियों की उल्लेखनीय भूमिका थी। इसके प्रभाव से समकालीन दलित आन्दोलनों और संगठनों में भी निरन्तरता कायम है।
महाराष्ट्र में बाबा अडाव के नेतृत्व में सफाई कर्मचारियों का संगठन, कर्नाटक में देवनूर महादेवन और सर्वोदय पार्टी तथा स्वराज अभियान, बिहार में रामविलास पासवान और ‘दलित सेना’, मध्यप्रदेश में मेधा पाटकर और नर्मदा बचाओ आन्दोलन, ओड़िशा में प्रफुल्ल सामंतरा और ‘लोकशक्ति अभियान’, उत्तरप्रदेश में रामजीलाल ‘सुमन’ और विविध समाजवादी मंच, उत्तराखंड में जबर सिंह और राष्ट्र सेवा दल आदि इसी परम्परा से जुड़े हैं।
1941 में स्थापित राष्ट्र सेवा दल, 1948 में गठित नव संस्कृति संघ, 1953 में बनी समाजवादी युवक सभा, 1956 में बनी सोशलिस्ट पार्टी और समाजवादी युवजन सभा, 1961 से होनेवाले ‘जाति तोड़ो सम्मेलन’ आदि का अपना अपना भी योगदान है। इनमें राष्ट्र सेवा दल अपनी जीवन्तता, व्यापकता और निरन्तरता के कारण विशेष उल्लेखनीय है। अंधश्रद्धा निर्मूलन, अन्तर्जातीय सहजीवन और विवाह, समता-मूलक जीवनदृष्टि, और सर्वधर्म सद्भाव के लिए सक्रिय इस मंच ने सांस्कृतिक और रचनात्मक माध्यमों से महाराष्ट्र से लेकर मणिपुर और कश्मीर तक राष्ट्रीय एकता संवादों और युवा शिविरों की श्रृंखला बनायी है। विचार निर्माण और जनमत बनाने में ‘जनता’, ‘जनवाणी’, ‘संघर्ष’, ‘चौखम्भा’, ‘जन’, ‘मैनकाइंड’, ‘साधना’ ‘सामयिक वार्ता’ आदि ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है।
लेकिन समाजवादियों के आठ प्रयासों का व्यापक प्रभाव रहा। इनमें से तीन आन्दोलन धार्मिक स्थानों में हो रहे ‘अस्पृश्य जाति’ आधारित भेदभावों के खिलाफ थे – पंढरपुर (महाराष्ट्र), काशी विश्वनाथ मंदिर (उत्तर प्रदेश) और गणेश्वर धाम (राजस्थान)। दो प्रसंग आम चुनाव की प्रक्रिया से जुड़े थे – 1952 में सोशलिस्ट पार्टी और अनुसूचित जाति महासंघ का चुनावी संयुक्त मोर्चा और उत्तर बम्बई में डॉ. आम्बेडकर और अशोक मेहता की संयुक्त उम्मीदवारी और 1952, ’57 और ’62 (मध्यप्रदेश में ग्वालियर की महारानी के खिलाफ एक सफाईकर्मी महिला को प्रत्याशी बनाना) में मध्यप्रदेश और अन्य स्थानों से चुनाव के जरिये दलित-आदिवासी महिला नेतृत्व का निर्माण। तीन प्रसंग क्रमश: इटावा में सफाई कर्मचारियों के दो आन्दोलनों और झारखंड के छोटा नागपुर क्षेत्र में 1958 में अकाल के विरुद्ध आदिवासियों के सत्याग्रह के रहे। अंतिम उदाहरण 1969 में उत्तर प्रदेश में पुलिस द्वारा इटावा में एक दलित महिला के साथ अत्याचार के विरुद्ध सशक्त जन-आन्दोलन का है। इसे‘बकेवर गोली-काण्ड’ के नाम से जाना गया।
पंढरपुर मंदिर प्रवेश सत्याग्रह (महाराष्ट्र, 1947)
विट्ठल–रुक्मिणी के सोलापुर के पंढरपुर में स्थित मंदिर की समूचे महाराष्ट्र में कई शताब्दियों से असाधारण श्रद्धा और प्रतिष्ठा है। प्रतिवर्ष दो बार श्रद्धालु जन अपने गाँव-कस्बों से पैदल चलते हुए दर्शन के लिए लाखों की संख्या में आते रहते हैं। लेकिन इसमें दलितों के लिए प्रवेश की अनुमति नहीं थी। दलित स्त्री-पुरुषों को एक निश्चित दूरी से मात्र मंदिर के शिखर को देखने देने का रिवाज था। महाराष्ट्र में दलितों के विरुद्ध इसी तरह के निषेध अनेकों अन्य मंदिरों में लागू थे। समाजवादी स्वतंत्रता सेनानी एवं मराठी साहित्यकार साने गुरुजी (पांडुरंग साने) (1899-1950) ने इसके विरुद्ध आन्दोलन का संकल्प लेकर पहले पूरे महाराष्ट्र में जन-जागरण किया। इसमें 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के यशस्वी नायक सेनापति बापट, श्रीधर महादेव जोशी और अच्युत पटवर्धन उनके सहयोगी बने। इस अभियान के फलस्वरूप महाराष्ट्र के अनेकों मंदिरों की व्यवस्था बदली और दलित प्रवेश की शरुआत हुई। लेकिन सैकड़ों गोष्ठियों और सभाओं के जरिये लगभग पांच लाख लोगों से सम्पर्क के बावजूद पंढरपुर मंदिर के प्रबंधकों ने दलितों के प्रवेश निषेध को समाप्त करने का अनुरोध अस्वीकार किया।
मंदिर के प्रबंधकों की हठधर्मिता देखकर विट्ठल मंदिर में दलित प्रवेश के लिए साने गुरुजी ने 1 मई 1947 से आमरण उपवास प्रारंभ कर दिया। प्रांतीय शासन कांग्रेस के हाथों में था। लेकिन कांग्रेस नेतृत्व इस प्रश्न को कानून बनाकर सुलझाने के पक्ष में था। जबकि साने गुरुजी के नेतृत्व में समाजवादी लोग इसे स्वराज के सामाजिक आयाम से जोड़कर देख रहे थे। उनके लिए दलितों को विट्ठल–रुक्मिणी की निर्बाध पूजा-अर्चना का अधिकार मिलना स्वराज की वास्तविक कसौटी हो गयी थी। साने गुरुजी गांधी के प्रति अपार श्रध्दा रखते थे और गांधीजी ने तार भेज कर उनसे इस प्रश्न पर अनशन न करने का निर्देश दिया। लेकिन साने गुरुजी ने गांधीजी का भी सन्देश अस्वीकार कर दिया और 10 दिनों तक उपवास जारी रहा।
साने गुरुजी के अनशन के समाचार से समूचे महाराष्ट्र से समाज सुधारक, हरिजन सेवक संघ के कार्यकर्ता, मराठी बुद्धिजीवी और देश भर के समाजवादी पंढरपुर पहुँचने लगे। प्रतिदिन शाम को अनशन स्थल पर सार्वजनिक सभा होने लगी जिसमें रावसाहब पटवर्धन, काकासाहब बर्वे, एस. एम. जोशी, आचार्य अत्रे जैसे समाज सुधारको द्वारा प्रबोधन होता था। अंतत: लोकसभा के प्रथम अध्यक्ष दादासाहब मावलंकर की मध्यस्थता को स्वीकार कर मंदिर प्रबंध समिति ने पंढरपुर मंदिर के द्वार दलितों के लिए खोलना स्वीकार किया और समाजवादियों के प्रयत्न से एक अत्यंत दोषपूर्ण परंपरा का अंत हुआ। महात्मा गांधी ने भी इस प्रश्न के समाधान पर बधाई दी।
काशी विश्वनाथ मंदिर प्रवेश सत्याग्रह (उ. प्र., 1956)
वाराणसी का श्री काशी विश्वनाथ मंदिर 12वां ज्योतिर्लिंग तथा शिव-पार्वती का निवास-स्थान होने से हिन्दुओं के प्राचीन आस्था केन्द्रों में सर्वप्रमुख माना जाता है। इसमें भारत के स्वतंत्र होने के बरसों बाद तक दलितों का प्रवेश निषिद्ध था। समाजवादियों ने इस अनुचित परंपरा की समाप्ति के लिए समाजवादी नेता राजनारायण के नेतृत्व में 1956 में सत्याग्रह किया। प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी लेकिन सत्याग्रही समाजवादियों के साथ पुलिस और पंडों ने भयानक बलप्रयोग किया। वाराणसी के प्रमुख समाचारपत्र ‘आज’ में इसके बारे में छपे संक्षिप्त समाचारों में 22 मार्च को शीर्षक था ‘श्री काशी विश्वनाथ मंदिर में हरिजनों का प्रवेश हो गया ; श्री राजनारायण सिंह गिरफ्तार’ और मंदिर के गर्भगृह का चित्र था। 23 मार्च को दूसरे दिन के समाचार का शीर्षक था ‘विश्वनाथ मंदिर प्रवेश में पुन: विफलता; श्री प्रभुनारायण तथा 10 अन्य व्यक्ति गिरफ्तार’।
पहले दिन के सत्याग्रह में उत्तर प्रदेश समाजवादी दल के अध्यक्ष तथा राज्य विधानसभा में विपक्ष के भूतपूर्व नेता राजनारायण, पूर्वी उत्तर प्रदेश हरिजन सेवक संघ के मंत्री कृष्णदेव उपाध्याय, भारतीय समाजवादी युवक सभा के महामंत्री रंगनाथ शर्मा, प्रांतीय दलित वर्ग संघ के प्रचारमंत्री कुंवर विश्वमित्र, तथा जिला समाजवादी दल के संयुक्त मंत्री सदानंद शास्त्री प्रमुख थे। दूसरे दिन के सत्याग्रह में राज्य विधानपरिषद के सदस्य प्रभुनारायण सिंह, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के समाजवादी छात्रनेता कृष्णनाथ शर्मा, शिवनाथ, विश्वनाथ, मुन्नूलाल, रामसुमेर, ननकू राम, रामदेव, विश्वनाथ शर्मा, राजनाथ तथा अशोक जी गिरफ्तार करके जेल भेजे गये। लेकिन यह सब एक असाधारण आन्दोलन का अति सामान्य विवरण था।
इस दलित समर्थक आन्दोलन की वास्तविकता का अनुमान लगाने के लिए एक अन्य विवरण से जानकारी देना प्रासंगिक होगा। हिंदी के प्रसिद्ध लेखक और समाजवादी विचारक डॉ. युगेश्वर के अनुसार, समाजवादी नेता राजनारायण के सार्वजनिक जीवन में हरिजन मंदिर प्रवेश एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक आन्दोलन था और सामाजिक समता के इस आन्दोलन में वह पूरे वेग और साहस के साथ उतरे। देश का संविधान और कानून उनके साथ था। लेकिन बड़ा भयानक दृश्य था। हरिजनों को मंदिर तक ले जाना मामूली काम न था क्योंकि कतिपय स्वार्थी तत्त्वों के कारण धार्मिक उन्माद उमड़ आया था। स्वामी करपात्री जी क्रुद्ध थे। वे अपने अनुयायियों को बार-बार मंदिर प्रवेश के विरुद्ध उकसा रहे थे – ‘एक बार औरंगजेब ने इस मंदिर का नाश किया था, आज सोशलिस्ट लोग कर रहे हैं। जो जाए हमारी छाती पर चढ़कर जाए।’
पंडों का गिरोह गुंडई पर उतारू था। राजनारायण अपने साथियों के साथ डटे थे। पुलिस का रुख दोनों ओर था। भीड़ को डंडे से भगाने की पुलिस की सहज आदत होती है। उससे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है लोगों को घसीटना। राजनारायण को दाढ़ी पकड़कर घसीटा गया। प्रभुनारायण सिंह को भी चोटें आयीं। दोनों तरफ के कई व्यक्ति जेल गए। राजनारायण हरिजन मंदिर प्रवेश को लेकर भूख हड़ताल करना चाहते थे। इसे डॉ. राममनोहर लोहिया ने रोक दिया। उनके अनुसार, ‘मैंने राजनारायण और दूसरे लोगों को समझाने की कोशिश की कि किसी भी सार्वजनिक कारण को लेकर जेल के बाहर सार्वजनिक रूप में भूख हड़ताल करने से झूठ, कपट और वैयक्तिकता पैदा होती है… राजनारायण पूरी तौर पर तो नहीं माने किन्तु कम से कम उस वक्त इस फैसले को उन्होंने मान लिया…’
इस आन्दोलन के परिणामस्वरूप उत्तरप्रदेश सरकार ने मंदिरों में दलितों के प्रवेश निषेध को समाप्त करने का एक नया कानून बनाया। सोशलिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय समिति ने 16-19 सितम्बर, 1956 को नागपुर में हुई बैठक में इस आन्दोलन के बारे में अपने प्रस्ताव में इस बात पर क्षोभ जाहिर किया कि आजादी के बाद भी दलितों को धर्मस्थानों में प्रवेश के मामले में उच्च जातियों के साथ समानता नहीं मिल पायी है। अस्पृश्यता उन्मूलन के लिए समाजवादियों का आन्दोलन हमारे संविधान में दिये प्रावधानों के अनुकूल होने के बावजूद उन्हें लाठियों से पीटा गया और सजा देकर जेल में बंद किया गया। इससे हमारी व्यवस्था में चल रहे जातिमुक्त समाज बनाने के बारे में चल रहे ढोंग का पर्दाफाश हो गया है।
अंतत: काशी विश्वनाथ मंदिर में सोशलिस्ट सत्याग्रह के कारण हरिजनों का मंदिर प्रवेश निषेध खत्म हो गय। अखबारों की सुर्खियाँ चमकीं। ऐतिहासिक विश्वनाथ मंदिर में प्रथम बार हरिजनों ने प्रवेश किया। दर्शन, पूजन किया। जो काम छिपकर, चोरी से होता था वह कानून और सत्याग्रह द्वारा सर्वसुलभ हुआ।
गणेश्वर धाम सत्याग्रह (राजस्थान, 1960-61)
राजस्थान का गणेश्वर धाम अरावली पर्वत श्रृंखला में सीकर जिले के नीम का थाना क्षेत्र में स्थित है और इसे 64 तीर्थों में श्रेष्ठ माना जाता है। शिव–पार्वती की पौराणिक कथाओं से जुड़ा यह तीर्थ पुरातत्त्व की दृष्टि से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। लेकिन इस तीर्थ के पवित्र तालाब में दलितों के स्नान की मनाही थी। इसके विरुद्ध समाजवादी कार्यकर्ताओं की एक टोली ने सूर्यनारायण चौधरी, एडवोकेट के नेतृत्व में एक सत्याग्रह का आयोजन किया। सूर्यनारायण चौधरी अपने विद्यार्थी जीवन में समाजवादी युवक सभा के संस्थापकों में शामिल थे और लखनऊ विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष रह चुके थे। 1 जुलाई 1960 को सूर्यनारायण चौधरी लगभग एक दर्जन समाजवादियों और कुछ दलित समर्थकों के साथ गणेश्वर धाम तालाब में स्नान के लिए पहुंचे। इनमें गौरीशंकर आर्य, रमेशचंद्र, मानिक बाल्मीकि, नाथूलाल,जगदीश सहगल, पं. सूवाराम, रामनारायण मीणा भी शामिल थे।
समाजवादियों की इस टोली के तालाब के निकट पहुँचने पर सवर्ण लोगों की एक भीड़ ने इन पर पवित्र तीर्थ के सरोवर को अपवित्र करने की चेष्टा का आरोप लगाते हुए आक्रमण कर दिया। इस क्रूर भीड़ के आक्रमण से सभी सत्याग्रही घायल हुए। मार खाते-खाते सूर्यनारायण चौधरी गिर गये तो रामनारायण मीणा ने बचाने का साहस दिखाया। सभी दलित और अन्य सोशलिस्ट कार्यकर्ता गंभीर रूप से घायल सूर्यनारायण चौधरी को लहू-लुहान हालत में चिकित्सा के लिए जयपुर ले आये। समाचारपत्रों में इस शर्मनाक काण्ड का विस्तृत विवरण प्रकाशित होने पर पूरे राजस्थान में यह चर्चा का विषय बन गया।
डॉ. राममनोहर लोहिया ने इसकी जानकारी मिलने पर समाजवादी दल के लोकसभा सदस्य अर्जुनसिंह भदौरिया को अगले वर्ष 2 अक्टूबर, 1961 को इस शर्मनाक प्रतिबन्ध को तोड़ने की सार्वजनिक घोषणा करने का निर्देश दिया। इस बारे में 12 सितम्बर को प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू और 14 सितम्बर को केंद्रीय मंत्री जगजीवन राम को पत्र लिखकर इस सत्याग्रह में शामिल होने का निमंत्रण दे दिया गया। इसके बाद इस सत्याग्रह के लिए रामसेवक यादव, प्यारेलाल तालिब और अर्जुन सिंह भदौरिया की सांसद टोली 30 सितम्बर को जयपुर पहुंची। उन्हें बताया गया कि गणेश्वर धाम क्षेत्र में अफवाह है कि दलितों के स्नान प्रतिबन्ध के विरुद्ध होनेवाले समाजवादी सत्याग्रह को रोकने के लिए सेना में कार्यरत सवर्ण युवक छुट्टी लेकर आ गये हैं। वातावरण में व्याप्त भय के कारण स्थानीय दलितों ने सत्याग्रह में सहयोग करने में असमर्थता प्रकट की। वैसे भी राजस्थान में छुआछूत के खिलाफ प्रतिरोध करनेवालों की संख्या बहुत कम थी।
किसी प्रकार 2 अक्टूबर की सुबह रामसेवक यादव ने कुछ कार्यकर्ताओं को जुटाकर लगभग 30 साथियों के साथ गणेश्वर के लिए प्रस्थान संभव बनाया। आशंकाओं के विपरीत सारे रास्ते स्थिति सामान्य थी और समाजवादियों की सत्याग्रही टोली बिना किसी अवरोध के गणेश्वर धाम पहुँच गयी। शीघ्र ही सभी कार्यकर्ताओं को लेकर अर्जुन सिंह भदौरिया, रामसेवक यादव और प्यारेलाल तालिब गणेश्वर तालाब में स्नान करने पहुंचे और राजस्थान के नाम पर लगे हुए कलंक को धोने का काम पूरा हुआ।
इसी क्रम में आगे सूर्यनारायण चौधरी ने स्वामी अग्निवेश के साथ मिलकर 2 अक्टूबर 1988 को नाथद्वारा स्थित श्रीनाथ जी के मंदिर में दर्शन के लिए आनेवाले दलितों के साथ होनेवाले भेदपूर्ण व्यवहार और भारतीय संविधान की धारा 17 (अस्पृश्यता निवारण) की अवहेलना के विरुद्ध सत्याग्रह की घोषणा और तैयारी भी की। क्योंकि इस मंदिर में दलितों को दर्शन के पहले ‘कंठी माला’, गंगाजल और तुलसीदल लेकर शुद्ध होने के बाद ही प्रवेश की अनुमति दी जाने की प्रथा थी। लेकिन इस बार राजस्थान सरकार ने इस सम्बन्ध में उच्च न्यायालय में दाखिल याचिका को स्वीकार करते हुए इस भेदभाव को समाप्त करने का दायित्व स्वीकार करते हुए सूर्यनारायण चौधरी के प्रयास को सम्मान दिया।
आंबेडकर और अशोक मेहता की संयुक्त उम्मीदवारी
सोशलिस्टों द्वारा दलित विमर्श में योगदान का एक आयाम विधायिका के चुनावों में दलित संगठनों के साथ संयुक्त मोर्चा बनाने के जरिये विकसित हुआ था। इसमें सबसे उल्लेखनीय उदाहरण 1952 के प्रथम आम चुनाव में सामने आया जब इस संयुक्त मोर्चे ने सम्पूर्ण बम्बई प्रान्त की अधिकांश सीटों पर उम्मीदवार उतारे। बम्बई (उत्तरी) की लोकसभा सीट के लिए डॉ. भीमराव आम्बेडकर (परिगणित जाति महासंघ) और प्रसिद्ध समाजवादी नेता अशोक मेहता (सोशलिस्ट पार्टी) को संयुक्त प्रत्याशी बनाया गया और दोनों संगठनों ने दोनों राष्ट्रीय नेताओं का एकसाथ प्रचार किया। लेकिन कांग्रेस के उम्मीदवारों को विजय मिलने से यह प्रयोग सफल नहीं हो सका। फिर भी इससे 1937 से शुरू राजनीतिक सद्भाव का नवीकरण हुआ। विशेषकर डॉ. आंबेडकर और समाजवादियों का परस्पर सौहार्द विकसित होता रहा। इसीलिए 1955-56 में डॉ. लोहिया से निकटता बनी। लोहिया की ओर से उनको नवनिर्मित सोशलिस्ट पार्टी का मार्गदर्शक बनने का प्रस्ताव रखा गया था और डॉ. आंबेडकर की सकारात्मकता ने समाजवादियों को प्रोत्साहित किया था। डॉ. आंबेडकर ने अपने जीवन के अंतिम पत्र में महाराष्ट्र के वरिष्ठतम समाजवादी नेता एस.एम. जोशी को अपनी तरफ से प्रस्तावित रिपब्लिकन पार्टी को बनाने में सहयोग के लिए आग्रह किया था।