(हिंदी के वरिष्ठ लेखक एवं चिंतक गिरधर राठी का यह लेख पहली बार अगस्त 2006 में ‘जनसत्ता’ में प्रकाशित हुआ था। इसलिए स्वाभाविक ही कुछ संदर्भ उस समय के हैं। लेकिन यह लेख तात्कालिक संदर्भों को पार करके देश और दुनिया की राजनीति की एक कड़वी हकीकत की ओर इंगित करता है। शायद इसमें यह सबक भी निहित है कि अच्छी राजनीति का उद्देश्य बेहतर नीतियां और बेहतर व्यवस्था के साथ-साथ अच्छे मनुष्य का निर्माण क्यों होना चाहिए।)
इधर आतंकवाद और आतंकवादियों का दिलो-दिमाग ‘समझने’ के लिए कई उपन्यास और कहानियां छपी हैं, खासकर अंग्रेजी में। चूंकि आतंकवाद की जड़ों में राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक-व्यक्तिगत कारण-समूह भी होते हैं, जैसे कि माओवाद और नक्सलवाद से जुड़े अभियानों में देखे जाते रहे हैं, इसलिए हिंदी में छपी वे कृतियां भी फिर से देखी जा सकती हैं जो नक्सल-विद्रोह से जुड़ी हैं। इस प्रसंग में एक बहुत ही चौंकानेवाली बात मैंने हाल ही में फिर से पढ़ी। लेकिन उसका संबंध सिर्फ आतंकवाद से नहीं, सीधे-सीधे पूरी राजनीति से है।
डोरिस लेसिंग का प्रसिद्ध उपन्यास है ‘द गुड टेररिस्ट’। लेसिंग लिखती हैं कि उसकी एक प्रमुख पात्र एलिस ‘वाकई’ पागल है। लेकिन किसी भी पाठक-आलोचक ने उसे इस रूप में नहीं पहचाना।
मध्यवर्ग की इस विद्रोही-क्रांतिकारी-आतंकवादी एलिस को ‘पागल’ के रूप में नहीं पहचाने जाने का कारण? बकौल डोरिस लेसिंग, ‘क्योंकि संदर्भ राजनीतिक है।’ दोस्तोएव्स्की से लेकर ‘क्रूर नाटक’ के रचनाकार आर्तो इत्यादि तक, किसी ने भी अपने किसी पात्र को शायद ही कभी ‘पागल’ कहा हो। लेकिन इस लेखिका ने अपनी आत्मकथा (‘अंडर माइ स्किन’) में बहुत स्पष्ट रूप से ऐसे लोगों का संग-साथ दर्शाया है जो वाकई ‘मानसिक रूप से विचलित’ थे और साफ लिखा है एलिस उन्हीं जैसे वास्तविक चरित्रों का एक संस्करण है। दूसरे पागल, ‘पागल की डायरी’, ‘आइ क्यू’, ‘वार्ड नं.6’ आदि रचनाओं में पागलखाने या पागलपन की सामाजिक पहचान के बाद की स्थितियों में ही स्थित हैं।
‘पागलपन’ क्या है? फूको वगैरह ने, और उससे पहले भी कई मनोवैज्ञानिकों ने‘एब्नॉर्मल’ या ‘असामान्य’ व्यवहार की आम परिभाषाओं को गहरी चुनौती दे रखी है। किसी के लेखे यह केवल एक ‘सोशल’ या ‘पोलिटिकल’ ‘कांस्ट्रक्ट’ है – समाज और राजनीतिक सत्तामूलक षड्यंत्र का एक कृत्रिम श्रेणीकरण। आज भी देश में- और दुनिया भर में- पागलखाने ठसाठस भरे हैं।
मनोचिकित्सकों का ‘धंधा’ दिन दूना रात चौगुना फैल रहा है। अब हम अपने स्कूली बच्चों- पहली-दूसरी कक्षा तक के बच्चों की मनोचिकित्सा कराने लगे हैं। अगर नहीं कराते, तो रोज हमें मीडिया में उपदेश सुनने को मिलते हैं- तुरंत मनोचिकित्सक के पास जाएं। न सिर्फ ‘डिप्रेशन’, ‘डिसलेक्सिया’ वगैरह के लिए, बल्कि ‘हाइपर ऐक्टिविटी’ के इलाज के लिए भी। यानी, अगर बच्चा बहुत धूम मचाता है, अपनी कक्षा में स्थिर नहीं बैठना चाहता, तो उसे ‘रिटालिन’ जैसी दवा ‘डॉक्टर की सलाह से’ दी जा रही है। अमरीका में ‘प्रोजैक’ और ‘रिटालिन’ जैसी दवाएं, एक अनुमान के अनुसार, दस प्रतिशत से भी अधिक जनता ले चुकी है।
संकेत यह है कि घर-परिवार, कार्य-स्थल, शिक्षा-संस्थान जैसी जगहों में ‘असामान्य’ व्यवहार के ‘इलाज’ के लिए पूरा समाज, पूरा चिकित्सा-तंत्र और पूरा शासन-तंत्र सन्नद्ध है। लेकिन राजनीति में शीर्ष पर बैठे लोग या उनके बरखिलाफ विद्रोह-क्रांति का झंडा उठानेवाले लोग किसी ‘मानसिक चुनौती’ से ग्रस्त हों, तो?
विक्षिप्त लोगों के लिए आजकल हम नये-नये शब्द, जैसे बहरे के लिए‘हियरिंग इम्पेअर्ड’ या ‘हियरिंग चैलेंज्ड’ जैसा कुछ बरतने लगे हैं। पागल अब ‘मेंटली डिस्टर्ब्ड’ वगैरह नहीं, ‘मेंटली चैलेंज्ड’ है। काने को काना कहना ‘असभ्यता’ है।
हिटलर के पतन के बाद उसकी मनोग्रंथियों की काफी चर्चा हुई है। स्तालिन के लिए ‘मेगालोमैनिया’ जैसा मनोचिकित्सीय शब्द खुद रूसी लोगों ने- और बाकी कई कम्युनिस्टों ने- खुलकर इस्तेमाल किया है। ईदी अमीन जब युगांडा का परमेश्वर था, बच्चों का मांस खाता था- जिसे मनोरोग से जोड़कर देखा गया है।
लेकिन ‘सामान्य जीवन’ में ‘आक्रामकता’, ‘हिंसक व्यवहार’ जिस आसानी से मनोचिकित्सा को सौंप दिया जाता है, क्या वैसा ही कुछ इलाज हमारे मौजूदा राजनीतिक नायकों के साथ नहीं होना चाहिए?
मसलन, महज एक या दो इजराइली सैनिकों की रिहाई के लिए पूरे फिलस्तीन और लेबनान पर, और परोक्षतः सीरिया और ईरान पर हमला करनेवाले राजनेता क्या सचमुच किसी मनोरोग के शिकार नहीं हैं? या उसामा बिन लादेन (सऊदी अरब)? या वी.प्रभाकरन (श्रीलंका)?
यों मनोविज्ञान के विश्लेषण काफी दिलचस्प होते हैं। एक ही कारण से नितांत विपरीत नतीजे उसमें निकाले जा सकते हैं, निकाले ही जाते हैं। फ्रायड की मनोविश्लेषण पद्धति की धुर्रियां उड़ाकर दिमाग के रासायनिक तत्त्वों और तंतु संवाहकों के आधार पर प्रचलित आधुनिकतम पद्धतियां कहती हैं कि किसी तत्त्व की मात्रा में कमी या ज्यादती होने से ही अवसान, आत्महत्या का रुझान, अनावश्यक आक्रामकता वगैरह लोगों में आ जाती है।
‘ब्रेन’ (दिमाग) में एक खास तत्त्व की कमी से ‘सेल्फ रिस्पेक्ट’ (स्वाभिमान, आत्म-सम्मान) का अभाव हो सकता है। ‘प्रोजैक’ जैसी दवाओं में, और शुरू-शुरू में (1950 के आसपास) ‘लीथियम’ जैसी दवाओं ने लाखों-करोड़ों लोगों का आत्मसम्मान उन्हें ‘लौटा दिया’ है। अगर सामान्य मनुष्य (या बच्चों) में इस अभाव से ‘असामान्यताएं’ आती हैं, तो क्या यह संभव नहीं कि राजनीति के शिखर पर बैठे लोग भी ऐसी किसी चीज के शिकार हों?
मेरे एक मित्र का कहना है कि कुछ लोग जन्मजात ‘खुशामदी’ होते हैं। इसी तर्क पर कुछ लोग जन्मजात हमलावर (‘बुली’, ‘अग्रेसर’ वगैरह) हो सकते हैं। जो जन्मजात ऐसे नहीं हैं, वे जीवनगत परिस्थितियों के कारण ऐसे हो जा सकते हैं। अगर आप ‘बेस्टसेलर’ कहलाने वाले उपन्यास पढ़ते हों, तो उनमें पढ़ते ही होंगे कि एक-एक पात्र के आपराधिक स्वभाव और आचरण का विश्लेषण घर-परिवार-समाज की भूलों-गलतियों-कुचालों के आधार पर होता है। विश्वसनीय प्रतीत होनेवाली इस सस्ती या लोकरंजक मनोचिकित्सा को- या ‘सचमुच’ की मनोचिकित्सा को- अगर राजनेताओं या ‘विद्रोहियों’ पर लागू करें तो कैसे नतीजे निकलेंगे?
मसलन, जैसा कि माओ के डॉक्टर ने बताया है, माओ को बहुत कम उम्र की लड़कियां ‘सप्लाई’ की जाती थीं। कुछ वैसे ही जैसे चार्ली चैप्लिन जीवन भर कमसिन लड़कियों से खिलवाड़ करता रहा। या माइकल जैक्सन कमसिन लड़कों का प्रेमी बताया जाता रहा है। स्तालिन का वह ठहाका, जो मिलोवान जिलास की व्यथा पर गूंजा था- क्या वह ‘सामान्य’ था? जिलास ने उससे शिकायत की थी कि रूसी सैनिक जो यूगोस्लाविया को ‘आजाद’ कराने गये थे, बड़े पैमाने पर यूगोस्लाविया में ही बलात्कार कर रहे हैं। स्तालिन का जवाब था ठहाका-भरा, कि युद्ध में तो यह आम बात है।
क्या ब्रिटिश प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ‘जन्मजात खुशामदी’ हैं? क्या जॉर्ज डब्ल्यू बुश, अमरीकी राष्ट्रपति ‘जन्मजात हमलावर’ हैं? ब्लेयर दंपति इससे पहले राष्ट्रपति बिल क्लिन्टन और हिलेरी क्लिन्टन के कितने अभिन्न थे, याद है?अब वे बुश के भक्त हैं। ब्लेयर जन्मजात ऐसे हैं, या कि उन्हें ‘आत्मसम्मान’हासिल करने के लिए इराक, अफगानिस्तान, फिलस्तीन, लेबनान वगैरह पर बुश का अंध-समर्थन करना पड़ रहा है? उनका यह ‘कमतरी का एहसास’ क्या पूरे ब्रिटेन की हैसियत को लेकर है या अपने निजी व्यक्तित्व की कोई कमी पूरी करने के लिए? तीन-तीन बार, लगातार, प्रधानमंत्री बन जाने के बावजूद ‘आत्मसम्मान’ की कमी का एहसास क्यों? क्या कोई और गंभीर मनोरोग उन्हें सता रहा है?
‘इतिहास का अंत’ के लेखक फ्रांसिस फुकुयामा ने अपनी किताब ‘पोस्ट-ह्यूमन फ्यूचर’ (2003) में बड़ी दिलचस्प शंका रखी है। अगर किसी खास तत्त्व के अभाव से ही दिमाग में आत्मसम्मान की कसक पैदा होती है, और अगर उस तत्त्व की कमी को नयी ‘चमत्कारी दवाएं’– प्रोजैक, रिटालिन- ठीक कर सकती हैं, तो पुराने विश्व-विजेताओं के बारे में क्या सोचा जाए?यदि ये दवाएं उस समय ही उपलब्ध हो गयी होतीं तो, क्या सिकंदर, चंगेज खाँ, नेपोलियन, स्तालिन, हिटलर के किये गये नरसंहार टाले जा सकते थे?
राष्ट्रपति बुश के बारे में ऐसा कोई सवाल उठाना निहायत खतरनाक है। कारण भी स्पष्ट हैं। तब भी…क्या राष्ट्रपति बुश ने इराकी सद्दाम हुसैन द्वारा अपमानित अपने पिता (राष्ट्रपति) का बदला लेने के लिए ही इराक पर चढ़ाई की थी? जैसा कि दस्तावेजों से जाहिर है, विश्व-व्यापार केंद्र और रक्षा मंत्रालय (पेंटागन) पर उसामा बिन लादेन के हमले से पहले ही, बुश-मंडली ने इराक पर हमले की योजना बना रखी थी। सद्दाम जैसे ‘धर्म-विरोधी’ या ‘सेकुलरिस्ट’ तानाशाह का उसामा के उन्मादी इस्लामी आतंकवाद से कतई संबंध नहीं था, बावजूद स्तालिन या हिटलर जैसी ही प्रामाणिक सद्दामी क्रूरताओं के; इसके बावजूद बुश ने सद्दाम को उसामा से जोड़ दिया। प्रमाणित तथ्य, जो आपकी मनोरचना या आकांक्षा के अनुकूल न हों, आप उनकी उपेक्षा करने को बाध्य हैं- इसलिए आप ‘पैरानोइया’ के शिकार हैं। मनोरोग चिकित्सक इस किस्म के व्यवहार की ऐसी ही व्याख्या करते हैं। क्या बुश ‘पैरानोइया’ के शिकार हैं?
या वे भी ‘आत्मसम्मान की कमी’ के एहसास से पीड़ित हैं? सन 2000 में उनका चुनाव काफी थुक्का-फजीहत के बाद तय हुआ था। और 2004 में दुबारा भारी मतदान से जीतने के लिए, कई और बातों के अलावा उन्हें अपने प्रतिद्वंद्वी की विएतनाम युद्ध में दिखाई गयी ‘शूर-वीरता’ को मटियामेट करना पड़ा था। खुद बुश पर आरोप यह था कि वे विएतनाम में लड़ने नहीं गये, कोई बहाना बनाकर। और 2004 में भारी विजय के बावजूद, बुश की ‘लोकप्रियता’ बेहद कम हो गयी है। कहते हैं कि क्लिन्टन ने मोनिका लेविन्स्की के प्रसंग से पैदा अपनी शर्मसारी से ध्यान बंटाने के लिए अचानक एक अरब देश पर, लगभग अकारण, हमला कराया था। क्या आज बुश इजराइल का समर्थन कुछ इसी तरह के कारण से कर रहे हैं?
इजराइल के एक प्रधानमंत्री शैरोन (जाहिर है कि अब ‘भूतपूर्व’) किसी अस्पताल में महीनों से बेहोश पड़े हैं। उन्हें जब भरती किया गया था, चौबीसों घंटे लगभग दस-पंद्रह दिन एक-एक मिनट की बुलेटिन सीएनएन और बीबीसी में आ रही थीं। अब महीनों से एक पंक्ति भी उनके बारे में सुनाई नहीं पड़ रही। शैरोन ‘शांतिदूत’ बताये जा रहे थे। आज उनके उत्तराधिकारी न सिर्फ अरब जगत को, बल्कि पूरे संसार को एक और विश्वयुद्ध की कगार की ओर धकेलते दिखते हैं। क्या इसके भी कोई मनोवैज्ञानिक कारण हैं?
अगर बहुत ज्यादा अतीत में जाएं, तो यहूदी की बुनियादी लड़ाई, आज तक, ‘धार्मिक’ कारणों से ईसाई के खिलाफ रही है, मुसलमान के खिलाफ नहीं। इस्लामी साम्राज्य भी ईसाई राज्यों-साम्राज्यों को हराकर बना था। हिटलर ने जब साठ लाख यहूदियों को मौत के घाट उतारा, तब वह न तो ईसाई था, न मुसलमान। और हिटलर का खुला-छिपा समर्थन करनेवाले तमाम ईसाई चर्च और यहूदी धर्मगुरु थे- मुसलमान शायद ही कहीं बीच में आया हो। यहूदी और मुसलमान के बीच मनो-मालिन्य, द्वेष या शत्रुता इसलिए ईसाई-यहूदी द्वेष की तुलना में बहुत ही नयी है।
अरब फिलस्तीन को बांट कर नया संप्रभु राज्य इजराइल बनाने की 1920 के आसपास की घोषणा से उनकी शुरुआत होती दिखती है। या उससे पहले, लगभग सौ साल के ‘जायनिस्ट’ (इजराइली) आंदोलन से उसकी शुरुआत मानी जा सकती है। तब यहूदी राज्य (जो खुद को धर्मनिरपेक्ष भी कहता है) ईसाई या नास्तिक के खिलाफ होने की बजाय, मुसलिम-विद्वेषी क्यों है? क्या घृणा, द्वेष, प्रतिहिंसा, शत्रुता आदि का मूल, निशाना, किसी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया के तहत कहीं किसी और की तरफ ‘ट्रांसफर’ हो गया है?
खिसियायी बिल्ली खंभा नोचे- पता नहीं यह कहावत फ्रायडीय मनोचिकित्सकों ने कभी सुनी भी या नहीं। और अगर कुल सवाल ‘सेरोटोनिन’जैसे ‘न्यूरोट्रांसमीटर’ का है, दिमाग में जिसका अनुपात कम-ज्यादा हो जाने से अवसाद या उसके विपरीत प्रतिहिंसा वगैरह-वगैरह जन्म ले लेते हैं, तो क्या प्रोजैक या रिटालिन या ऐसी किसी ‘चमत्कारी दवा’ से उपचार कर, नरमेध के इतने सारे मौजूदा तांडव बंद कराये जा सकते हैं?
एक बात मुझे कभी किसी ने नहीं बतायी, इसलिए यह सवाल सभी जानकारों से। डॉक्टरों के दल और पूरी की पूरी एंबुलेंस हर बड़े नेता, खासकर शासक नेता के साथ घूमती रहती है। जहां तक सुना है, हर रोज सुबह डॉक्टरों के पैनल हमारे विश्व-नायकों के स्वास्थ्य की भरपूर जांच करते हैं। लेकिन क्या इस तरह की रोजाना जांच में मानसिक स्वास्थ्य की जांच शामिल होती है?अगर हां, तो उन्हें किस-किस तरह की दवाएं दी जा रही हैं?