— अरविन्द मोहन —
सच्चिदानन्द सिन्हा रचनावली का प्रकाशन हिन्दी जगत के लिए एक स्वागतयोग्य खबर होनी चाहिए। और इस उपक्रम में एक बड़ी भूमिका निभाना मेरे जैसे एक सामान्य पाठक और पत्रकार-लेखक के लिए बहुत गर्व होने के साथ बहुत बड़ी जिम्मेवारी का भी विषय है। सच्चिदा जी से बड़ा विद्वान आज शायद ही कोई है- कम से कम समाज विज्ञान के विषयों में, और राजनीति शास्त्र, अर्थशास्त्र, इतिहास, समाजशास्त्र, नृशास्त्र जैसे समाज विज्ञान के विभिन्न क्षेत्र ही क्यों दर्शन, कला, संस्कृति, मानव मनोविज्ञान, सौन्दर्यशास्त्र, धर्म के क्षेत्रों में भी उनका अध्ययन किसी को हैरान करनेवाला है।
पर वे महज पाठक या चीजों को पढकर पुनर्प्रस्तुत भर करनेवाले विद्वान नहीं हैं। वे एक विचारक हैं जो इस पूरे अध्ययन और अपनी सामाजिक-राजनैतिक सक्रियता के अनुभवों के आधार पर जीवन को प्रभावित करनेवाले विविध पक्षों पर विचार भी करते चलते हैं और सिद्धांत तथा अनुभव के बीच उभरते द्वन्द्वों का अपनी सोच से समाधान तलाशते हैं। और इनके आधार पर उन्होंने खूब सारा गम्भीर लेखन किया है। और बिना किसी अकादमिक संस्था से जुड़े या किसी तरह की अध्ययन वृत्ति लिये उन्होंने जितना काम और लेखन किया है वह हैरान करनेवाला है। सच्चिदा जी ने लंबा जीवन अध्ययन और सामाजिक-राजनैतिक कामों में लगाया है और उनका उच्चस्तरीय लेखन ही पचास साल से ज्यादा अवधि का है।
पर सच्चिदानन्द सिन्हा निरे लेखक या आरामतलब जीवन के साथ चिंतन करनेवाले व्यक्ति नहीं हैं। बहुत छोटी उम्र मेँ समाजवादी आन्दोलन, खासकर जयप्रकाश नारायण के प्रभाव में आकर उन्होंने न सिर्फ पूर्णकालिक राजनैतिक कार्यकर्ता बनने का फैसला किया और घर छोड़ दिया बल्कि शारीरिक श्रम का अनुभव लेने और अपना खर्च खुद उठाने के लिए कोयला-पत्थर तोड़ने और बोझ उठाने जैसे काम भी किये। इसी दौर में समाजवादी मजदूर संगठनोँ के जुड़ाव और तब चलनेवाले स्टडी कैम्पों की मदद से उन्होंने खूब पढ़ाई की। इसमें प्रतिद्वन्द्वी मजदूर संगठनों के पुस्तकालयों से किताब लेने और उनके साथ होनेवाली वैचारिक बहसों का भी योगदान वे स्वीकार करते हैं।
ऐसी ही एक बहस में की गयी अखबारी टिप्पणी पर जब समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया की नजर पड़ी तब उन्होँने सच्चिदा जी की खोज-पूछ की और सीधे अपनी पत्रिका ‘मैनकाइंड’ के सम्पादकीय मंडल में ले लिया। इसके साथ ही सच्चिदा जी मुम्बई से हैदराबाद चले आए। फिर सच्चिदा जी दिल्ली आए और सोशलिस्ट पार्टी तथा बाद में बने समता संगठन और समाजवादी जन परिषद के साथ राजनैतिक काम करने के साथ मुख्य रूप से लेखन किया। उनका ज्यादातर गम्भीर लेखन इसी दौर का है। हाँ, मुम्बई रहते हुए उन्होंने डॉ आंबेडकर का चुनाव प्रभारी होने का जिम्मा निभाया था तो आपातकाल में बड़ोदा डायनामाइट केस में बंद जॉर्ज फर्नांडीस के 1977 के मुजफ्फरपुर चुनाव के प्रभारी भी वही थे। उनको छोटे से छोटा राजनैतिक काम करने में कोई हिचक नहीं होती और आपातकाल के दौरान दिल्ली में भूमिगत रहते हुए जितना राजनैतिक काम सम्भव था, उन्होंने किया।
करीब डेढ़ दशक तक दिल्ली रहने के बाद जब उन्हें महसूस हुआ कि दिन-ब-दिन बढ़ते खर्च को उठाने के लिए कोई ऐसा काम करना पड़ेगा जब कई तरह के ‘कम्प्रोमाइज’ करने होंगे तब वे सीधे अपने गांव, मणिका (मुजफ्फरपुर) चले गये। गांव उनको सिर्फ विचारों में आकर्षित नहीं करता, व्यवहार में भी करता है और इस लेखक की जानकारी में बहुत कम ही लोग दिल्ली-मुम्बई छोडकर गांव में वापस जाते हैं। सच्चिदा जी बहुत समृद्ध पारिवारिक पृष्ठभूमि वाले हैं लेकिन रहने भर के एक छोटे आवास के अलावा उनको ज्यादा किसी चीज से मतलब नहीं है। वे व्यवहारत: एक ऋषि-मुनि का जीवन जीते हैं, गांधी की तरह कम से कम साधनों से काम चलाते हैं। इसमें दुनिया के संसाधनों का संयत प्रयोग के साथ अपनी जरूरतों और मन को काबू में रखने की साधना का भी हाथ है।
उन्होंने शादी की उम्र में राजनैतिक कामों की व्यस्तता और दूसरी वजहों से शादी नहीं की लेकिन उनको परिवार बहुत प्रिय है। अपनी इच्छा और जीवन शैली से वे एक आदर्श जरूर उपस्थित करते हैं लेकिन किसी पर इसे मानने का दबाव नहीं बनाते। असल में वे जो लिखते हैं, कहते हैं उसे जीने की कोशिश भी करते हैं। और इसी चीज से यह बात समझ में आएगी कि वे अपने बाद के लेखन में पर्यावरण और प्रदूषण के सवाल को ज्यादा महत्त्व क्यों देते हैं। उनके नायक गांधी और लोहिया तो इस बात को मानते थे लेकिन समाजवादी धारा के ज्यादातर लोगों के लिए, जिनमें मार्क्सवादी प्रमुख हैं, उपभोग और पर्यावरण कोई मुद्दा नहीं रहा है। उल्लेखनीय यह भी है कि सच्चिदा जी जेपी की शुरुआती प्रेरणा और रोजा लक्जमबर्ग के चिंतन को काफी महत्त्व देने के चलते शुरू से मार्क्सवादी रहे हैं।
हैरानी की बात यह है कि इतने विविध विषयों पर लिखने के बावजूद उनके लेखन और तर्क का स्तर कहीं हल्का नहीं लगता। बल्कि आप जैसे-जैसे नयी चीजें पढ़ते जाते हैं, आपको उनकी कुल सोच और समझ का दायरा जानकर हैरानी होती है। शुरू का उनका ज्यादातर लेखन अंगरेजी में था जिसके अनुवाद यहाँ लिये गये हैं। ज्यादातर पहले से अनूदित और प्रकाशित थे लेकिन कुछ जरूरी सामग्री का अनुवाद रचनावली के लिए भी किया गया। शुरुआती किताबों में सिर्फ ‘समाजवाद के बढ़ते चरण’ सोशलिस्ट पार्टी के कार्यकर्त्ताओं के लिए लिखी गयी थी। अपने प्रिय गिरधर राठी जी के आग्रह पर उन्होंने शहरीकरण और शहरी जीवन के हाशिये पर बसर करनेवालों के बारे में अपनी किताब ‘जिन्दगी सभ्यता के हाशिये पर’ हिन्दी में लिखी जिसे प्रकाशन के लिए लम्बा इंतजार करना पड़ा।
लेकिन ‘संस्कृति विमर्श’ के प्रकाशन के बाद से हिन्दी जगत ने उनके लेखन को हाथों-हाथ लिया। फिर उन्होंने मार्क्स की किताब ‘कैपिटल’ का अपना चौथा खंड लिखा तो वह भी हिन्दी में ही लिखा है। सिर्फ एक पुस्तिका अंगरेजी में लिखी है। वैसे वे फ्रेंच और जर्मन जैसी कई विदेशी भाषाएँ भी जानते हैं- कामचलाऊ बोलने से लेकर पढ़ने तक। संस्कृत न कोर्स में पढ़ा था न बाद में अलग से, पर शब्दकोश के सहारे संस्कृत ही नहीं, पाली-प्राकृत भरी आचार्य नरेन्द्रदेव की मुश्किल भाषा वाली किताब भी समझने में उनको कोई दिक्कत नहीं हुई। लेकिन मामला सिर्फ हिन्दी और अंगरेजी भर का नहीं है।
रचनावली में वे तीन-चार रूपों में आए हैं। लेखक और विचारक वाली गम्भीर अकादमिक और दार्शनिक किताबों का सबसे ज्यादा महत्त्व है। लेकिन एक राजनैतिक कार्यकर्ता और टिप्पणीकार के रूप में भी उन्होंने काफी कुछ लिखा है- बड़े मुद्दों पर वैचारिक दखल देने या अपना तर्क आगे करने के लिए। इसी क्रम में वे पहली बार नाम लेकर अपने मित्र लेखक निर्मल वर्मा को याद दिलाते हैं कि ‘आदमी विचारधारा में ही जीता है।’ लेकिन उन्होंने सोशलिस्ट कार्यकर्ताओं तथा बाद में समता संगठन और समाजवादी जन परिषद ही नहीं अनेक सहमना संगठनों के कार्यकर्ताओं और उनके प्रशिक्षण शिविरों (यह परम्परा अब हमारी राजनीति से विदा हो रही है) के लिए भी काफी सामग्री तैयार की है। उन्होंने अकादमिक बुलावों पर कई जगह शोधपत्र प्रस्तुत किया है या व्याख्यान दिये हैं।
उनके एक और लेखन का रूप अखबारी है जिसका काफी बड़ा ‘भंडार’ हमारे साथी अच्च्युतानन्द किशोर ‘नवीन’ जी ने उपलब्ध कराया और जिसमें से काफी सामग्री लेने के बाद भी काफी और छोड़नी पड़ी। पर सच्चिदा जी का अखबारी लेखन भी निरा फ्रीलांसिंग या कमाई वाला नहीं है। हर लेख और टिप्पणी सामान्य न्यूज और विश्लेषण वाले कर्मकांड से ऊपर उठी है और कई बार लगता है कि वे कोई बड़ी बात कहने के लिए उस घटना का इंतजार कर रहे हों।
और ऐसी टिप्पणियों और लेखन से उन्होंने जो सबसे बड़ा काम किया है वह भूमंडलीकरण, उसका विश्लेषण और उसका विकल्प बताने का है। और (इस रचनावली के सम्पादक) जैसे अनेक लोगों को जीवन भर यह अफसोस रहेगा कि अलग-अलग दर्जन भर गम्भीर विषयों को अपनी किताबों का विषय बनानेवाले सच्चिदानन्द सिन्हा ने इस विषय पर कोई एक बड़ा काम क्यों नहीं किया। इसका सबसे बड़ा कारण तो उनका अपने गांव में बैठ जाना है क्योंकि बौद्धिक रूप से थकान या निराशा का कोई भाव उनमें अभी तक नहीं दिखता है। और जितना कुछ और जैसा उन्होंने भूमंडलीकरण को लेकर लिखा वह उनकी बौद्धिक प्रतिभा ही नहीं, समस्त राजनैतिक और सामाजिक चिंतन का सार ही नहीं, भूमंडलीकरण की नीति का सर्वश्रेष्ठ ‘क्रिटीक’ है।
सच्चिदानन्द सिन्हा के लिए विविधता का आदर, केन्द्रीकरण का विरोध और टिकाऊ विकास ही बुनियादी मूल्य नहीं हैं
उनके लिए समता, स्वतंत्रता, लोकतंत्र. मानवाधिकार और जीवन के हर रूप का आदर, अहिंसा (बहुत खास स्थितियोँ मेँ खस तरीके की हिंसा को वे गलत नहीं मानते हैं), सत्य और निरस्त्रीकरण जैसे मूल्य सनातन हैं, बुनियादी हैं। और बाद के लेखन में पर्यावरण की चिंता भी बहुत मजबूती से उभरी है। इसलिए उनके लिए वैश्वीकरण के विरोध के साथ इन मूल्यों पर आधारित विकल्प सुझाना कोई मुश्किल नहीं है। जब वे कला पर किताब लिखते हैं तब भी उसमें इन मूल्यों के साथ खास भारतीय नजरिए की तारीफ दिखती है। वे शहरीकरण को, जिसके दुष्परिणाम वे अपनी एक किताब में बताते हैं, भी केन्द्रीकरण की प्रक्रिया का हिस्सा बताकर नुकसानदेह ठहराते हैं। सोवियत और चीनी कम्युनिस्ट शासन की कमियों को गिनाते समय उनकी चिंता इन्हीं मूल्यों के हनन से जुड़ी है।
वे जब इतिहास में स्वतंत्रता की आम लोगों की लड़ाई पर किताब लिखते हैं तो अनिवार्यत: कमजोर जमातों की लड़ाई के पक्षधर दिखते हैं। जब राजीव गांधी के समय कांग्रेस 413 सांसदों के साथ राज कर रही थी तब भी वे सीना ठोंक कर कोएलिशन अर्थात विभिन्न इलाकों, जातीय समूहों, भाषाई समूहों के सहमिलन को और गठबन्धन की राजनीति को भारत के अनुकूल बताते हैं। भारतीय राजनीति के विविध पक्षों पर लिखते हुए भी वे इन औजारों और मानकों का इस्तेमाल करते हैं।
हाँ, गांधी पर उन्होंने एकदम अलग तरह की किताब लिखी है और उसके लिए अलग ढंग की पढ़ाई भी की थी। लेख लिखने या बोलने के मौकों पर तो कम लेकिन प्राय: हर किताब लिखने में उन्होंने लगभग उसी तरह की मेहनत की है जैसी कोई किसान अपने खेत में करता है या कोई कारीगर अपने बनाये सामान के साथ करता है। सौभाग्य से मुझे भी उनके साथ रहते हुए ऐसी मजदूरीनुमा पढ़ाई देखने का अवसर मिला। तब वे गान्धी वाली किताब के लिए काम कर रहे थे। शायद इससे भी ज्यादा पढ़ाई समाजवाद और सत्ता सम्बन्धी और कला सम्बन्धी किताबों में करनी पड़ी हो। शारीरिक मेहनत तो सभी किताबों में हुई है लेकिन बौद्धिक श्रम सबमें समान ही लगा होगा और कई बार लगता है कि कुछ बहुत साफ कहने और समझाने की बेचैनी के साथ किताबें लिखी गयी हैं क्योंकि प्राय: कोई व्यावसायिक या कमाई वाला पक्ष उनके लेखन से जुड़ा नहीं रहा है। इसलिए जिस किसी ने उनको युवा राजनैतिक कार्यकर्ताओं को कुछ समझाते देखा होगा उसे उनकी गम्भीर किताब में भी उसी तरह की मुद्रा दिखाई देगी- हर चीज को स्पष्ट करने के उदाहरणों के साथ तर्क आगे बढ़ाना। और कई बार लगेगा कि वे मूल विषय को कुछ समय भुलाकर भी पहले उस मुद्दे को आपके दिमाग में बैठा देना चाहते हैं।
पर शास्त्र के साथ ही लोक के ज्ञान का, लोगों के सम्पर्क से और अपने अनुभव से निकली बातों का सुन्दर मिश्रण भी मिलेगा। जातिप्रथा वाली किताब के लिए उन्होंने खूब यात्राएँ कीं और ऐसे जानकार लोगों से लम्बी बातें भी की थीं। इसके चलते उन्होंने जातिप्रथा को लेकर कुछ बहुत ही विलक्षण बातें कही हैं। जाति पर समाजशास्त्रियों ने बहुत लिखा-पढ़ा है लेकिन यह किताब एकदम अलग नजरिया सामने लाती है। और बताना न होगा कि यह सब किसी अकादमिक परियोजना का हिस्सा न था और ना ही उनको कहीं से अध्ययन वाला अनुदान मिला था। इतना काम कोई सिर्फ बौद्धिक प्रेरणा और बेचैनी से करे यह हैरान करनेवाली चीज है।
सच्चिदा जी का अपने समकालीन राजनेताओं से ही नहीं साहित्यकारों, कलाकारों, बौद्धिकों और चितकों से भी सीधा संवाद रहा है। डिग्री वाली पढ़ाई में खास आगे न गये इस बौद्धिक ने सिर्फ किताबी ज्ञान ही नहीं हासिल किया और सिर्फ मजदूरी करने या ट्रेड यूनियन के कामों तक खुद को सीमित रखा। हालांकि इस क्रम में हिन्दी और अंगरेजी के साथ फ्रेंच और जर्मन भाषाएं पढ़ने-बोलने तक का कौशल विकसित करना हैरान करता है। शूमाखर और लोठार लुत्से जैसे लोगों के साथ उनका संवाद भी था। पढ़ाई-लिखाई के क्रम में उनका काफी सारे लेखकों-पत्रकारों से लम्बा रिश्ता रहा। लेकिन किताब समर्पित करनेवाले और लम्बी चर्चाएँ करनेवाले निर्मल वर्मा जब अपने पुराने रास्ते से अलग होकर मन्दिर आन्दोलन को समर्थन ही नहीं देते विचारों के अंत वाली घोषणा में शामिल हो जाते हैं तो सच्चिदा जी उन्हें लेख लिखकर टोकते हैं।
कला जगत के रामकुमार, कृष्ण खन्ना, जगदीश स्वामीनाथन, हिम्मत शाह वगैरह से भी उनका गहरा सम्बन्ध रहा। बल्कि कृष्ण खन्ना के आग्रह पर ही उन्होंने ललित कला अकादेमी के लिए आर्ट एप्रेशिएशन वाली किताब ‘अरूप और अकार’ लिखी जो आज भी काफी लोगों को हैरान करती है और जीवन भर सक्रिय समाजवादी और ट्रेड यूनियन की राजनीति में लगे किसी व्यक्ति के लिए ऐसी किताब लिखने का अजूबा तो है ही।
सच्चिदा जी सिर्फ कला और संस्कृति जैसे ‘गैर समाजवादी’ या गैर-राजनैतिक विषय पर किताब नहीं लिखी। उन्होंने शहरी गरीबी पर, बिहार के आर्थिक पिछड़ेपन पर, विकास के इस मॉडल में आंतरिक उपनिवेश की अनिवार्तया पर, जाति व्यवस्था पर (इन पंक्तियों के लेखक को यह उनकी सबसे महत्त्वपूर्ण किताब लगती है), विकास के इस मॉडल में खेती-किसानी की दुर्गति पर, मार्क्सवाद पर, कोएलिशन पर, इतिहास में आजादी के लिए हुए वैश्विक संघर्ष पर और हिन्दुस्तानी राजनीति पर काफी कुछ लिखा है। और इस मायने में उन्होंने पूरी समाजवादी धारा ही नहीं, गान्धी को छोडकर हमारी राजनीति के किसी भी भागीदार से ज्यादा लेखन किया है। और गांधी-लोहिया की धारा के हिसाब से जाति, धर्म, कला, संस्कृति, विकास के विविध पक्ष और पर्यावरण वगैरह के बारे में क्या लाइन होनी चाहिए यह चीज सच्चिदा जी के लेखन में मिलती है।
कई जगह अगर वे लोहिया और गांधी से कुछ अलग गये हैं तो भी उनकी बात ज्यादा सही लगती है क्योंकि उन्होंने उन विषयों पर काफी अध्ययन और चिंतन करके लेखन किया है। गांधी और लोहिया कई चीजों में एक सामान्य सोच या धारणा के आधार पर भी बातें करते हैं। जाति, संस्कृति और कला सम्बन्धी सच्चिदा जी का लेखन हर मायने में गांधी-लोहिया की लाइन को आगे ले जाता है। इस हिसाब से भी उनकी रचनावली का आना एक महत्त्वपूर्ण घटना है। इस बड़े लेखक की रचनावली कई महत्त्वपूर्ण काम करने के साथ ही एक भूल सुधार का काम भी करेगी क्योंकि जिस किसी ने सच्चिदाजी का कोई भी महत्त्वपूर्ण काम देखा और पढ़ा है वह उनकी लिखी दूसरी चीजों की तलाश करता है।
Bahut dhanyawad
अरविंद जी की यह टिप्पणी सच्चिदानंद सिन्हा रचनावली के अध्ययन का प्रवेश द्वार जैसी है। पाठक यह टिप्पणी पढ़ कर रचनावली के अध्ययन में प्रवृत्त होंगे तो उन्हें सच्चिदा जी के ज्ञान-संसार को समझने में सुभीता होगा।
रचनावली कहाँ से, कितने खंड में छपी है?
बहुत ही सारगर्भित आलेख और सटिक विश्लेषण किया गया है , श्री अरविन्द मोहन जी को कोटिश धन्यवाद , जिससे समाजवादी विचारधारा को एक आकार प्राप्त हुआ है ।
सं मुझे सच्चिदानंद सिन्हा की प्रश्नावली आठ भागों में चाहिए
दुनिया के तमाम विद्वानों में से एक विलक्षण प्रतिभा के धनी सच्चिदानंद सिन्हा अपने बानी से समाज के बहुत कुछ देने का प्रयास किया है बहुत सराहनीय है।