देवेन्द्र आर्य की कविताएं

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बोलो कौन डूबेगा?

 

देख कर औक़ात बोलो

शहर या देहात बोलो

आख़िरी लमहात,  बोलो कौन डूबेगा?

सौ की सीधी बात,  बोलो कौन डूबेगा?

 

ज़िन्दगी किसकी ज़रूरी है

और किसकी ख़ानापूरी है

क़ीमती हैं धड़कनें किसकी, किसका जीना जीहज़ूरी है

 

स्लेट या अख़बार बोलो

लोग या सरकार बोलो

खेत या बाज़ार,  बोलो कौन डूबेगा?

 

गांव फिर भी बस ही जाएंगे

शहर फिर कैसे बसाएंगे

अन्न तो आयात कर लेंगे, फ़ाइलें कैसे बचाएंगे

 

लान या खलिहान बोलो

जान या सामान बोलो

सोच कर श्रीमान बोलो,  कौन डूबेगा?

 

दूसरों के दर्द से बेज़ार

क्या हुए संवेदना के तार

एक को डूबना होगा, गांव के इस पार या उस पार

 

पहले वो या आप बोलो

आप या मां-बाप बोलो

बाढ़ का अभिशाप,  बोलो कौन डूबेगा?

 

डूबने दो लोकगीतों को

पुस्तकें न भीगने पाएं

गांव की पहचान मिट्टी है, शहर की पहचान सुविधाएं

 

बाढ़ क्यों हर साल बोलो

कागज़ी तिरपाल बोलो

आंकड़ों के जाल,  बोलो कौन डूबेगा?

 

मैं बहुत सीमित

 

मेरी सियासत साहित्य है

मेरा माइक क़लम

मेरा सदन सड़क

मेरी बाइट  मेरा ट्वीट

मेरा बयान कविता

 

मेरा मजहब है अदब

मेरा देव मेरी आत्मा

देव-पुकार मेरी कविता

मेरा अर्पण मलिन-मन

मेरी आस्था प्रेम

करुणा मेरी पूजा

 

एक मेरा मैं

एक मेरी आँखें

एक मेरे शब्द

एक मेरा ईमान

बस यही है मेरा ज्ञान

कि दुनिया में हो पसीने का सम्मान

 

रंग सीमित थे

मैने कपड़े छोड़ दिये

मन रंगा लिया

बाज़ार में सुहाग

 

एक विधवा बेचती है चूड़ियां

सुहागिनों को

 

ले लो बेटी

कांच की ये चूड़ियां सुहाग जीए

लाल खेलें आंगने

चिराग जीए

 

ले लो माता

पालने में टांग देना

देख कर किलकारियां मारेगा मुन्ना

 

तोतली भाषा में गा कर

काग़ज़ी रंगीन चिड़िया

एक बच्ची बेचती कालोनियों में घूम

बच्चे वालियों को

 

मर्द अक्सर देर से आता है

दारू के नशे में

मर्द से बेमर्द मैं रहती मजे में

जाने  कितने दिन हुए सिंदूर छूए

जाने कितने दिन हुए बिंदिया सजाए

 

पालने को पेट अपना

और अपने दुधमुँहे का

एक सुहागन बेचती है वेणियां और फूल

कोठे वालियों को

 

परपराती है

फटे होंठों पे बेमन की हँसी

बुढ़िया जैसी दीखती है षोडसी

 

देह लगती है

कि जैसे जूठी थाली

और मन जैसे खड़ी कोने दुनाली

 

अपनी खिड़की पर खड़ी उजड़ी हुई

बदनाम औरत

देखती है रोज़ मंदिर की तरफ़ जाते हुए

पुजारिनों को

 

उम्र

 

कम न लगे इसलिए एक साल जोड़ कर

कि अगले साल सत्तर का हो जाऊंगा

कुछ लोग अपनी उम्र

उपलब्धि की तरह बताते हैं

 

उन्हें याद नहीं

कि वरिष्ठ नागरिक और भी हैं

फादर स्टीफेंस जैसे

जिनकी पहचान उम्र पूरी करने से नहीं

उम्र लांघने से है

जैसे लालबहादुर वर्मा

 

बोरसी की ऊर्जा को कैलोरी में नापते

कैलोरी में खाते उम्र के बिस्तर पर पड़े उम्रदराज़ !

उम्र जिनके लिए शादी का एलबम है

 

कुछ ऐसे भी हैं जो उम्र को कवच बना लेते हैं

अभी उम्र ही क्या है

उम्र के पालने में लेटी मासूमियत

 

भूल जाते हैं

कि भगत सिंह अधेड़ नहीं पैदा हुए थे

न पाश बिना खेले खाए पाश हुए

बिरसा मुंडा के भी खेलने खाने के दिन बीते न थे

उम्र खटोला नहीं रही उनके लिए

 

कुछ लोग विषय सूची से पढ़ना शुरू करते हैं

उम्र की किताब

कुछ अंतिम पन्नों से

बीच बीच से उलटने पलटने वालों की भी कमी नहीं

उम्र की मिश्रित ज्ञान व्यवस्था में

 

उम्र नहीं

करता है आदमी

किताबें नहीं

करता है पाठक

 

सदी बूढ़ी हुई

नालंदा जला

ज्ञान नहीं

शरीर गया शहादत नहीं

 

उम्र निवृत्त लोग ही

उम्र के पुस्तकालय में हौसले की किताब सा

ताउम्र रहते हैं

 

उम्र एक पुस्तकालय है

जिसे आप नहीं पढ़ते तो दीमकें पढ़ती हैं

 

बहरी हो गयी है सरकार

 

थोड़ा ज़ोर से बोलो यार

बहरी हो गयी है सरकार

 

सच के भी हैं कई प्रकार

जनवादी, सरमायेदार

 

या तो घर या तो बाज़ार

पीठ ढकी  तो पेट उघार

 

पसरी हुई हथेली थी

अब जनता है मुट्ठीदार

 

जनता हुई लुगाई सी

और सरकारें हुईं भतार

 

इधर शरीअत आधे पर

और उधर है मनु की मार

 

उस ने गारे थे नींबू

तू अब काजू-पिस्ता गार

 

सोच की सारी  सीमाएँ

जा मिलती हैं सीमापार

 

केवल दरिया ही क्यों  हो

आँखें भी हों पानीदार

 

नाक  सुड़क और आँखें पोंछ

बहुत हो चुकी चीख-पुकार

जलमग्न विकास

 

विकसित तो हुआ जा सकता है

पर पसंद न आने पर वापस अविकसित नहीं

 

विकास की लौटान नहीं

आवश्कता अनुसार साइज़ डिजाइन मैटीरियल

मॉडल में परिवर्तन सम्भव है

विकास के बदले दूसरा विकास

शर्त यह कि उसका इस्तेमाल न हुआ हो

यानी आप आधा-अधूरा विकसित न हो चुके हों

 

देश ही नहीं धर्म का भी विकास होता है

शासन का धर्म छोड़ धर्म के शासन की स्थापना

मज़हब की बंदूक़ उठा मज़हब की तरफ लौटना

 

देखिए न!

अफ़गानिस्तान में इस्लाम कितनी तेजी से

विकसित हो रहा है

 

विकास वह खेत नहीं जिसमें जो चाहे बो-काट लो

पसंद न आए तो पैदावार बदल दो

अगली फ़सल के लिए परती छोड़ दो

विकास के खेत में केवल बिल्डिगें बोई जाती हैं

या असलहे

जिन्हें वापस खेत में नहीं बदला जा सकता

 

यूं समझिए कि काशी क्योटो बनाई जा सकती है

क्योटो को काशी में लौटा पाना सम्भव नहीं

 

स्मार्ट सिटी सावन में जलमग्न

सीवर शोधित महादेव का कंठ-गरल

 

गंगा तो काशी में थीं न !

गंगा थीं तो काशी थी

काशी बची नहीं तो क्योटो में गंगा की तलाश ही क्यों?

 

दुनिया बदल रही तो भगवान का परिसर

परिधान ही पुराना क्यों

टाई सूट में गंगा-निमंत्रित फ़कीर जम सकता है

तो जटाशंकर क्यों नहीं

 

महादेव के त्रिशूल पर बसे हम विनाश सहयात्री

निराश नहीं

शायद भोले भंडारी का तांडव विकासमान क्योटो में

पौराणिक काशी का पुनर्वास करा पाए !

सुरंग में जा रही काशी गलियों में आबाद हो सके

 

इधर मगहर के बगल में बसी गोरक्षनगरी भी तेजी से विकासमग्न है

जल-क्रीड़ा-रत

गोरख के चिमटे पर बसी आधुनिक  बस्तियां

बाबा मछंदरनाथ ख़ैर करें !

 

हम किसान हैं

 

हमें किसान समझ कर पढ़ा रहे थे आप अब तक

अब हम आपको पढ़ रहे हैं

जैसे पढ़ता है कोई भूमि-पुत्र खेतों को

 

अब तक हम ने आपकी आंखों देखा है

अब देख रहे हैं अपनी आंखों से आपको

 

आपके हाथों में थी हमारी उंगली

अब आपकी कलाई है हमारे हाथों में

 

हमारा सूरज कल तक आपके कंधों पर था

अब आपकी शाम हमारे कंधों पर है

 

कल तक आप हमें बो रहे थे

आज हम आपको काट रहे हैं

 

आपने हमें जोता है

हम आपको पलिहर कर रहे हैं

 

हम आपके मौसम थे अब तक

अब मौसम हमारी गिरफ़्त में है

 

हम किसान हैं

भूख के व्यापारी नहीं

फंदा लगा कर भले मर जाएं

कसम खा कर नहीं मरते

 

कल तक आपके बाज़ार में हम अधनंगे थे

आज हमारे खेत में बाज़ार नंगा है

 

हम किसान हैं

मिट्टी की धड़कन

हवा की चाल

बादल का चरित्र पहचानते हैं

 

चिलचिलाती धूप में पसीने का राग हैं

पानी में घुली आग हैं हम

हम दाने उगाते हैं

कीलें नहीं

 

हम अकेले नहीं जीते

खटिया पर नहीं मोर्चे पर मरते हैं

 

हम किसान हैं

अब तक आपको सुना रहे थे

अब आप को ग़रज़ हो तो हमें सुनिए

 

प्यास की ज़ात

 

दुह कर छोड़ दी गयी गाय ने

कूड़े में मुंह मारते हुए

बिसुक चुकी गाय से पूछा

बहन यह घास हिन्दू है कि मुसलमान?

 

हरी घास का स्वाद पगुराते वो बोली

यह कैसा सवाल है बहन

इंसानों के साथ रहते रहते तुम भी

दो पायों की तरह सोचने लगी हो शायद

वरना चौपायों के लम्बे स्वर्णिम इतिहास में

यह प्रश्न तो कभी उठा ही नहीं

मां का दर्ज़ा पायी इस बिरादरी के मुंह से हिन्दू मुसलमान !

राम राम !

अरे हमारी छोड़ो

घोड़ों के बीच भी कभी हिन्दू मुसलमान का प्रश्न नहीं उठा

 

माफ़ करना बहन

मैं तो यही जानती हूँ कि हरे को चबा पचाकर

सफ़ेद बना देना ही हमारा धरम है

और नाद भर भोजन के एवज में सुबह शाम

दुह लिया जाना हमारी राष्ट्रीयता

बाक़ी सब भरम

 

प्लास्टिक के थैले की गांठ

मुंह से झटकार झटकार

खोलने की कोशिश करती गाय का सारा ध्यान

बाहर से झलक रही बासी रोटी पर था

 

ठीक कहा बहन

जैसे मशीन वोट खाकर सरकार उगलती है

जैसे राजधानियां दुह लेती हैं गांव जवार की हुंकारी

वैसे ही हम भूसे को दुह लेते हैं

कल का अखबार चबाते हुए उसने कहा

 

जी

कीमत घास की नहीं दूध की है

जैसे मशीन सरकार उगल कर हो जाती है कबाड़

हम भी दुह लिये जाने के बाद मां से मवेशी हो जाती हैं

और मवेशी के बाद सिर्फ़ मांस

बिसुक गयी गाय ने जोड़ा

दोनों की आँखें एक दूसरे को टटोल रही थीं

 

छोड़ो बहन

ई बताओ तुम पानी कहां पीती हो?

 

अब यहां कोई नदी तो है नहीं

जहां है भी वहां सिमट गई है घाटों तक

घाट जिन पर कब्जा है पुरोहितों का

जहां हमारा प्रवेश वर्जित है

अब तो बछिया दान भी पे टी एम से हो जाता है

 

तो हमारी प्यास के लिए बचे यही गड्ढे ताल पोखर

वे भी अब विकसित हो चुके हैं

कई मंजिला विकसित

विकास जिसके गेट पर डंडा लिये चौकीदार खड़ा रहता है

 

पहली ने टोका

दीदी ‘चौकीदार’ नहीं दरबान कहो

जून जमाना ख़राब है

मुंह खोलने के पहले सोच लिया करो

शब्द के अर्थ कुछ होते हैं

ध्वनियां कहीं और इशारा करती हैं

 

ठीक है ठीक है

पर ई बताओ तुम पानी कहां पीती हो?

 

हम तो यहीं कहीं किसी कालोनी से निकलते में

मुंह खोंस लेते हैं

बास आती है

पर प्यास बुझ जाती है

 

अच्छा बहन घास और प्यास की छोड़ो

यह बताओ नाले से आती बास

हिन्दू है कि मुस्लिम?

पहली ने एक चोथ गोबर पेट के बाहर करते हुए पूछा

 

जबसे गोबर के महातम पर विश्वविद्यालयों में

अकादमिक चर्चाएं हो रही हैं

वह जहां-तहां

जब-तब गोबर कर देने की अपनी कुंठा से उबर चुकी है

 

उसने मन ही मन सोचा

कि बिसुकने के बाद भले ही वह दूध के धंधे के लिए

उपयोगी न रह गयी हो

पर गोबर के धंधे के लिए तो जिलाई-खिलाई जाएगी ही

बल्कि इफ़रात गोबर के लालच में अब उसे

पेट से ज्यादा खिलाया जाएगा

बूचड़खाने की त्रासदी भी न झेलनी पड़े शायद

आखिर उन्हें कमाई ही तो चाहिए !

जो बिके बीफ या गोबर

 

अरे वाह !

तुम सबने सोचना कबसे शुरू कर दिया?

 

स्वच्छता पुरस्कार प्राप्त कालोनी के पिछवाड़े

खुले पड़े कूड़ेदान से अपना हिस्सा खींचती

भैंस ने कहा

 

नाले वाली बास हो

या चौबिस डिगरी घूमने वाली कुर्सी पर बैठा ‘बास’

उसके हिन्दू मुसलमान पर सोचने के पहले

यह सोचो कि प्यास हिन्दू है या मुस्लिम?

 

तीनों की बातें ध्यान से सुन रही

कालोनी की इकलौती गाछ ने तुकबंदी की

घास

न बास

न प्यास

पहले ई बताओ कपास हिन्दू है कि मुस्लिम?

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