डॉ. राममनोहर लोहिया एवं मानवेन्द्र नाथ राय मेरी दृष्टि में भारत के सर्वाधिक मौलिक चिंतक हैं।
शिवमोगा के रेलवे स्टेशन पर मैंने लोहिया के प्रथम दर्शन किये थे। सागर से बेंगलोर जानेवाली रेलगाड़ी के उस डब्बे में केवल वही जग रहे थे। मैंने अपनी माँ की बनायी हुई फिल्टर कॉफी और नजदीक के जलपान गृह से लायी हुई इडलियाँ उन्हें दीं। वे सरकार के विरोध में उपवास पर थे इसलिए मुस्कुराते हुए उन्होंने कुछ भी लेने से मना कर दिया। थोड़ा पृष्ठभूमि बताऊँ। कागोडू सत्याग्रह के दौरान लोहिया ने खुद खेत में हल चलाये थे और किसानों के साथ गिरफ्तार हुए थे। वे जवाहरलाल नेहरू के घनिष्ठ मित्रों में गिने जाते थे। सरकार ने उन्हें सागर के बजाय बेंगलोर में गिरफ्तार किया था (यह सागर कर्नाटक के शिमोगा जिले में है)।
अंग्रेजी शब्दों को भी देशी ढंग से बोलने पर उनका जोर रहता था। वे मजिस्ट्रेट को मजिस्टर बोलते थे, यह कहते हुए कि यह उनका अपना अंदाज है। वे अमरीका गये थे। ऐसा माना जाता रहा कि कई बार नेहरू ने ही उनकी गिरफ्तारी नहीं होने दी। कई रोचक किस्से हवा में तैरते थे। उनमें से एक यह भी कि इंदिरा गांधी उनको पसंद करती थीं। एक बार जब लोहिया जेल में थे तब अखबार में छपा था कि इंदिरा गांधी ने उनके लिए आमों से भरी टोकरी पहुंचायी थी। कागोडू सत्याग्रह में शामिल होने लोहिया आये थे। कर्नाटक प्रांत के शिमोगा जिले में सागर के पास कागोडू एक गाँव है जहाँ स्वतंत्र भारत में पहला किसान-आंदोलन हुआ। मैं तब कॉलेज में द्वितीय वर्ष का छात्र था। समाजवादी विचारधारा को समझने में इस कदर रम गया था कि अकसर कॉलेज से गायब रहता था।
हम लोगों ने मिलकर एक समाजवादी क्लब बनाया था जिसका मैं सचिव था। विभिन्न समुदायों के युवा लड़के–लड़कियाँ इसके सदस्य थे। युवावस्था में कारंथ का साहित्य पढ़कर हमनें उत्साहित होकर अपने क्लब में उन लड़कियों को भी सदस्य बनाया था जो वेश्यावृत्ति में थीं। किसान आंदोलन खड़ा करने में गोपाल गौड़ा की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। मुझे सोशलिस्ट पार्टी की एक बैठक की याद है जिसमें ‘प्रजावाणी’ अखबार के संपादक सीजीके रेड्डी थे जो उन दिनों सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष थे। छह फुट के हट्टे-कट्टे जवान गरुड़ शर्मा भी आए थे जिन्होंने एक महीना कागोडू में रहकर समस्याओं का अध्ययन किया था। वे बाद में विनोबा भावे के कट्टर अनुयायी हो गये थे।
बैठक में रेड्डी ने प्रस्ताव रखा कि समाजवादी आंदोलन की शुरुआत कामगार-वर्ग से होनी चाहिए। लेकिन गोपाल, जो गाँव में जनमे थे, माओवादियों की तरह बोलने लगे। हमारे दल में कई कानून के जानकार थे जिन्होंने आंदोलन के भविष्य को लेकर घंटों बहस की। तब भीमकाय गरुड़ शर्मा खड़े हुए और अपनी गुरुगम्भीर आवाज में बोले– ‘सामने के पहाड़ को हम लोग अगर अपने बालों से बाँधकर खींचेगे, तो या तो पहाड़ उखड़ेगा या हमारे बाल। दो में से एक होगा।’ यह कहकर उनका बैठना हुआ ही था कि सब लोग जोश में आ गये और आंदोलन का बिगुल बज गया।
आंदोलन के दौरान किसान उग्र और हिंसक न हों, इसकी जिम्मेदारी लोहिया ने शर्मा को दी थी। शर्मा की कद-काठी और आवाज देखकर लोहिया ने सोचा होगा कि इस काम को वे ही बेहतर ढंग से कर सकते हैं। गरुड़ शर्मा ने जिम्मेदारी को निभाया भी बहुत अच्छे से।
कागोडू के भू-स्वामी ओडयार एक सुसंस्कृत व्यक्ति थे। वे शांतिनिकेतन में पढ़े थे, कांग्रेस के नेता थे। अच्छे वक्ता थे, मुस्कुराता हुआ चेहरा था। पर जो तय था वही हुआ। आखिर वे एक जमींदार थे। उपज का ज्यादा से ज्यादा हिस्सा वे चाहते थे। तंग आकर बँटाईदारों ने उनके साथ इतनी कम हिस्सेदारी में खेती करने में असमर्थता जतायी। ओडयार ने उन्हें निकाल बाहर किया। जैसे ही वे किसान खेत में हल चलाने पहुँचे, पुलिस उन्हें गिरफ्तार करके ले गयी।
लोहिया भी गिरफ्तार हुए। कर्नाटक के विभिन्न इलाकों से नौजवान इस आंदोलन में सम्मिलित होने पहुँचे थे जो गिरफ्तार होकर जेल पहुँचे। मैं तब विद्यार्थी था। सत्तर किमी. दूर शिवमोगा से उन सबको भोजन पहुँचाना मेरी जिम्मेदारी थी।
एक अनोखी घटना से मुझे समझ में आया कि गोपाल गौड़ा की विचार-यात्रा एक अनोखी दुनिया में चल रही है। पहले यह आम धारणा थी कि सिर्फ श्रमिक वर्ग से ही क्रांति संभव है। लेकिन चीन में माओत्से तुंग और भारत में महात्मा गांधी ने यह साबित किया कि किसान भी क्रांति कर सकते हैं। बचपन में गोपाल मवेशियों की देखभाल करता था। वह एक डाकिये का बेटा था। गरीबी झेली पर आत्मसम्मान की भावना नहीं छोड़ी थी। उसे पक्का यकीन था कि कागोडू के किसान क्रांति कर सकते हैं।
ज्यादातर किसान वहाँ के कांग्रेस-नेता गणपतैया के साथ जुड़े थे। उन दिनों शिवमोगा में काडीडाल मनजप्पा गणपतैया कांग्रेस के प्रमुख नेता थे। विचार और व्यवहार से वे गांधीवादी थे, लेकिन वे विपक्ष के नेता थे। किसान संगठन ‘रैयत संघ’ के मुखिया भी वही थे। हमारे एक प्रिय नेता वाई.आर. परमेश्वरप्पा का मानना था कि गणपतैया अपनी पार्टी के प्रति इस कदर वफादार हैं कि किसानों को किसी आंदोलन के लिए वे तैयार नहीं कर सकेंगे।
लोहिया के प्रति मेरे मन में प्रेम और आदर था, किन्तु मैं कुछ मुद्दों पर उनसे सहमत नहीं हो पाता था। ‘वाणी का स्वातंत्र्य बनाये रखिए, पर कर्म में एकता जरूरी है’ यही कहते हुए वे अकसर अपने दल से अलग होते गये। गैर-कांग्रेसवाद के नाम पर नेहरू का विरोध करने के लिए वे किसी से भी हाथ मिला लेते थे। मैंने एक बार उनसे कहा- ‘मैं नेहरू को पसंद करता हूँ, आप उनकी इतनी कड़ी आलोचना क्यों करते हैं।’
महात्मा गांधी के बलिदान के बाद नेहरू उनके अंतिम संस्कार के समय उनके बिलकुल पास बैठे थे। लोहिया एक भाषण में बोले– ‘यहाँ बैठने का हक केवल गांधी के परिवार के लोगों को है। नेहरू ने महात्मा गांधी के उत्तराधिकारियों की जगह भी हथिया रखी है।’ यह जानकर मुझे लगा कि लोहिया बेमतलब में निष्ठुर हैं।
लोहिया ने धैर्य से मेरी यह शिकायत सुनने के बाद कहा था- ‘नेहरू में बहुत सी अच्छाइयाँ हैं, वे अगर अपने बाद परिवार से बाहर किसी को उत्तराधिकारी बनाएं तो मैं उनकी अच्छाइयों पर बोलूंगा।’
लोहिया निरंतर ऐसे बोलते रहे कि अनेक लोग आहत होते रहे। जयप्रकाश नारायण भी उनसे अलग हुए थे। जीवन के अंत में जेपी ने कहा था कि देश में सही मायने में अगर किन्हीं दो लोगों ने विपक्ष का निर्माण किया है तो वे हैं लोहिया और राजाजी। जेपी जानते थे कि नेहरू का विरोध करने पर ही भारत में कोई विपक्ष बन सकता है, क्योंकि गांधी एवं नेहरू की सोच का बड़ा अंतर सामने आ गया था। चूंकि नेहरू ने उद्योगों को बढ़ावा दिया वामपंथी भी उनके साथ थे। लोहिया अगर मानते थे कि नेहरू, गांधी से दूर जा रहे हैं तो उसकी बुनियादी वजह यही थी।
(यू.आर.अनंतमूर्ति का डॉ राममनोहर लोहिया पर यह संस्मरणात्मक लेख उनकी आत्मकथा सुरगी में यहाँ-वहाँ बिखरे अंशों से तैयार किया गया है, और यह आईटीएम यूनिवर्सिटी, ग्वालियर से प्रकाशित ‘डॉ राममनोहर लोहिया : रचनाकारों की नजर में’ नामक पुस्तक में संकलित है।)