तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था

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मजाज़ लखनवी (19 अक्टूबर 1911 - 5 दिसंबर 1955)

— शैलेंद्र चौहान —

हने की जरूरत नहीं कि आज मजाज़ दह्र पे छाए हुए हैं। लेकिन हिंदी हो या उर्दू अदब, मजाज़ का मूल्यांकन ठीक से आज तक नहीं किया गया। एक तरक्कीपसंद शायर, जिसने कभी नरगिस को देखकर कहा था- तेरे माथे पे यह आँचल बहुत ही खूब है.. लेकिन, तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था..। या फिर, ब-ई-रिंदी मजाज इक शायरे मजदूरों-दहकां है यानी खुद को किसान और मजदूर का शायर कहा।

मजाज़ का जन्म उत्तर प्रदेश के रुदौली कस्बे में हुआ था। मजाज़ ने उर्दू शायरी में जो मकाम हासिल किया, वह बहुतों के हिस्से नहीं आया। मजाज़ की मकबूलियत का आलम यह था कि उनकी नज़्में दूसरी भाषाओं में भी खूब सराही गयीं। खुद उर्दू में उन्होंने भाषा के नये पैमाने गढ़े।

असरारुल हक़ मजाज़ (19 अक्तूबर, 1911 – 5 दिसम्बर, 1955) की जिंदगी काफी कष्टों में गुजरी। उनका परिवार भी मजाज़ को लेकर काफी फिक्रमंद रहा और पाई-पाई उनके इलाज में खर्च कर दी। कभी-कभी हालात इतने बेकाबू हो जाते कि बेटे के हाल पर माँ को रोना आता। वह खुदा से कहने लगतीं- या इलाही, या तो मुझे उठा ले या मेरे बेटे को। माँ के सीने में उभरता दर्द, पिता की बेबसी और बहनों की लाचारी… बहुत कुछ कह जाती है। इनका जिक्र अकसर नहीं होता। इसकी जानकारी उनसे संबंधित बहन के पत्रों और संस्मरणों से होती है। मजाज़ की बहन सफिया अख्तर के पत्र और छोटी बहन हमीदा सालिम के संस्मरण निजी जिंदगी की परेशानियों से रूबरू कराते हैं। सफिया की कैफियत यह है कि वह आज के मशहूर गीतकार जावेद की माँ थीं। उनके पति का नाम जांनिसार अख्तर था, जो खुद भी एक बड़े शायर थे और मजाज़ के दोस्तों में शुमार थे। सफिया के पत्रों का संग्रह पाकिस्तान से प्रकाशित है। नाम है सफिया के खुतूत जांनिसार अख्तर के नाम। पत्र तो काफी हैं, लेकिन दो पत्र मजाज़ से संबंधित और खास हैं। ये पत्र मजाज़ की दिमागी हालत, उर्दू अदब की बेगैरत दुनिया से बावस्ता कराते हैं।

पहले पत्र 12 मई, 1952 को जांनिसार अख्तर को लिखा गया पत्र है। मजमून देखें-

अच्छे अख्तर, बहुत सा प्यार

खत मिला। चलो, एक खत तो मेरा तुम तक पहुँच गया। गनीमत है। इस डाक के इंतजाम को अल्लाह समझे।

यहाँ इस तरफ तकरीबन हर रोज शाहिद परवेजी, यूसुफ इमाम, सुहैल अजीमाबादी की तहरीरें आती रहीं। इसरार भाई (मजाज़) की दिमागी हालत का ये आलम हो गया था कि कलकत्ता (अब कोलकाता) की सड़कों पर भीख माँगने की नौबत थी। अंसार भाई यूसुफ इमाम को हमराह लेकर कल रांची पहुँचे हैं और कल रात ही दाखिला की इत्तिला का तार आया है। उनकी दिमागी हालत को देखते हुए हवाई जहाज से ये सफर मुकम्मल करना पडा। पूरा एक हजार इस सई व काविश की नजर उबाला हो चुका है। इस जईफी के आलम में जिस इस्तकलाल से वो इन तमाम परेशानियों को बर्दाश्त कर रहे हैं। इससे मेरे जेहन पर उनकी अज्मत का नक्श बहुत गहरा होता जा रहा है। तुम लिखना कि सुहैल से तुम्हारी कैसी वाकफियत है और ये किस तरह के आदमी हैं। अब इसरार भाई की देखभाल का जरिया उन्हीं को बनाया जा सकता है।

पत्र में अब घरेलू बातों की चर्चा है और अंत में लिखा है-

अच्छा अख्तर मुझे और अपनी अजीज अमानतों को अपने प्यार से जिंदा कर जाओ।

तुम्हारी सफ्फो

 

अब दूसरा पत्र भी देखें-

तारीख है 3 नवंबर 1952

.. प्रकाश (प्रकाश पंडित) का खत आया है। उसने लिखा है कि ‘मजाज़ फंड’ की अपील शाया करने की इजाजत उसने तुमसे कलकत्ता में ले ली थी। दिलचस्प बात है मैंने खत लिखवा दिया है कि मुझे अख्तर की गय्यूर तबीयत पर इस दर्जा एतमाद है कि यकीन नहीं आता कि उन्होंने मजाज़ के जुनून और बेजारी का ढिंढोरा रिसाले के जरिए पीटकर पढ़ने वाले से दो-दो चार-चार रुपयों का चंदा वसूल करने का मशविरा दिया हो।

अख्तर, तुम जानते हो इसरार भाई अस्पताल से डिस्चार्ज होने वाले हैं। अब इस एक महीने के लिए दूसरों के आगे हाथ फैलाने से क्या हासिल?

शाहकार (पत्रिका) वाले अपने सर सेहरा बाँधना चाहते हैं, लेकिन मजाज़ फंड का हश्र तो सुनो कि मजाज के नाम पर यहाँ पिछले महीने सिर्फ सत्रह रुपये चार आने जमा हो सके। इससे उर्दू वालों की अदब दोस्ती का भी अंदाजा कर लो।

बहुत सा प्यार, तुम्हारी सफिया

इस पत्र से उर्दू वालों की दरियादिली की भी जानकारी मिलती है कि कितने दरियादिल थे मजाज़ को लेकर। पत्र में कई शायरों का जिक्र है। सुहैल अजीमाबादी, प्रकाश पंडित, जोश महीलाबादी आदि। प्रकाश पंडित और जोश किसी परिचय के मोहताज नहीं है। दोनों उनके मित्र थे। सुहैल भी। सुहैल तब रांची में रहते थे और उर्दू के प्रचार-प्रसार के लिए काफी सक्रिय थे। रांची में मजाज़ की देखभाल सुहैल और अपने ज़माने के मशहूर कथाकार राधाकृष्ण करते थे। राधाकृष्ण के पुत्र सुधीर लाल बताते हैं कि दोनों हाथरिक्शे से पागलखाना जाते और उनका हालचाल लेते रहते।

रांची में भर्ती के वाकये का जिक्र उनकी छोटी बहन हमीदा सालिम भी करती हैं। लिखती हैं, दिल्ली से जोश साहब का खत आया कि मजाज़ को आगरा भेज दिया जाए। मजाज़ और आगरा का पागलखाना! दिल पर कैसी चोट लगी। लेकिन मजाज़ पागल था। इस हकीकत से क्योंकर इनकार हो सकता था। पागल को आखिर कहाँ तक और कैसे भुगता जाता। जोश साहब को मैंने पत्र लिखा कि अपनी पहुँच का इस्तेमाल कर रांची में जगह दिलवा दें। जोश साहब को खत मिला या नहीं, मैं जवाब के इंतजार ही में रही। डॉक्टर दिवेश, रांची हस्पताल के इंचार्ज से सीधे पत्रों से संबंध साधा और जगन भय्या (मजाज़ को वे जग्गन ही बुलातीं) की लाइफ हिस्ट्री लिखकर भेजी। शायद उनके जीवन की घटनाओं से असर लेकर उसने बी क्लास वार्ड में एक बेड दे ही दिया।… मजाज़ को मुश्किल से रांची भेजा गया। पिता ने अपनी पूँजी की आखिरी कौड़ी उन्हें बचाने में लगा दी। और छह महीने बाद वह बचकर आ गये।

हालांकि मजाज़ की वापसी के एक महीने बाद ही सफिया अख्तर का निधन हो गया। इस सदमे का असर उन पर बिजली गिरने जैसा हुआ।

रांची में जब भर्ती हुए तब उन्हें तीसरा और अंतिम नरवस ब्रेक डाउन हुआ था। पहला, 1940 में हुआ। दिल्ली के कयाम के दौरान उनके दिल पर जो चोट लगी उसी का नतीजा था। मुहब्बत में नाकामी आदमी को आदमी नहीं रहने देती। इलाज हुआ। चार-छह महीने के लिए बड़ी बहन के साथ नैनीताल चले गये और वहां से तंदुरुस्त होकर आ गये। जिंदगी आहिस्ता-आहिस्ता पटरी पर आने लगी। पर होनी को कुछ और ही मंजूर था। मजाज़ के पैरों में शादी की बेड़ियाँ डालने की कोशिशें शुरू हुई। शायद, जीवन के पतझड़ में बसंत के फूल खिल सकें। बात आगे बढ़ी। पर, लडकी के प्रिंसिपल पिता को यह गवारा न हुआ कि मजाज़ डेढ़ सौ रुपये महीना कमाते हैं। रिश्ता बनने से पहले टूट गया।

इसका असर यह हुआ कि मजाज को दूसरी बार 1945 में दीवानगी का हमला हुआ। डॉक्टरों की कोशिश और जीतोड़ तीमारदारी और दिलजोई से किसी तरह काबू में आ गये। लेकिन जिंदगी का ढर्रा बदल न सका। तीसरी बार हमला 1952 में हुआ। इस बार उन्हें रांची में भर्ती कराया गया। यहाँ वे मई से नवंबर तक रहे। रांची के कांके स्थित केंद्रीय मनोचिकित्सा संस्थान में 1986 के पहले के रिकार्ड जला दिये गये हैं। इसलिए सही-सही भरती और उनकी छुट्टी का पता नहीं चल सका। खैर, पत्रों से पता चलता है कि मई में भर्ती हुए और नवंबर-दिसंबर में यहां से छुट्टी मिली। यहाँ से भी ठीक-ठाक होकर वापस चले गये। पैरों में बेड़ी डालने की कोशिशें फिर की गयीं, लेकिन नाकाम रहीं। इश्क की नाकामी और तन्हाई उन्हें शराबनोशी की ओर ले गयी। दोस्तों ने भी आग में घी डालने का काम किया और एक दिन, उन्हें जाड़े की ठिठुरती रात में पीने-पिलाने के बाद उनके दोस्तों ने सड़क पर छोड दिया। दिमाग की नसें फट गयीं। किसी राहगीर की नजर पड़ी। उन्हें सीधे बलरामपुर अस्पताल पहुँचाया गया। तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

5 दिसंबर, 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के गठन के तीन साल बाद 18 वर्षीय एक नौजवान ने अपना तआरुफ कुछ इस तरह कराया- खूब पहचान लो असरार हूँ मैं, जिन्स-ए-उल्फत का तलबगार हूँ मैं। फित्न-ए-अक्ल से बेजार यह असरार जब मजाज़ बना तो उसकी राह 1932 में स्पष्ट हो चुकी थी। दुर्भाग्य यह कि हमारे देश के नक्काद (आलोचक) उन्हें कभी इंकलाब के साँचे में फिट करते तो कभी उर्दू का कीट्स करार दे अपनी ऊर्जा जाया करते रहे। मजाज़ को मजाज़ की नजर से देखने की कोशिश नहीं की गयी।

मजाज़ की कब्र

देखा जाए तो मजाज़ की जिंदगी में सुर्ख रंग ही छाया रहा। इश्क, इंकलाब या मए गुलफाम (लाल शराब) सभी रूपों में। एक नजरिये से देखें तो इसी सुर्ख रंग ने उनकी जिंदगी गर्क कर दी जबकि दूसरे ने मजाज़ को मजाज़ बनाया। उनकी नज्मों में इस तरह के शब्द बार-बार आते हैं- हुस्न, इश्क, शोक, हिज्र, मस्ते-बाद-ए – दहशत, सहबा, शराबनोशी, साकी, मैकद-ए-दह्र, बादाकश (शराब)। और, ये दो लफ्ज जुनूने इश्क और शराबनोशी, उनकी जिंदगी से कभी रुखसत नहीं हुए। यहां तक कि रहे शौक (प्रेम मार्ग) से जफा चाहने के बाद भी। मन, दिल, धड़कन सब अबस। परिणाम, पागलखाने तक का सफर। रात हँस–हँस के ये कहती है कि मयखाने में चल

फिर किसी शहनाज़-ए-लालारुख के काशाने में चल

ये नहीं मुमकिन तो फिर ऐ दोस्त वीराने में चल

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ …………..

मजाज़ जब रांची के पागलखाने (अब उसका नाम केंद्रीय मनोचिकित्सा संस्थान है) में भरती थे तो सलाम मछलीशहर ने एक पुरदर्द नज्म कही थी, जिसके कुछ मिसरे यूं हैं- …जैसे रांची की पहाड़ी से ये आती हो सदा… अब भी कुछ होश है बाकी तेरे दीवाने में, तेरा दीवाना गमे दहर पे छा जाएगा..।

1955 का वह मनहूस दिन इस महान शायर की जिंदगी का अखिरी दिन साबित हुआ।

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