विडंबनाओं के बीच कुछ लयदार लम्हे

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— सूर्यनाथ सिंह —

मडी सिंह यानी मुनि देवेंद्र सिंह। प्रकृति से सचमुच के मुनि हैं। अथक साधक। कई क्षेत्रों में एकसाथ सक्रिय। चिकित्सा विज्ञान उनका पेशा है, शोध उनकी वृत्ति और कविता, समाज-संस्कृति चिंतन उनके संवेदनात्मक संस्कार। इन सब में वे एकसाथ सक्रिय रहते हैं। कविताएं वे न केवल हिंदी में लिखते हैं, बल्कि भोजपुरी में भी उतने ही दमदार ढंग से उपस्थित हैं। कविता के रंग उनके यहां कई हैं- मुक्त छंद, छंदमुक्त, दोहे, सवैए के रूप में भी, गीत और गजलों के रूप में भी। भोजपुरी में लिखे उनके गीतों को कई नामचीन गायकों ने स्वर दिया है, उन्हें सुर में बांधा है। हैरानी होती है कि कोई व्यक्ति इतने अलग-अलग फ्रेमों में कैसे एकसाथ काम कर सकता है। यह जिज्ञासा मैंने एक बार उनसे प्रकट भी की थी। उन्होंने बड़े सहज भाव से कहा कि- ‘दरअसल, एक ही काम में देर तक अपने को लगाये रहने से दिमाग थक जाता है। बोरियत होने लगती है, ऊब हो जाती है। फिर काम में मन नहीं लगता। शरीर भी थक जाता है। इसलिए थोड़ी-थोड़ी देर में काम बदलते रहिए, तो ऊर्जा बनी रहती है।’ इस तरह फ्रेम बदल-बदल कर काम करना और परफेक्शन के साथ, संपूर्णता में करना सचमुच साधना से ही संभव है।

उनका नया गजल संग्रह आया है- रोजनामचा। नाम से भ्रम हो सकता है कि यह डायरी होगा। मगर है यह गजल संग्रह। इसे डायरी भी कह सकते हैं। गजल में डायरी। डायरी का कोई बना-बनाया प्रारूप तो है नहीं कि उसी ढंग से लिखी जानी चाहिए। वह गद्य में लिखी जा सकती है, तो पद्य में भी। गजलों में भी लिखी जा सकती है। फिर डायरी केवल आपबीती का अभिलेख तो नहीं। वह जगबीती भी हो सकती है- जगदर्शन के मेले की रपट भी तो हो सकती है। एमडी सिंह के रोजनामचा में दरअसल, आपबीती कम, जगदर्शन के मेले की मनसायन अधिक है। जो रोज उनके आगे घटित हो रहा है, उसे देख कर उनके भीतर जो हलचलें उठती हैं, वही गजलों में फूट बही हैं।

एमडी सिंह

यों हिंदी में जब से गजल विधा शुरू हुई है उसमें लगातार नए-नए प्रयोग देखने को मिलते रहे हैं। अब तो इस विधा ने कुछ इस तरह अपने आप को विकसित कर लिया है कि इसमें मीटर वगैरह का भी अनुशासन लगभग समाप्त हो गया है। भाषा के स्तर पर इसमें गजब का लचीलापन आया है। उर्दू, हिंदी के अलावा इसमें बोलियों के शब्दों ने बहुत खूबसूरती से अपना स्थान बनाया है। अच्छी बात यह भी कि इससे गजल का अपना प्रभाव कहीं नहीं खोया है। हिंदी गजल और सुंदर हो उठी है। एमडी सिंह चूंकि हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी के अलावा भोजपुरी के भी मर्मज्ञ हैं, गजलों में वे भाषा के साथ खुल कर खेलते देखे जाते हैं।

गजल दरअसल, सुंदर और असरदार तरीके से बात कहने का एक ढंग है और एमडी सिंह इस मामले में पूरी तरह सफल हैं। वे बातचीत की शैली में गजलें कहते हैं। जैसे सामने बैठ कर बोल-बतिया रहे हों। इस तरह उनकी गजलों में मुहावरे, कहावतें, लोक में प्रचलित सूक्तियां वगैरह बड़ी सहजता से उतर आती हैं। हालांकि गजल को लेकर एक रूढ़ धारणा यह रही है कि उसमें रूमानियत अनिवार्य तत्त्व है, मगर बहुत पहले गजल विधा ने उससे खुद को मुक्त कर लिया था। उसके मिजाज में रूमानियत बेशक हो, पर बातें दुनिया जहान की होती रही हैं। जीवन के गूढ़ अर्थ उनमें खुलते रहे हैं। जिंदगी के फलसफे उसमें डिस्कस होते रहे हैं। एमडी सिंह ने भी रूमानियत का मोह नहीं पाला। उनकी गजलों में बदलती दुनिया के रंग, राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों के कील-कांटे हैं, तो जीवन की आंतरिक लय को समझने के प्रयास भी। इस तरह वे कहीं-कहीं खासे दार्शनिक अंदाज में भी उतर आते हैं।

जबसे दुनिया सिमट कर एक कुनबे में बदली है, मुट्ठी में बंद हो चली है, हमारे चौगिर्द हर पल कुछ न कुछ ऐसा घटता रहता है, जो टीस पैदा करता है। विडंबनाएं कुछ अधिक तेजी से उभरनी शुरू हुई हैं। विडंबनाओं के कुछ युग्म तो जैसे स्थायी हो चले हैं। खुशहाली के वादे और बदहाली के विकास का युग्म, सुशासन और तानाशाही का युग्म, खुलेपन का घोष और बंददिमागी का युग्म। इस तरह झगड़े बढ़े हैं। टकराव की नई-नई स्थितियां पैदा हुई हैं। एमडी सिंह इन स्थितियों का बयान रूपकों में नहीं, सीधे-सीधे करते हैं।

ये तल्खियां तकरार तक जाएंगी
रंजो गम के इजहार तक जाएंगी

कोई रास्ता निकल गया तो ठीक
वर्ना बातें हथियार तक जाएंगी

जहां खुद को श्रेष्ठ और बलशाली साबित करने की जिद हो वहां बात से रास्ते तो भला कहां निकलते हैं, हथियारों की खनक ही सुनाई देती है। पूरी दुनिया इसी अकड़, दंभ और जिद में मानवीय मूल्यों को तज, तलवारें खींचे बैठी है। एमडी सिंह के ये शेर किसान और सरकार की तकरार पर नुमायां हैं, पर ऐसी तल्खियां तो न जाने कितनी पैदा हो गई हैं। मगर विडंबना यह भी कि तल्खी और तकरार से जिंदगी के रास्ते नहीं निकलते, यह जानते हुए भी सत्ताएं इन्हें लगातार बनाए रखने का प्रयास करती हैं। तनाव में सुकून तलाशती रहती हैं। तनाव वे खुद पैदा करती हैं। फिर सपने बोती हैं सुख के। तनाव भरे माहौल में सुख के सपने भला किसे आते हैं, मगर सत्ताओं का फरमान है कि सुख के सपने देखो।

आजकल सुख के सपने आते हैं
कुछ पराए कुछ अपने आते हैं

जाकर जनसभा में मैंने देखा
कुछ तापने हम तपने आते हैं

गुंजाइश बहुत है गांव में फिर भी
क्यों जाने शहर खपने आते हैं

इसीलिए एमडी सिंह बिल्कुल गंवई अंदाज में सलाह भी देते हैं कि-

न कौवे के पीछे भाग अपने कान को तो देख
फंसी आखिर वो कहां है अपनी जान को तो देख

मगर ऐसी सलाहें तो जमाने से दी जाती रही हैं, उन्हें मानता कौन है। बड़ी विडंबना यह नहीं, बल्कि यह है कि ऐसी सलाहों को न मानने देने की युक्तियां रचनेवाले वर्चस्वी हैं। वे अपनी साजिश में कामयाब हो जाते हैं कि लोगों को पता ही न चले कि आखिर उनकी जान कहीं फंसी भी है। छद्मों का ऐसा ताना-बाना, ऐसा जाल बुन गया है कि अफवाहों, झूठी खबरों, राजनीतिक तिकड़मों का भेद आम आदमी को पता ही नहीं चल पाता। एक सूचना सनसनाती हुई सच की तरह दौड़ती या दौड़ाई जाती है और वही पूरे समाज पर छा जाती है। फिर भागने लगता है आदमी कौवे के पीछे। उसकी जान गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार वगैरह वगैरह के बीच फंसी है, उसे अहसास तक नहीं होता। इसलिए एमडी सिंह अनेक जगहों पर विडंबनाओं को व्यंग्य में खोलते हैं-

लड़ें नहीं लोग तो काजियों का क्या होगा
डरें नहीं लोग तो पाजियों का क्या होगा।

या फिर यह व्यंग्य कि-

शोहरत मिलेगी यार शरारत की बात कर
बेवजह न दौड़ भाग हरारत की बात कर

एमडी सिंह बातों को बिल्कुल सपाट तरीके से रखते हैं। बहुत आलंकारिकता के मोह में नहीं पड़ते। उनकी सपाटबयानी में वर्तमान और विगत का बहुत कुछ खुलता चलता है। वे सीधा, सपाट कहते हैं और सीधे दिल पर चोट करते हैं। इस तरह उनकी गजलें हिंदी गजल विधा में कुछ नई कड़ियां जोड़ने का प्रयास करती हैं।

रोजनामचा : एमडी सिंह; प्रलेक प्रकाशन, 602, आई-3, ग्लोबल सिटी, विरार (वेस्ट), मुंबई; 350 रुपए।

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