स्वराज-यात्रा की समाजवादी दिशा – चौखम्भा राज : आनन्द कुमार

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(दूसरी किस्त)

स्वराज के प्रकाश को हर गाँव और प्रत्येक व्यक्ति तक पहुँचाने की चुनौती के कई समाधान देश के नीति-निर्माताओं के सामने थे। इसके लिएपहले आजादीकी पूँजीवादी विधि को यूरोप के उपनिवेशवादी देशों ने अपनाया था। रूसी और चीनी क्रांतियों के बादलोकतांत्रिक केन्द्रीयकरणके कम्युनिस्ट रास्ते के नाम पर अधिनायकवाद का काहिरा (मिस्र) से जकार्ता (इंडोनेशिया) तक तीसरी दुनिया में प्रसार हुआ था। लेकिन इन दोनों तरीकों में स्वतंत्रता के अधूरेपन की समस्या थी। राजनीतिक बनाम आर्थिक अधिकारों का सवाल था। इन दोनों से अलग समाजवादियों ने  नव-स्वाधीन देशों मेंकम पूँजी, सांस्कृतिक विविधता और सघन जनसंख्याके सच की चुनौती को पहचानने पर जोर दिया। बिना समता और सम्पन्नता का संयोग बनाये दोनों लक्ष्य आधे-अधूरे रहेंगे। फिरन्याय और व्यवस्थाकी आड़ में जनसाधारण के जनतांत्रिक अधिकार पर आँच आएगी। अथवा सीमित साधनों पर प्रभु वर्गों या तुलनात्मक दृष्टि से मजबूत समुदायों और क्षेत्रों की दावेदारी से राष्ट्र की एकता ही खतरे में पड़ सकती है।

दूसरे शब्दों में, स्वराज को सार्थकता देने के लिए राष्ट्रीय एकता, समावेशी  लोकतंत्र, न्यायमूलक अहिंसा, गतिशील विकेंद्रीकरण और संभव समता के बीच निरंतर समन्वय को अनिवार्य माना। इस सन्दर्भ मेंगरीबी और गुलामी के योजनाबद्ध निर्मूलन के लिए आर्थिक और राजनीतिक विकेंद्रीकरणआधारित  समाजवादी दिशा अपनाने की सैद्धांतिक विवेचना 1951 और 1962 के बीच डा. रामनोहर लोहिया ने नीति-वक्तव्यों और दो चुनाव घोषणापत्रों के माध्यम से देश के सामने रखी। समाजवादियों ने इस योजना पर बल देने के लिए साठ के दशक मेंचौखम्भानामक हिंदी साप्ताहिक भी प्रकाशित किया। राजनीतिक समीक्षकों के अनुसारचौखम्भा राज्य व्यवस्थाका सिद्धांत डा. लोहिया का आधुनिक राजनीतिक चिन्तन और जनतांत्रिक विमर्श में एक अनूठा योगदान है।

ऐतिहासिक दृष्टि से स्वराज के संकल्प को लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक से जोड़ा जाता है क्योंकि लोकमान्य तिलक ने 1916 में होमरूल लीग की स्थापना के समारोह में प्रथम उद्घोष किया था किस्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और हम इसे लेकर रहेंगे।यह उल्लेखनीय है कि कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के पथप्रदर्शक आचार्य नरेन्द्रदेव लोकमान्य तिलक के  अनुयायी थे। इसी क्रम में 1923 में देशबंधु चितरंजन दास और भारतरत्न डा. भगवानदास ने स्वराज की एक रूपरेखा प्रस्तुत करके एक राष्ट्रव्यापी विमर्श को आधार भी दिया।

नरेन्द्रदेव जी काशी विद्यापीठ में शिक्षक के रूप में डा. भगवानदास जी के निकट सहयोगी रहे। भगवानदास जी से जयप्रकाश नारायण और डा. लोहिया का भी आत्मीय संपर्क था। पूर्ण स्वराज को कांग्रेस का लक्ष्य बनाने के लिए नेहरू और सुभाष बोस ने 1929 में इंडिया इंडिपेंडेंस लीग की स्थापना की और इसमें नरेन्द्रदेव उनके सहयोगी थे। इसी मंच के प्रयासों से ही दिसम्बर, 1929 में संपन्न कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज का संकल्प किया गया था। 1934 में नरेन्द्रदेव,जयप्रकाश, लोहिया आदि के प्रयास से स्थापित कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने भी भारत के पूर्ण स्वराज्य को अपना लक्ष्य घोषित किया था।

गाँधीजी ने 1931 मेंयंग इण्डियामें लिखा किस्वराज एक पवित्र शब्द है; यह एक वैदिक शब्द है जिसका अर्थ आत्म-शासन और आत्मसंयम है। अंग्रेजी शब्दइंडिपेंडेंसअक्सर सब प्रकार की मर्यादाओं से मुक्त निरंकुश आजादी का या स्वच्छंदता का अर्थ देता है; वह अर्थ स्वराज शब्द में नहीं है.’… ‘हमारे सपनों के स्वराज में नस्ल या धर्म के भेदों को कोई स्थान नहीं हो सकता। उस पर शिक्षितों या धनवानों का एकाधिपत्य नहीं होगा– सबके कल्याण के लिए होगा। सबकी गिनती में किसान तो आते ही हैं, किन्तु लूले, लँगड़े, अंधे और भूख से मरनेवाले लाखों-करोड़ों मेहनतकश मजदूर भी अवश्य आते हैं।उन्होंने यह भी बताया किस्वराज से मेरा अभिप्राय लोकसम्मति के अनुसार होनेवाला भारतवर्ष का शासन.’...

गांधीजी की यह चेतावनी थी किसच्ची लोकशाही केंद्र में बैठे हुए बीस आदमी नहीं चला सकते। वह तो नीचे से हरेक गाँव के लोगों द्वारा चलायी जानी चाहिए.’. इस आदर्श को गांधी नेग्राम-स्वराजका विशेषण दिया।

गांधी मार्ग के अनुयायियों ने इस आदर्श को परिभाषित करने में आचार्य विनोबा भावे केस्वराज्य-शास्त्रसे प्रकाश पाया।विनोबा ने मानव-सापेक्ष स्वयंपूर्ण अहिंसक निर्दोष शासन पद्धति की रचना में ग्रामीणों के सहयोग से निर्मित स्वायत्त गाँवों की बुनियाद पर बनी प्रांतीय, राष्ट्रीय और वैश्विक व्यवस्था की जरूरत पर बल दिया था। गांधी-चिंतन को 1949 में श्रीमन्नारायण ने गांधीवादी संविधान की एक रूपरेखा के रूप में प्रकाशित किया।

इसी क्रम में जयप्रकाश नारायण ने 1959 में संसदीय लोकतंत्र की स्थापना के लिए बनाये गये भारतीय संविधान के शुरूआती दशक के खट्टे-मीठे अनुभवों के आलोक मेंभारतीय राज्य-व्यवस्था के पुनर्निर्माणकी एक योजना प्रस्तुत की। 

जेपी ने ध्यान दिलाया कि पाश्चात्य राज्य-व्यवस्था मनुष्य के सामाजिक स्वभाव और समाज के वैज्ञानिक संगठन दोनों के विरुद्ध है। पश्चिम में स्थापित संसदीय लोकतंत्र का सबसे गंभीर दोष केन्द्रीयकरण की ओर उसकी सहज प्रवृत्ति है। सत्ता और प्रशासन के केन्द्रीयकरण का एक स्वाभाविक परिणाम अधिकारी-तन्त्र पर निर्भरता है। इस अधिकारीतन्त्र की स्वेछाचारिता का प्रतिरोध कठिन होता है।  एक छोर पर राष्ट्रीय राज्य है और दूसरे छोर पर वैयक्तिक मतदाता है और बीच में शून्य है। वर्तमान लोकतंत्र की राज्य-व्यवस्था का निर्माण जिस ईंट से होता है वह वैयक्तिक मतदाता है। लोकतंत्र की सम्पूर्ण प्रक्रिया मतों के गणित पर आधारित है और व्यक्तिगत मतदाता समाज के परमाणु के रूप में मत देता है। इसमें एकाकी मतदाता दीन एवं असहाय बन जाता है। क्योंकि सत्ता-संचालन राजनीतिक दलों, उद्योगपतियों, बैंकरों, शक्तिशाली श्रमिक संगठनों और अन्य सुसंगठित हित-समूहों के बीच शक्ति-संतुलन से होता है। लोकतंत्र की संस्थाओं और प्रक्रियाओं में सहजीवन की अभिव्यक्ति नहीं होती। जबकि मनुष्य का समाज से सम्बन्ध जीवित काया से जीवित कोशाणु जैसा होता है।

जयप्रकाश नारायण की मान्यता थी कि गांधीजी ने संसदीय लोकतंत्र को बहुत पहले ही विफल घोषित कर दिया था।उनके द्वारा इंगित वैकल्पिक योजनाएँ भारत की परम्परा, मनुष्य के वास्तविक स्वभाव और मानव समाज के लिए कहीं अधिक सुसंगत थीं। क्योंकि समुदाय, स्व-विकास और सामुदायिक जीवन का स्व-नियमन प्राचीन भारतीय राज्य-व्यवस्था के विशिष्ट लक्षण रहे हैं।

सही ढंग की राज्य-व्यवस्था का अन्वेषण सामाजिक पुनर्निर्माण की वृहत्तर समस्या का ही एक अंग है। क्योंकि मनुष्य अकेला और दूसरों से कटा हुआ है। सामाजिक एकीकरण और मानव समुदाय का फिर से निर्माण करना ही मूल चुनौती है। वर्तमान भारतीय गाँव समुचित समुदाय नहीं हैं। वे किसी काल में ऐसे समुदाय थे लेकिन जाति, वर्ग, वंश, धर्म, राजनीति– ये सब उन्हें विभाजित करते हैं। सच्चे समुदाय में समागम होता है और उसमें सहकार और साहचर्य होता है। हितों की समानता होती है और विविधता में एकता की भावना होती है।

पश्चिमी देशों में औद्योगीकरण और नगरीकरण की सघनता और व्यापकता के कारण ऐसे समुदायों का निर्माण कठिन हो सकता है। परन्तु हम भारत के लोग और एशिया के अन्य अनेक देश इस उपक्रम का सूत्रपात करने का लिए अत्यंत अनुकूल स्थिति में हैं। हमारी कल्पना का समाजनगरीयऔरग्रामीणमें विभाजित न होकर सामुदायिक समाज होगा। विज्ञान के विकास के कारण नगर और ग्राम के बीच की विभाजन रेखा मिथ्या हो गयी है। सामुदायिक राज्य-व्यवस्था ही उस सहभागी लोकतंत्र की गारंटी हो सकती है जो हमारा आदर्श है और सभी लोकतंत्रवादियों का आदर्श होना चाहिए। अत: आज हमें उन तरीकों एवं साधनों की खोज करनी चाहिए जिनके माध्यम से अधिकाधिक लोग अधिकाधिक स्वशासन कर सकें। क्योंकि जिस हद तक लोकतंत्र सही अर्थ में सहभागी बनेगा उसी हद तक अधिनायकवाद की बाढ़ को रोका जा सकेगा।

यह सही है कि इस प्रसंग मेंविविधता में एकताके सिद्धांत की धुरी पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा 1931 के कराची प्रस्ताव द्वारा स्पष्टता का प्रयास किया गया था। राष्ट्रीय आन्दोलन के सबसे व्यापक मंच के तौर पर कांग्रेस द्वारा बहुभाषीय और बहुधर्मीय राष्ट्रीयता तथा भारत के प्रत्येक स्त्री-पुरुष के कुछ स्पष्ट नागरिक अधिकारों में आस्था को आधार बनाया गया था। इसके साथ ही देश के आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक प्रश्नों के समाधान के लिए स्वतंत्रता, संप्रभुता,राष्ट्रीय एकता  और संसदीय लोकतंत्र के चार स्तंभों पर निर्मित आधुनिक राष्ट्र-राज्य को सबसे बड़ी जरूरत बताया गया। इससे (क) लोकतंत्र के आधार परराष्ट्र-निर्माणऔर (ख) न्याय, स्वतन्त्रता, समता और बंधुत्व के आधार पर  ‘नागरिकता-निर्माणकी जरूरत की पहचान की गयी।

अपने आधे-अधूरे जनादेश और अति-असंतुलित बनावट के बावजूद भारत की संविधान सभा द्वारा 1949 में अपनाये गये संविधान के प्रथम पृष्ठ में ही प्राक्कथन के रूप में इसी दिशा का स्पष्ट शब्दों में आकर्षक तरीके से वर्णन किया गया है :

हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न,समाजवादी, पंथ-निरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक न्याय; विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता; प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए; तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढ़ाने के लिए इस  संविधान को आत्मार्पित करते हैं।”.

इसी दिशा को भारतीय राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्व के रूप में मान्यता दी गयी है। लेकिन इस संविधान में सहभागी लोकतंत्र और जनसाधारण की अपने सामुदायिक जीवन को दिशा देने की लिए जरुरी प्रतिबद्धता की कमी रही है।

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