
— मेधा पाटकर —
बिहार के ग्रामीण क्षेत्र में संगीत के साथ जोड़कर शिक्षा-कार्य करनेवाले घनश्याम शुक्ला जी के देहांत की खबर जब दिल को दहलाती हुई आ पहुँची, तो स्वीकार तो करना पड़ा लेकिन मन नहीं कर रहा मंजूर! एक अतिविनम्र, समाजवादी विचारधारा के साथ मानवीयता को ही बरकरार रखने के लिए सतत क्रियाशील व्यक्तित्व अचानक लुप्त हो गया है, देश और दुनिया की कैनवास से! लेकिन सिवान में सुने उनके वाद्यवृंद और विद्यार्थी दल के सुर-ताल आज भी कानों में गूँज रहे हैं। गूँजते रहेंगे।
अभी कुछ ही दिन पहले उनकी आवाज फोन पर सुनी, एक निमंत्रण के साथ। किसी अनोखे शिक्षक की प्रतिमा का अनावरण करने छपरा में बुला रहे थे। मैंने ना नहीं कहा….हिम्मत ही नहीं हुई लेकिन दिन तय करना रह गया तो वो चले ही गये!शिक्षा क्षेत्र क्या, परिवर्तन के व्यापक विचारों का दामन भी छोड़कर। न मुझे फोन पर बताया, न ही कुछ स्वयं की चिंता जतायी जबकि वे थे कैंसर से पीड़ित। दुनिया छोड़कर जाने के बाद उनके सहयोगी से पता चला कि वे नहीं बताते थे, ताकि हमें उससे दर्द या चिंता न हो, मरणप्राय अवस्था में भी।
शुक्ला जी के पास मुझे ले गये थे, राँची से प्रेमभाई श्रीवास्तव, जो हर वक्त सामाजिक सरोकार रखते, जेपी के नवनिर्माण आंदोलन से लेकर हर आंदोलन की और आंदोलनकारी की भी चिंता करते थे। प्रेम भाई के शब्दों में था घनशाम जी के बारे में प्यार और प्रशंसा! सिवान जिला तो जाना जाता रहा, कट्टर वामपंथियों के संघर्षों के कारण!
युवा आंदोलनकारी चंद्रशेखर के पुतले को, उसकी शहादत को नमन करके हम पहुँचे थे, शुक्ला जी के डेरे पर! शुक्ला जी ने बालिकाओं पर ध्यान देकर पुस्तकालय के माध्यम से समाज-शिक्षा को आगे बढ़ाया वैसे ही संगीत महाविद्यालय की अनोखी नींव रखी थी, सिवान जिले के पंजवार में!
उनका अपना ‘बड़ा परिवार’ उस अनोखे स्थान की महत्ता ही नहीं, योगदान दिनोंदिन बढ़ाता रहा। गांधी-लोहियावादी, समाजवादी विचारधारा के ही मंच और मोर्चों से वे हमेशा जुड़े रहे।
याद है कि सिवान के कई सारे बुद्धिजीवियों से भी मुलाकात हुई थी, न केवल कार्यकर्ताओं से! और गांव गांव से आए श्रमजीवियों से भरा था पंडाल…जहाँ बालक-बालिकाओं का कलासंभार पेश हुआ था। घनश्याम जी, जो ‘मास्टर’ थे, छुपे-छुपे से थे, न केवल मंच से बल्कि हर चर्चा और प्रकटीकरण से! लेकिन यह भी समझ में आ ही गया था कि वे, उनका मार्गदर्शन और अपार मेहनत, सब ओर छायी हुई थी। उनसे चंद समय हुई बातचीत में भरा रहा उनका अपार विश्वास, हमारे संघर्षों पर। नर्मदा के साथ हर कार्य से वे परिचित जान पड़े।
फिर हुई थी, मुलाकात दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में, जहाँ हमारे जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय की ओर से हमने 3 दिन तक ‘जन संसद’ लगायी थी। हर सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विषय पर, हर क्षेत्र के अनुभवी वक्ताओं की भरमार थी, जिसमें घनश्याम जी शुक्ला भी थे ‘जन सांसद’! अपने शांत, निस्वार्थ व्यक्तित्व के अनुसार उन्होंने बहुत संतोष व्यक्त किया था, उस आयोजन और ‘जन संसद’ की संकल्पना पर।
वह प्यार, भरोसा और अपेक्षाएँ, और उनके अपने धीर-गंभीर व्यक्तित्व की छाप मेरे मन पर, कइयों के जीवन पर छोड़कर चले गये मास्टर घनश्याम शुक्ला जी। उनका संगीत महाविद्यालय तो चलता रहेगा, उन्होंने ही रखी थी नींव, प्रेमभाई की भी प्रेरणा थी। लेकिन उनके जीवन-गान के सुर हो गए है, निःशब्द!
अस्सल ‘मास्टर’ जी को मेरी श्रद्धांजलि!
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