1. पंखा
खीर-पूड़ी नहीं बनायी इस बार पितर पक्ष में
न पंडित जिमाए
न दी दान-दक्षिणा
एक पंखा खरीदा छत से लटकाने वाला
दे आयी दर्जी मज़ीद अहमद को
इमारत के सामने खाली प्लॉट में झोंपड़ी डालकर
रहता है मज़ीद
कलई उघड़े चंद बासन
और एक अदद सिलाई मशीन के साथ
दुबला-पतला युवक है भागलपुर से आया
गरीब है पर हाथ में हुनर है
उमस में पसीजते उसे देखा तो पूछा
‘एक पंखा क्यों नहीं ख़रीदते?
काम तो तुम्हारे पास बहुत आता है
‘सो तो है पर महीन काम है न तुरपई-उधड़ई का
इतना कहाँ कर पाता हूँ ‘
कितना रुपया होने से तुम पंखा ले पाओगे – मैंने पूछा
‘सौ रुपिया रोज हो तो ठीक’ फिर जरा अटका
‘अस्सी होने पर भी बच सकता है
पर साठ से ज़्यादा हो नहीं पाता
बीमार भी तो पड़ता हूँ बीच-बीच में’
देखा है उसे मैंने झिलंगी खाट में
बेसुध पड़े हुए
तब ही से सोचती थी उपहार में दूँ एक पंखा
बजट का हिसाब लगाया छह-सात सौ से कम
क्या आएगा!
तब क्या हो सकता है?
उपाय कौंधा :
आश्विन मास इस बार ब्राह्मण विहीन रखा जाए
पुरखे नाखुश नहीं होंगे
हवा लगेगी उन्हें भी मज़ीद जब चलाएगा पंखा।
2. लिखो कुछ और भी
कवि , तुम हमेशा दुःख यातना और उदासी
और ऊब ही क्यों लिखते हो
लिखो कुछ और भी …
होठों पर आया वह जरा -सा
स्मित लिखो
आंखों में चमक रहे खुशी के
नन्हे कण लिखो
धूप बहुत तीखी है आज…
बिक गए घड़े वाली के
सारे घड़े
घर लौटते हुए उसके पैरों की चाल लिखो
शकुंतला की साड़ी का रंग
बहुत चटक है आज !
बाल भी सुथरे
जूड़े में बंधे हुए
चंपा का एक फूल भी खुसा है वहाँ
तसले में रेत भरते हुए
गुनगुना रही है वह
उसका मरद असम गया था
आज लौट रहा है…
लिखो—
उसका यह गुनगुनाना लिखो।

3. प्रति व्यक्ति ख़ुशी
किससे तुलना करूँ मैं उस प्रेम की
जो मैं तुम्हारे लिए महसूस करती हूँ
उसे यदि विस्तार दूँ
पर्यवसित करूँ किसी देश में
तो क्या नाम लूँ ?
अमेरिका ?
नहीं !
हालांकि वह सबसे बड़ा और सबसे ज़्यादा
बिकाऊ सपना है
मैं कहूँगी भूटान
भूटान के प्रवेशद्वार जैसी है
मेरी कामना
भूटान ही है जहाँ तुम्हारे थोड़े-से साथ को
मैं एक सदी में बदल दूँगी
और देशों की तरह नहीं है
भूटान
प्रति व्यक्ति आय की जगह
अहमियत है उसके लिए
प्रति व्यक्ति खुशी की
अहमियत है जैसे मेरे लिए तुम्हारी
गर्म हथेलियों में रखे
अपने
विश्वास की।
4. आधी रात में घर
पिता घर में अकेले हैं
घर भी खुद में अकेला है
पिता की उम्र उतनी है
जितनी घर की उम्र है
घर के हृदय में पिता की कई छवियाँ हैं
पिता के भीतर भी एक घर है
कमरे छत रसोई समेत
वहाँ निरंतर कुछ-न-कुछ होता है
आज वसंत पंचमी है
मीठे चावलों के सीझने की सुगंध उठ रही है
भर रही है यह पिता के सीने में
वहाँ ज़ोरों की रुलाई फूट रही है
पिता कुछ करना चाहते थे
सामान्य से हटकर
पर उनमें साहस नहीं था
परंपरा के गल आए हिस्सों को
अलगा देने में हिचकिचाते थे
जैसा मैं कह चुकी हूं उनमें साहस नहीं था
ऐसे लोग अपने इर्द-गिर्द महानता का
कवच बुन लेते हैं
धीरे-धीरे सब दूर होते गए पिता से
तन से
मन से
माँ तो उतनी दूर चली गयी
जहाँ से कुछ भी नजदीक नहीं रहता
घर आधी रात में बड़बड़ाता है
आओ सब आओ मेरे पास बैठो
अपनी अपनी सुनाओ
क्या संजोया गठड़ी में
क्या गंवाया ?
मैं तुम्हारा पुरखा हूँ
दोस्त हूँ
मुझसे कैसा दुराव ?
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