– योगेन्द्र नारायण शर्मा –
उन्नीसवीं सदी। एक ओर देश को अंग्रेजों के चंगुल से देश को आजाद कराने की जंग लड़ी जा रही थी, वहीं दूसरी ओर सामाजिक बदलाव की बयार भी तेजी से बहनी शुरू हो गयी थी। देश को विदेशी दासता से मुक्त कराने के लिए एवं समाज को जगाने के लिए हिन्दू-मुस्लिम एकता पर जोर देते हुए स्वामी विरजानंद, स्वामी दयानंद, साईं मियां महमूदन शाह, अजीमुल्ला खां, बहादुरशाह के एक बेटे, मीर मुश्ताक मिरासी आदि तमाम संत, फकीर, और जागरूक प्रमुख लोग जंगलों, धार्मिक स्थलों में गुप्त बैठकें और सभाएं कर रहे थे।
मथुरा के पास के जंगल में सन 1856 में ऐसे ही हुई एक पंचायत का हाल मीर मुश्ताक मिरासी ने लिखा है। उन्होंने लिखा है-‘ जब महात्मा विरजानंद को पालकी में बैठा कर लाया गया, उस वक्त हिन्दू-मुसलमान फकीरों ने उनकी खुशी में शंख, घड़वानल, नागफणी, निकाडा, तुरही और नरसिंहे बजाये थे और खुदापरस्ती और वतनपरस्ती के गीत गाये थे। यह नावीना साधु गैर-इल्म के समइाने की ताकत रखता था और खुदा का जलवे-जलाल इसकी जबान से जाहिर होता था। मैंने भी अपनी रूह के तकाजे के मुताबिक पांच फूल इनके सामने पेश किये और उनकी कदमबोसी की और खुदा से दुआ मांगी कि खुदा, ऐसी नेक रुहों को खलकत की भलाई के लिए हमेशा पैदा कीजिए।’
यह महज आजादी की लड़ाई ही नहीं थी, पूरे देश की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक जीवन में बदलाव की शुरुआत भी थी। पूरा देश एक नये सांचे में ढलने के लिए मचल रहा था। इस बदलाव में नारी शक्ति की भूमिका कम नहीं थी। नारी शक्ति को जागृत हुए बिना इस तरह के किसी बदलाव की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी और इसकी प्रेरणा बिंदु बनीं झांसी की रानी लक्ष्मीबाई। इसके पूर्व अवध की बेगमों ने भी इस शक्ति का प्रदर्शन किया था। रानी लक्ष्मीबाई ने महिलाओं की पूरी सैन्य टुकड़ी का गठन किया, जिसकी अंतिम लौ के रूप में 20वीं सदी के प्रारम्भ तक तपस्विनी माता सक्रिय रहीं। इनका बचपन का नाम गंगाबाई तथा बाद का नाम सुनन्दा था। सन 1835 में जन्मी माता तपस्विनी विधवा हो गयी थीं। लोकमान्य बालगंगाधर तिलक की मुलाकात उनसे कोलकाता में 1901 में हुई थी। नेपाल में बन्दूक का एक कारखाना लगाने की योजना ( जर्मनी की मशहूर हथियार बनाने की कम्पनी क्रूप्स के सहयोग से) भी बनी थी परन्तु दुर्भाग्य से इस योजना की भनक अंग्रेजों को लग गयी और योजना फेल हो गयी। सन् 1905 में बंगभंग के खिलाफ जन जागरण के लिए उनकी सन्यासी टोलियां सक्रिय रहीं। सन् 1907 में कोलकाता में ही वे गोलोकवासी हो गयीं।
यह सब हो रहा था, उत्तर भारत में। बंगाल इस नवजागरण का नेतृत्व कर रहा था परन्तु दक्षिण भारत में इस नवजागरण का केन्द्र बना सुदूर दक्षिण का एक छोटा सा राज्य, त्रावणकोर-कोचीन (बाद में केरल)। त्रावणकोर-कोचीन में नामचीन समाजसुधारक, शिक्षाविद और नारी शक्ति के जागरण के पुरोधा नहीं थे। वहां जो कुछ हुआ, अपनी जरूरतों के हिसाब से अंतःप्रेरणा से हुआ। इस मामले के त्रावणकोर-कोचीन सबसे अनूठा राज्य था।
त्रावणकोर में ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन नहीं था। यह एक छोटी सी रियासत थी। सन 1810 से 1829 तक राज्य की गद्दी पर एक के बाद एक, दो रानियां बैठीं और उन्होंने राज्य की हालत सुधारने के लिए प्रयासों की झड़ी लगा दी। गौरी लक्ष्मीबाई सन 1810 और 1814 तक रानी रहीं, परन्तु अपने इस छोटे से कार्यकाल में उन्होंने प्रशासनिक सुधारों और प्रशासन के आधुनिकीकरण के लिए अनेक क्रान्तिकारी कदम उठाये।
रानी गौरी लक्ष्मीबाई के बाद सन 1814 में महज 13 वर्ष की आयु में गौरी पार्वतीबाई रानी बनीं। कम्पनी सरकार की ओर से कर्नल मुनरो रेजिडेण्ट थे। वे रानी के मुख्य सलाहकार या मुख्यमंत्री भी थे। कर्नल मुनरो के शब्दों में ‘वह देखने में जितनी सुन्दर, कोमलांगी और मधुर स्वभाव की थीं, उतनी ही दृढ़, कठोर और साहसी भी थीं।’ उन्होंने छोटे कर्मचारियों और जनता पर जुल्म पर लगाम लगाने के लिए प्रशासनिक आचार संहिता बनायी। गरीबी-अमीरी के भेद कम करने के लिए, सोने-चांदी के आभूषण पहनने, संगमरमर के फर्श वाले मकानों में रहने के खानदानी लोगों के अधिकार को खत्म कर दिया और स्वयं दलितों और गरीब तबके के लोगों को आभूषण दान दिए। अनाज के निर्यात पर लगी रोक को हटाया और किसानों का लगान निर्धारित किया। गरीबी के लिए दहेज प्रथा को बड़ा अभिशाप मानते हुए उन्हांने दहेज एक सौ रुपये तक निर्धारित कर दिया।
उनका सबसे बड़ा काम शिक्षा के क्षेत्र में माना जाना चाहिए। उनके इस योगदान को इसी से समझा जा सकता है कि सन 1951 की हुई जनगणना में पूरे देश का साक्षरता प्रतिशत जहां 16.3 था, वहीं केरल का साक्षरता प्रतिशत 46.1 था। इसी समय राजस्थान और विन्ध्य प्रदेश का साक्षरता प्रतिशत महज क्रमशः 2.9 और 1.4 था। यह रानी पार्वतीबाई द्वारा की गयी पहल का ही परिणाम था। अब भी केरल देश के सबसे साक्षर राज्यों में पहले नम्बर पर है।
रानी की आयु अभी 27वर्ष ही हुई थी कि उनका भतीजा श्रीराम वर्मा स्वती तिरुनाल गद्दी के योग्य हो गया और रानी ने उसे गद्दी सौंप दी। यह वह समय था जब राज्य एक नये समाज सुधार की प्रतीक्षा कर रहा था। त्रावणकोर में एक प्रथा थी कि महिलाएं अपने ऊपर के शरीर को खुला रखें। पूरे शरीर को ढकने का अधिकार केवल कुलीन महिलाओं को ही था। रानी लक्ष्मीबाई और रानी पार्वतीबाई इस क्रूर प्रथा के विरोध में कुछ नहीं कर पायी।
सदी के प्रारम्भ से ही इस प्रथा के खिलाफ आवाज उठने लगी थी। यह आवाज किसी रानी के प्रभाव से नहीं बल्कि स्वतःस्फूर्त थी। इस क्रूर परंपरा की चर्चा में खासकर निचली जाति की नादर स्त्रियों का जिक्र आता है। उन्होंने ही इस परंपरा के खिलाफ सबसे पहले विरोध प्रकट किया। नादर की एक उपजाति नादन पर यह पाबन्दी उतनी नहीं थीं। उस समय न केवल दलित बल्कि नंबूदरी ब्राह्मण और क्षत्रिय नायर जैसी जातियों की औरतों पर भी शरीर का ऊपरी हिस्सा ढकने से रोकने केलिए कई नियम थे। नंबूदरी औरतों को घर के भीतर शरीर का ऊपरी हिस्सा खुला रखना होता था। वे घर से बाहर ही अपना सीना ढक सकती थीं, लेकिन मंदिर में प्रवेश करने के पहले उन्हें अपना सीना खुला रखना होता था। सबसे बुरी स्थिति दलित औरतों की थी, जिन्हें कहीं भी ऊपरी हिस्सा ढकने की मनाही थी।
इस प्रथा के खिलाफ सबसे पहले उन महिलाओं से आवाज उठाई जो ईसाई हो कर चाय के बागानों में काम करने के लिए श्रीलंका चली गयी थीं। ईसाई मिशनरियों के प्रभाव, आर्थिक स्थिति में सुधार और कुछ अन्य कारणों का असर उन पर पड़ा था और उन्होंने ऊपर भी वस्त्र धारण करना शुरू कर दिया। इसका असर नादर महिलाओं पर भी पड़ा और उन्होंने भी उनका अनुसरण किया, परन्तु वहां के कुलीन पुरुषों को यह कब बर्दास्त होने वाला था। उन्होंने उन पर सरेराह अत्याचार शुरू कर दिया। उनके ब्लाउज सबके सामने रास्ते में फाड़ दिये जाते थे। कर्नल मुनरो के प्रभाव से सनृ 1814 में एक राजाज्ञा से ईसाई नादर और नादन महिलाओं को ब्लाउज पहनने की छूट दी गयी, परन्तु कुलीन पुरुषों के अत्याचार के आगे यह राजाज्ञा बेबस था। अन्त में कुलीनों के दबाव में राजा राम वर्मा ने 1829 में किसी भी दलित महिला को स्तन ढकने पर रोक लगा दी। पुरुषों के बढ़ते अत्याचार के खिलाफ औरतों में चेतना भी बढ़ती गयी और इस परंपरा के खिलाफ वे और मुखर होती गयीं। पुरुषों की परंपरा पोशक मानसिकता और महिलाओं की चेतना के बीच यह कसमकस चलता रहा। अंत में राजा को मजबूर होकर 26जुलाई 1859 को एक आदेश जारी कर महिलाओं को अपना ऊपरी हिस्सा ढकने की इजाजत देनी पड़ी। इस तरह अपने सम्मान की रक्षा की लड़ाई में महिलाओं की जीत हुई और न केवल त्रावणकोर बल्कि पूरे देष में 19वीं सदी के महिला जागरण का 26 जुलाई को प्रथम अध्याय लिखा गया, जिसकी अगुआई निचली और दलित महिलाएं कर रही थीं।