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प्रगति सक्सेना की चार कविताएँ

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1. वो अटक जाते हैं भीतर के गहरे अँधेरे में कहीं रेत भरी आंधी में जगमगाते हैं सुनहरी जुगनुओं की तरह बबूल के काँटों से बचाना था...

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