ऋषितुल्य एस.एम. जोशी

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— संजय मंगला गोपाल —

 

ह 1988-89 की बात है। जिस महाविद्यालय से मैंने पढ़ाई की, उसी में अध्यापन का काम कर रहा था। कॉलेज का शताब्दी वर्ष मनाया जा रहा था। उसका समापन समारोह जारी था। अचानक कार्यक्रम के मध्यांतर में माइक पर घोषणा हुई मेरे नाम की। बाहर आपसे मिलने कोई आए हैं। तुरंत मिलिए। बाहर ‘राष्ट्र सेवा दल’ के बुजुर्ग साथी खड़े थे। उन्होंने कहा, एस.एम.जोशी अस्पताल में हैं। उनका इलाज चल रहा है, यह तो मुझे मालूम था। अस्पताल ड्यूटी पर भी रह चुका था। साथियों ने कहा एस.एम. को खून की सख्त जरूरत है। कल सवेरे आठ बजे अस्पताल पहुंच कर तुम्हें एस.एम. को खून देना है।

एस.एम. और मेरा ब्लड ग्रुप एक ही है, यह भी एस.एम. के चल रहे इस आखिरी इलाज के दौरान ही मालूम हुआ था। संभावित रक्तदाताओं की सूची में मेरा नाम भी था। अण्णा, आपके लिए खून भी हाजिर है। ऐसा वाकई में जिसके लिए कहा जा सकता था, ऐसा उस समय एस.एम. के अलावा मेरे लिए शायद कोई नहीं था।

एक ओर खुशी थी। चलो मैं एस.एम. के कुछ काम आ सकूंगा और दूसरी ओर यह भी इच्छा थी कि अण्णा की तबीयत इतनी न बिगड़े कि खून की जरूरत पड़े।

पर मेरे जैसे अन्य साथियों का खून भी अण्णा को ज्यादा दिन तक नहीं बचा पाया। 1 अप्रैल 1989 को अण्णा का निधन हो गया। 2 अप्रैल को पुणे में मंडल आयोग कार्यान्वयन परिषद का आयोजन था। मैं एक तारीख की शाम को पुणे पहुंचा। रात को ही एस.एम. का निधन हो गया।

महात्मा गांधी, बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर, जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, ऐसे कई मान्यवर नेताओं के नाम सुने थे। इतिहास में उनके कामों के बारे में पढ़ा था लेकिन इन हस्तियों के साथ कभी काम करने का मौका नहीं मिला था। इस शृंखला की शायद आखिरी कड़ी थे एस.एम.। 1976-77 से लेकर आखिर तक करीब दस-बारह साल एस.एम. को करीब से देखने का मौका मिला। उनके विचार सुनने को मिले।

1947 के बाद 1977 का साल देश में एक परिवर्तन की लहर का साल था। तीस साल तक राजकाज संभाल चुकी कांग्रेस को हराकर जनता ने जनता पार्टी को जिताया था। इस दौरान एस.एम. की भूमिका अहम थी। नव निर्वाचित जनता पार्टी के एस.एम. पहले महाराष्ट्र प्रदेश अध्यक्ष थे। जनता पार्टी को चलाना आसान न था, यह तो केंद्र सरकार के 18-19 महीनों में ही गिर जाने से साबित हुआ। खुद जनता पार्टी को संभालना भी मुश्किल था। समाजवादियों के ही पी.एस.पी.-एस.एस.पी. गुट। कांग्रेस में से संघटना, कांग्रेस का हिस्सा। जिनके साथ सारी उम्र लड़ने का संकल्प किया वही आर.एस.एस.-जनसंघी इन सबको लेकर राज्य में राजनीति का प्रयास एस.एम. ने सफलता से किया। 15 अगस्त 1947 को आजादी मिली तब महात्मा गांधी दिल्ली में नहीं थे। 1 मई 1960 को जब महाराष्ट्र का निर्माण हुआ तब संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन के नेता एस.एम. बम्बई में नहीं थे। 1978 में राज्य में पहली बार गैर-कांग्रेस सरकार बनने वाली थी तब बहुजन का मुख्यमंत्री बनना चाहिए ऐसा कहकर एस.एम. ने सर्वसम्मति से उनको मिलनेवाले मुख्यमंत्री पद से मुंह मोड़ लिया।

एस.एम. अपने आपको बौध्दिक कार्यकर्ता कहते थे। लेकिन वास्तव में जमीन से जुड़े तमाम मुद्दों से प्रेरित आंदोलनों के संपर्क में थे। अभ्यास वर्ग, शिविरों में एस.एम. की पहचान तर्कदृष्टि तत्त्ववेत्ता की नहीं बल्कि व्यावहारिक स्तर पर कार्यकर्ता को समझने वाली थी। पालिका से लेकर विधानसभा, लोकसभा तक के चुनाव एस.एम. ने लड़े। कभी जीते तो कभी हारे। लेकिन राजनीतिक सक्रियता बनी रही।

राजनीति के साथ-साथ राष्ट्र सेवा दल, मराठवाड़ा विश्वविद्यालय को डॉ. भीमराव आंबेडकर का नाम देने का नामांतर आंदोलन हो, मंडल आयोग कार्यान्वयन का सवाल हो या राष्ट्रीय एकता और सामाजिक न्याय का मुद्दा हो, एस.एम. उसमें अपने आपको झोंक देते थे। पूरी ईमानदारी, लगन और समझदारी से उसमें लग जाते थे। नामांतर के सवाल पर उनके गले में जूतों का हार पहनाया गया। उनकी प्रतिक्रिया थी कि दलित-पिछड़ों के लिए लड़ना है, उन्हें अपने कंधों पर लेकर चलना चाहिए।

राष्ट्र सेवा दल का मतलब सिर्फ सेवा नहीं, जरूरत पड़ने पर संघर्ष भी है। इस मुद्दे को लेकर 1981-82 में सेवा दल में काफी बहस हुई थी। एस. एम. सदैव संघर्ष व सेवा के समन्वय पर जोर देनेवालों के साथ थे।

एस.एम. की सादगी तो मौजूदा समय में अधिक प्रेरणादायी है। एक बार की बात है। किसी गांव-शहर में एस.एम. के लिए कार्यक्रम का निमंत्रण था। हवाई जहाज, स्पेशल कार की क्या बात, राज्य परिवहन की बस से चलकर गंतव्य तक पहुंच गए। वहां उन्हें लेने के लिए कोई कार्यकर्ता मौजूद नहीं था। कहीं से दौड़-दौड़ कर वो पहुंचा। सरकारी विश्राम गृह बुक करने में कुछ गड़बड़ हुई। देर रात का समय था। ऐसे में किसी के घर जाना भी मुश्किल था। एस.एम. ने कहा, कोई बात नहीं, मेरे पास चादर, बिछावन है। यही बस स्टैंड पर सो जाते हैं। उनका यह आचरण सादगी की मिसाल है। नए विचारों का स्वागत, अन्याय-विषमता-शोषण की मुखालफत, सबको लेकर आगे बढ़नेवाले कार्यक्रम, और इस पूरे प्रयास में राजनीतिक परिप्रेक्ष्य को कभी नजरअंदाज न होने देना, यह एस.एम. की विशेषता थी। अपने कार्यकर्ता-काल में एक समर्पित, ऋषितुल्य व्यक्तित्व के साथ काम करना हम जैसों के लिए पहला और आखिरी अवसर था। अब फिर से एस.एम. मिलेंगे? अब एस.एम. के दिखाए पथ पर चलते रहना, हमारे हाथ में है।

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