छियालीस साल पहले का अनुभव और आज का अघोषित आपातकाल

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फोटो raiot.in से साभार

— डॉ सुरेश खैरनार —

छियालिस साल पहले 26 जून को एक घोषित आपातकाल लगा था। लेकिन पिछले सात साल से भी ज्यादा समय से अघोषित आपातकाल बदस्तूर जारी है !

आज भारत की आधी आबादी युवा पीढ़ी है ! जो दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा है ! और आज पचास साल से भी ज्यादा उम्र के लोगों को आपातकाल क्या होता है, शायद मालूम नहीं होगा। इसलिए इतनी रात गए मैं यह सब लिख रहा हूँ।

युवा मित्रों को जानकारी के लिए स्पष्ट कर दूँ कि जयप्रकाश नारायण को बांग्लादेश बनने होने के बाद सारी दुनिया का दौरा करने के लिए भारत सरकार की तरफ से विशेष विमान देकर भेजने में श्रीमती इंदिरा गांधी की क्या भूमिका थी। और पाकिस्तान किस तरह बांग्लादेश के साथ अन्याय-अत्याचार कर रहा था! यह सब विभिन्न देशों के राष्ट्राध्यक्षों को समझाने की जिम्मेदारी भारत सरकार की तरफ से जेपी को दी गई थी, न कि तब के भारत के विदेशमंत्री को।

फिर उसके कुछ दिनों बाद ही गुजरात के विद्यार्थियों ने अपने मेस के बिल के लिए, और बाद में नवनिर्माण आंदोलन के नाम से गुजरात की सरकार बदलने के लिए आंदोलन किया। और उसी के आसपास बिहार के भी विद्यार्थियों ने बिहार सरकार के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया। तो जयप्रकाश नारायण इन दोनों आंदोलनों के लिए जिम्मेदार नहीं थे। उस समय उनकी उम्र सत्तर साल की हो चुकी थी।

वे आंदोलन शुद्ध रूप से विद्यार्थी और युवा पीढ़ी के आंदोलन थे! हां जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी को प्रिय इंदु नाम से संबोधित करते हुए उन सवालों की तरफ ध्यान खींचने के लिए कई पत्र लिखे थे। लेकिन इंदिरा गांधी की तरफ से पत्र का जवाब दिया जाना तो दूर, पत्र पावती की सूचना तक नहीं दी गई। और यह जानकारी उनके पर्सनल स्टाफ के धर, बिशन टंडन जैसे अधिकारियों की किताबों में है। फिर चंद्रशेखर की दो किताबें हैं, मोहन धारिया की किताब में भी ये सब खुलासे मिल जाएंगे! मैंने ये सब किताबें पढ़ने के बाद ही ये संदर्भ दिए हैं।

हमारे सीपीआई के दोस्तों को जेपी की बिहार आंदोलन की भूमिका को लेकर काफी गलतफहमियां हैं। उन्हें हर चीज में षड्यंत्र नजर आता है और इसलिए उनके नेता जेपी को सीआईए का दलाल तक बोल चुके हैं। हाँ, बिहार आंदोलन एक जन आंदोलन था और उसमें कोई भी भारतवासी शामिल हो सकता था जैसे कि संघ परिवार के लोग शामिल हुए थे। लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी के लोग जेपी को सीआईए का दलाल बोलने की जगह अगर आंदोलन में शामिल हुए होते तो शायद संघ परिवार अपने आप एक मर्यादा में चला गया होता।

क्योंकि जेपी को, संघ परिवार के लोग शामिल हुए हैं, यह बात अखरती थी, और  इसलिए वह एसएम जोशी जी को शुरू से ही बार-बार कह रहे थे कि महाराष्ट्र के राष्ट्र सेवा दल के लोगों को इस आंदोलन में लाइए।

मैं खुद राष्ट्र सेवा दल का पूर्णकालिक कार्यकर्ता था (1973-76), लेकिन हमें आंदोलन में शामिल होते-होते आपातकाल लगने की घड़ी आ गई थी। यह सब  विस्तार से पहली बार लिखने के लिए मजबूर हो रहा हूँ ! क्योंकि संघ परिवार ने बिहार आंदोलन के बाद ही अपनी छवि (जो महात्मा गांधी के हत्या के बाद बहुत बिगड़ गई थी) सुधारने में पहली बार कामयाबी हासिल की और जनता पार्टी के प्रयोग से सबसे ज्यादा लाभान्वित भी वही हुआ।

आपातकाल पर लिखने की कोशिश कर रहा था। लेकिन काफी घंटे जाया करने के बावजूद लिखना हो नहीं पा रहा था। आखिर में हार कर छोड़ दिया। लेकिन लिखना पूरा न होने के कारण नींद नहीं आ रही थी। हार कर दोबारा कोशिश करने बैठा।

छियालिस साल पहले 25 जून की आधी रात को जेपी को दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान से नींद से उठाकर और अन्य नेताओं को भी अलग-अलग जगहों से उठाकर किसी को तिहाड़ जेल में तो किसी को बंगलोर, नागपुर, पुणे, नाशिक, और भारत के विभिन्न राजनीतिक दलों के लगभग सभी नेताओं और बहुत सारे कार्यकर्ताओं को जेलों में डाल दिया गया। शायद लाखों की संख्या में।

मैंने जेपी के बुलावे पर 25 जून 1975 के दिन अपनी यात्रा की शुरुआत की, (जेपी राष्ट्र सेवा दल के काम को बिहार आंदोलन में शुरू करने का अपना सुझाव एसएम जोशी जी के पास बार-बार दोहरा चुके थे) पर नागपुर से पटना के लिए ट्रेन में सफर कर रहा था तो जबलपुर स्टेशन पर सुबह-सुबह ही आपातकाल लगने की, और जेपी के अलावा अन्य लोगों को भी गिरफ्तार कर लिये जाने की खबर सुनकर मुझे लगा कि अब पटना जाने यानी पहुंचते ही पकड़ लिये जाने से बेहतर है बीच रास्ते में उतरकर अंडरग्राउंड होकर, कुछ साथियों से मिलकर आपातकाल विरोधी कुछ काम करेंगे। तो मैं जबलपुर में उतरकर बस से वर्धा के लिए निकल पड़ा। 1975-76 के अक्तूबर  तक मुझे अंडरग्राउंड रहने में और काफी कुछ काम करने में कामयाबी मिली लेकिन अक्तूबर के प्रथम सप्ताह में पकड़ लिया गया।

उसके पहले आपातकाल में मुंबई में प्रोफेसर पुष्पा-अनंत भावे के रुइया कॉलेज से चलकर जाने के रास्ते पर फ्लैट में एक बड़ौदा डायनामाइट के कैसे-कैसे प्रयोगों को अंजाम देने की प्लानिंग मीटिंग थी। जिसमें हमें सुबह-सुबह दोनों घरवाले बाहर से ताला लगाकर अंदर पंद्रह-बीस लोगों के लिए पर्याप्त मात्रा मे खाने-पीने का इंतजाम था और शायद बारह घंटे से भी ज्यादा समय चली मीटिंग में मेरे अलावा सभी सीनियर लोग थे। लेकिन उन सब में गुरिल्ला लड़ाई पर पर्याप्त साहित्य पढ़ने वाला मैं अकेला ही था। क्योंकि मैं मागोवा नाम का मार्क्सवादी ग्रुप अमरावती में खुद चलाता था और फिडेल-चेग्वेरा, हो ची मिन्ह, माओ, जोसेफ मॅझीनी और सावरकर को भी पढ़े होने के कारण मुझे पोस्ट ऑफिस, रेलपुल, टेलीफोन-टेलीग्राम के तार उड़ाना बहुत ही बचकानापन लगता था।

बैठक में शुरू से अंत तक मैं यही कहता रहा कि 1942 की नकल 1975 में करने का कोई तुक नहीं है और दुनिया के दो नंबर की आबादी वाले देश में यह सबकुछ महज रोमैंटिक के अलावा कुछ भी नहीं है, मैं आपातकाल के खिलाफ हूँ और आगे भी रहूँगा लेकिन बड़ौदा डायनामाइट के लिए शामिल होने की बात मुझे युद्ध शास्त्र के हिसाब से अव्यावहारिक लग रही है। लेकिन बैठक से अमरावती पहुंचने के बाद उसी केस में पुलिस ने हिरासत में  ले लिया। राजापेठ पुलिस स्टेशन में दो हफ्ते पूछताछ के लिए रखा। रोज रात को नींद से उठाकर पूछताछ करते थे कि बैठक में कौन लोग थे और क्या तय हुआ ? लेकिन मैंने पहले से ही स्टैण्ड ले लिया था कि मैं ऐसी किसी भी बैठक में शामिल नहीं था !

एक बात स्पष्ट कर दूँ कि मुझे पुलिस ने कोई यातना नहीं दी, कोई बदसलूकी नहीं की। हां, सिर्फ आखिरी बार एक लिखित बयान पर हस्ताक्षर करने के लिए झूठमूठ मेरी कनपटी पर पिस्तौल की नली रखकर इंस्पेक्टर ने कहा कि साइन कर, नहीं तो गोली चला दूंगा। तो मैंने कहा कि इस झूठमूठ के पेपर्स पर साइन करके ही मरना है तो आप मुझे अभी ही खत्म करो ! फिर वही इंस्पेक्टर हँसते हुए बोला कि आगे चलकर मंत्री बनोगे तो मुझे आपकी गाड़ी के सामने एस्कार्ट ड्यूटी करनी पड़ सकती है, याद रखना मुझे !

खैर, बाद में मुझे अमरावती सेंट्रल जेल में भेजा गया ! बस इतना ही रोमांचक प्रसंग है, बाकी तो पुलिस के कुछ लोग अपने घर से खुद खाने के लिए कुछ ना कुछ लेकर आते थे और सरकार की आलोचना भी करते थे ! इस तरह हमारे जैसे पुलिस-प्रशासन के अंदर भी लोग हैं, सिर्फ क्रांति के सिपाही हम अकेले नहीं हैं। हमारे अलावा देश में अन्य लोगों के ऊपर मेरे विश्वास के कारण मुझे निराशा की बीमारी ने अभी तक नहीं छुआ है।

आपातकाल लगने के पहले साल दो साल से बिहार आंदोलन और उसके पहले गुजरात के नवनिर्माण आंदोलन के ही कारण 25 जून को रात्रि के आधे प्रहर में इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा करके और प्रेस सेंसरशिप लगाकर सरकार विरोधी न्यूज छापने से रोकने के लिए हर अखबार के दफ्तर में सेंसरशिप अधिकारियों को तैनात कर दिया था। (लगभग सभी पुलिस के ही लोग थे !)

हम अंडरग्राउंड लोग साइक्लोस्टाइल मशीन से बुलेटिन निकालकर लोगों में बाँटने का प्रयास करते थे। जो लोग जेल गए थे उनके परिजनों की  खबर लेकर उन्हें क्या चाहिए, यह पता करके कुछ मदद करने के लिए पीयूसीएल द्वारा (आपातकाल में महाराष्ट्र के लिए एसएम जोशी जी की अध्यक्षता में और मैं सचिव!) चंदा इकट्ठा करके बहुत साधारण सी मदद कर पाते थे। संघ परिवार के लोग अपने-अपने लोगों के लिए काफी कुछ मदद का इंतजाम कर लिये थे। लेकिन अन्य कैदियों में नागपुर में कौन लोग हैं जिन्हें मदद नहीं मिल पा रही है उनके घर जाकर लिस्ट बनाने का जिम्मा एसएम जोशी जी ने मुझे दिया था। और मैंने पूरे नागपुर में एक मित्र की साइकिल से वह लिस्ट बनाने का काम पूरा करके एसएम जोशी जी को सौंप दिया था।

अखबार सेंसरशिप के कारण बहुत ही सीमित खबरें छापते थे, और वह भी बीस सूत्री कार्यक्रमों की भरमार और सरकार की तारीफ के पुल बांधते हुए !

यह तो हो गई संक्षेप में छियालिस साल पहले के आपातकाल की बात! जब मेरे भी जेल जाने की बारी आई तो जेल में संघ के लोग ज्यादा थे और वे बीस सूत्री कार्यक्रमों की तारीफ कर रहे थे ! और जेल से बाहर निकलने के लिए माफीनामे बाकायदा संघ की तरफ से ही छपे हुए फार्म पर दस्तखत करने की मुहिम चला रखी थी! तो हमने कहा कि श्रीमती इंदिरा गांधी आपके माफीनामे भी अपने पास रख लेंगी, और आप लोगों को रिहा भी नहीं करेंगी ! बहुत बेआबरू होकर जेल मे पड़े रहोगे, काहे को अपनी इज्जत दांव पर लगा रहे हो? इस काम में मध्यस्थता जेपी के नागपुर के मित्र पी.वाइ. देशपांडे की सुपुत्री निर्मला देशपांडे और विवेकानंद केंद्र के एकनाथ रानाडे के संयुक्त तत्वावधान में जारी थी !

तो संघ के लोगों के तर्क! हमारे सावरकर ने भी अंग्रेजी रानी को तीन-चार बार खत लिखने के बाद… आखिरकार उन्हें रत्नागिरी में हाउस अरेस्ट करके रखा था ! लेकिन आपातकाल खत्म होने के बाद ही सबकी छुट्टी हुई! उनके माफीनामे जेल के रिकार्ड में दर्ज हो चुके हैं! तत्कालीन संघ प्रमुख बालासाहेब देवरस का माफीनामा पुणे की यरवदा जेल के रेकार्ड में दर्ज है !

(कल लेख का दूसरा हिस्सा)

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