इमरजेन्सी में झटका इस्तेमाल किया गया था, अब हलाल किया जा रहा है – एम.जी. देवसहायम

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पैंतालीस वर्ष पहले 25/26 जून 1975 की प्रायः मध्यरात्रि में भारत के राष्ट्रपति ने एक उद्घोषणा की, “संविधान के अनुच्छेद 352 के खंड (1) में निहित शक्तियों का प्रयोग करते हुए, मैं, फखरुद्दीन अली अहमद, भारत का राष्ट्रपति, इस उद्घोषणा द्वारा घोषित करता हूँ कि गंभीर आपातकाल लागू है, जब तक कि भारत की सुरक्षा को आंतरिक उपद्रव से खतरा है।” उस समय मैं चंडीगढ़ संघशासित क्षेत्र का जिलाधिकारी था और तत्कालीन राज्यसत्ता के सबसे बड़े ‘दुश्मन’ जयप्रकाश नारायण के साथ था, जिन्हें वहाँ कैद किया गया था। इसलिए मुझे दिल्ली की उच्चस्तरीय गतिविधियों के बारे में सही-सही मालूम है।

राष्ट्रीय आपातकाल को प्रधानमंत्री  इंदिरा गांधी के ऐसे हथियार के रूप में देखा जा सकता है, जिससे वह लोकतांत्रिक राजनीति  पर निरंकुश तरीके से शासन करना चाहती थीं और इस प्रक्रिया में स्वतंत्रता और आजादी खत्म करना चाहती थीं। राष्ट्रपति की उद्घोषणा के साथ ही संविधान का अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 21 और अनुच्छेद 22 के कुछ खंड निलंबित हो गए। संक्षेप में भारत में लोकतंत्र खत्म हो गया। आंतरिक सुरक्षा अनुरक्षण अधिनियम और नियम सख्त कर दिए गए और अदालत द्वारा इसकी न्यायिक समीक्षा किए जाने पर रोक लगा दी गई, पहले से निरुद्ध लोगों को राहत की तो कोई बात ही नहीं थी, जिनकी संख्या एक लाख से ज्यादा हो गई थी।

नागरिक अधिकारों के पक्के समर्थक रजनी कोठारी ने इंदिरा गांधी के आपातकाल के समय के बारे में संक्षेप में लिखा है, “सरकार (राज्यतंत्र) ने सारी हदें पार कर दी थीं, सरकार ने राज्यतंत्र की समस्त गरिमा का अपहरण कर लिया था, सत्ताधारी दल की नेता ने राज्य (स्टेट) को अपनी व्यक्तिगत संपत्ति समझ लिया था। बुनियादी रूप से संघीय समाज के ऊपर बुरी तरह केंद्रीकृत सत्ता प्रभावी हो गयी थी और इसका इस्तेमाल निजी हितों व परिवार को बढ़ाने के लिए किया जा रहा था। एक ही झपट्टे में पूरा देश भय एवं आतंक की छाया में पहुँच गया…”

यह उस समय की बात थी। आज कैसा है? 24 मार्च 2020 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उद्घोषणा की, जो आधी रात से लागू हो गई, “पिछले दो दिनों से देश के कई हिस्से में लॉकडाउन है। राज्य सरकार द्वारा उठाए गए कदमों को अतिशय गंभीरता से लिया जाना चाहिए….. आज राष्ट्र एक महत्त्वपूर्ण कदम उठा रहा है। आज मध्यरात्रि के बाद, संपूर्ण देश, कृपया ध्यान से सुनिए, संपूर्ण देश पूरी तरह लॉकडाउन हो जाएगा। देश की एवं इसके प्रत्येक नागरिक की सुरक्षा के लिए लोगों को आज की मध्यरात्रि से अपने घरों से बाहर निकलने पर पूरी तरह प्रतिबंध लग जाएगा। देश के सभी राज्य, सभी संघीय राज्य क्षेत्र, प्रत्येक जिले, प्रत्येक गाँव, प्रत्येक मोहल्ले लॉकडाउन के अधीन किए जा रहे हैं। यह कर्फ्यू की तरह है…..”

यह उद्घोषणा भारत के संविधान के अंतर्गत नहीं थी। प्रधानमंत्री के भाषण से जाहिर है, राज्यों ने महामारी रोग अधिनियम, 1897 की धारा 2 के अंतर्गत निहित शक्तियों का प्रयोग करते हुए लॉकडाउन लगाया था। आपदा प्रबंधन अधिनियम 2005, जिसका उपयोग पूर्ण लॉकडाउन के लिए किया गया, में ऐसा कोई भी विशिष्ट अधिकार केंद्र सरकार को नहीं दिया गया है। धारा 6(2)(i) में इसे “आपदा की रोक अथवा शमन अथवा तैयारी…” के लिए अन्य उपाय करने की शक्ति दी गई है। यह प्रावधान महामारी आपदा से नहीं जुड़ता। जब राज्य सरकारों ने पहले से ही संगत कानूनों के अंतर्गत लॉकडाउन लगा दिया, तो केंद्र सरकार को उनका अधिक्रमण करते हुए चार घंटे की सूचना पर संपूर्ण देश में क्रूर लॉकडाउन लगाने की कोई जरूरत नहीं थी। यह नव आपातकाल है, जिसने भय एव आतंक भी फैलाया।

इस नव आपातकाल का वास्तविक परिणाम क्या है? बिना किसी विहित प्रक्रिया के अथवा कानून के प्राधिकार के इसने देश के प्रत्येक नागरिक को घरों में कैद कर दिया, उसे संविधान प्रदत्त स्वतंत्रता एवं आजादी के अधिकार से वंचित कर दिया। इसने ‘जीविका’ के संवैधानिक अधिकार को प्रभावित किया, जिसके चलते वह गरीबी एवं दरिद्रता में फँस गया। इसने ‘पुलिस राज’ की क्रूरता को जन्म दिया। हर नागरिक के साथ ‘अपराधी’ की तरह व्यवहार किया गया अथवा उसे ‘गैरकानूनी जमावड़े’ का हिस्सा समझा गया। महामारी को नियंत्रित करने के सरकार के तरीके के संबंध में हल्की टिप्पणी पर भी देशद्रोह का आरोप लगाकर गिरफ्तार करने की घटनाओं से नागरिकों एवं पत्रकारों में भय एवं आतंक छा गया।

लोगों के साथ जानवरों एवं कीड़े-मकोड़े जैसा व्यवहार करके राज्य ने उनकी गरिमा को खत्म कर दिया, जो मानव मात्र का बहुमूल्य अधिकार है। लाखों प्रवासी मजदूरों को दुर्दशा सहनी पड़ी, उन्हें अपना स्थान छोड़कर बाहर निकलने की यंत्रणा झेलनी पड़ी। इससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की बदनामी हुई।

यह नव आपातकाल है, इसीलिए याराना पूँजीवाद भी है। देश इस समय कई तरह के घावों को सह रहा है। बिजली का निजीकरण, सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों की बिक्री, श्रम कानूनों को कड़ा कर कॉरपोरेट क्षेत्र के अनुकूल बनाना और अपने पसंदीदा लोगों को बड़े ठेके देना याराना पूँजीवाद का ही हिस्सा है। बिना लेखा परीक्षण वाले पीएमकेयर फंड में अंशदान के लिए बाध्य करना तथा आलीशान संसद एवं प्रधानमंत्री आवास के लिए दिल्ली सेंट्रल विस्टा का निर्माण भी इसी मानसिकता को दर्शाता है।

इस नव आपातकाल और इसके प्रवर्तन की निंदा सच्चे विशेषज्ञों ने की है। ‘हार्वर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ’ के विक्रम पटेल ने इसे ‘पागलपन’ बताते हुए कहा, “लॉकडाउन ऐसे समय लगाया गया जब संक्रमण बहुत ही कम था, लेकिन लगाने का तरीका ऐसा था कि लाखों असंगठित मजदूरों के बीच संक्रमण बहुत गहराई से फैल गया, उसके बाद उन्हें ऐसे क्षेत्रों में जाने दिया गया, जहाँ संक्रमण नहीं था और इस तरह लाखों लोगों के बीच संक्रमण फैल गया। यह अक्षमता एवं निष्ठुरता का परिचायक था। इस तरह की नीति से जमीनी हालत यह हुई कि आर्थिक दुरवस्था भी बढ़ी और महामारी का प्रकोप भी। इस नीति से  आर्थिक आपदा के साथ महामारी में तेजी से वृद्धि हुई और हालात बहुत बुरे हो गए।”

हमारे समय के प्रख्यात चिंतक नोम चोम्स्की ने इसे ‘संहारक’ कहा, “भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूर्ण लॉकडाउन के पहले सिर्फ चार घंटे का समय दिया। इससे करोड़ों लोग प्रभावित हुए। बहुतों के पास जाने की कोई जगह नहीं थी। असंगठित आर्थिक क्षेत्र में कार्य कर रही एक विशाल आबादी को निकाल बाहर किया गया। वे अपने गाँवों को पैदल चल पड़े। सड़क के किनारे मौतें हुईं। मोदी अपनी सोच और पृष्ठभूमि के अनुकूल अति दक्षिणपंथी कट्टर हिंदुत्व के सिद्धांत को लागू करने का कार्य कर रहे हैं, इस क्रम में आपदा के दौरान उनके निर्णय ने विध्वंस की ओर कदम बढ़ा दिया है।”

चोम्सकी ने वही कहा जो कहना चाहिए। इंदिरा गांधी के आपातकाल के समय जनता स्तंभित थी, सन्नाटे में आ गई थी और जो कुछ चल रहा था उससे भयग्रस्त थी। नागरिक सेवा में से अधिकांश लोग झुकने को कौन कहे, रेंगने लगे थे। उच्चतर न्यायपालिका दंडवत थी और आपातकाल के नियमों को स्वीकार कर लिया था। नागरिकों के पास ‘जीवन का भी अधिकार’ नहीं था। कुछ अपवादों को छोड़कर सभी तरह के राजनीतिज्ञों की कमर झुकी हुई थी। स्वेच्छाचारी और अहंकारी राज्य ने नागरिकों को ‘गुलाम’ में बदल दिया था।

नव आपातकाल के तहत आज का समय भी उससे भिन्न नहीं है। लोकतांत्रिक शासन की सभी संस्थाओं को पूरी तरह निरर्थक बनाया जा रहा है। शक्ति एवं भय द्वारा शासन नया नियम बन गया है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि नोम चोम्स्की ने भारत को ‘अविश्वसनीय देश’ कहा है।

इंदिरा गांधी के आपातकाल की तरह ही मंत्रिपरिषद का कोई अस्तित्व नहीं रह गया है। राज्यों की कोई खास भूमिका नहीं रह गई है। संसद पूरी तरह अधीन हो गई है और इसमें बिना किसी शोरगुल के नाजी प्रकृति का नागरिक संशोधन अधिनियम पारित किया गया। जब पूरा देश विरोध में उठ खड़ा हुआ तो क्रूर पुलिस राज ने औरतों, बच्चों तक का दमन किया। अब लॉकडाउन के अंतर्गत पूरे देश में और खास तौर पर दिल्ली और उत्तर प्रदेश में विरोधियों के ऊपर पुलिस देशद्रोह का केस लादने और मामूली आधार पर युवाओं और विद्यार्थियों पर एफआईआर दर्ज करने में व्यस्त है। इसके बरक्स हिंदुत्ववादी ऐसे तत्त्वों को सुरक्षा एवं संरक्षण दिया जा रहा है, जो या तो गंभीर अपराधों में लिप्त हैं अथवा उसके लिए उकसाते हैं।

यहाँ तक कि बहुत नर्म रुख रखनेवाले हर्ष मंदर जैसे बुद्धिजीवियों को भी नहीं बख्शा जा रहा है। ऐसी चर्चा है कि उन्हें नागरिकता अधिकार अधिनियम विरोधी आंदोलन के दौरान शांति बनाए रखने और युवाओं को गांधीवादी अहिंसा को अपनाने का आह्वान करने के मामले में फँसाया जा रहा है और उनकी गिरफ्तारी भी हो सकती है। हर्ष मंदर ने 2002 के गुजरात ‘नरसंहार’ के बाद भारतीय प्रशासनिक सेवा से त्यागपत्र दे दिया था और वह पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने उसे ‘नाजीवादी कार्यक्रम’ कहा था। उनके प्रति क्रोध का यही कारण है। भगवान करे दिल्ली पुलिस इतने निम्न स्तर तक न उतरे!

 इन सबसे एक बात साफ है। हलाँकि तब के और इस नव आपातकाल के चरित्र और अंतर्वस्तु में अंतर है, फिर भी दोनों में एक चीज सामान्य है, वह है- शक्ति और भय द्वारा शासन। सिर्फ एक अंतर है। उस समय ‘झटका’ का इस्तेमाल किया गया और इस समय ‘हलाल’ का किया जा रहा है। स्वतंत्रता और आजादी पर प्रभाव एक जैसा है, संभवतः कुछ ज्यादा ही।

 1975 के आपातकाल में इंदिरा गांधी और जयप्रकाश नारायण के बीच सीधी मुठभेड़ थी, जिसमें इंदिरा गाँधी की हार हुई। आपातकाल के दौरान भारत आकर घूमने और इंदिरा गांधी से मिलने के बाद क्लैरे स्टर्लिंग ने ‘न्यूयार्क टाइम्स’ में एक लेख लिखा, जिसका शीर्षक था साठ “करोड़ लोगों का शासक- और अकेला”। उन्होंने जो कहा वह विचारणीय है, “जब मैं भारत में घूम रही थी, तब कुछ लोगों ने मुझसे कहा कि लोकतांत्रिक मिजाज के देश को ताकत से नियंत्रित करने का प्रयास बहुत बुरा है और श्रीमती गांधी यही कर रही हैं।”

उस समय की ‘लौह महिला’ इसमें विफल हो गईं। अब क्या इससे अलग होगा? बुद्धिमान लोगों ने कहा है, “ जो लोग अतीत से नहीं सीखते, उनका कोई भविष्य नहीं होता।”

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