— मनोज वर्मा —
असल में जॉर्ज फर्नांडीज और किशन जी को लेकर मेरी गिरफ्तारी का मामला अत्यं/त गंभीर हो गया था। जॉर्ज से इंदिरा गांधी भयभीत थीं। जॉर्ज की गिरफ्तारी उनकी प्रतिष्ठा का प्रश्न था। किशन जी के साथ गुजराती समाज धर्मशाला की बैठक ने मामले को और गंभीर कर दिया था। सोशलिस्ट पार्टी के जंगपुरा, महादेव रोड के कार्यालय पर छापा पड़ा था।
दूसरे दिन चारों खुफिया वाले दस बजे दिन में दरभंगा हाउस पहुंचे। मुझे कारिडोर में एक बेंच पर बिठा दिया। सामने वाले कमरे में किसी बड़े साहब से मिलकर शीघ्र वापस आ गये। उसके बाद मुझे बाग लेकर आये। वे बार-बार मुझसे आपातकाल के विरोध में भूमिगत गतिविधियों के बारे में घुमा-फिराकर सवाल करते थे। मैं जो कहता उस पर उन्हें विश्वास नहीं होता। किशन जी के कार्यकलाप के विषय में पूछते। मेरे जवाब से संतुष्ट न होने पर एकाध बार अभद्र शब्दों का प्रयोग भी किया। एक बार हलके से कुछ ज्यादा जोर से मेरे सिर को टेबल पर झटक दिया। मैंने भी इसका रुखाई से विरोध किया। फिर बाकी समय कभी मेरे साथ अशोभनीय बर्ताव नहीं किया। पर कुछ यातनाएं दीं। उस रात मुझे बंगले के बाथरूम में बंद कर दिया। उसमें बहुत तेज बत्ती जल रही थी। बैठने को भी कुछ नहीं था। गर्मी से परेशान था। सुबह माथे पर अजीब जलन थी। अनिद्रा के कारण दिमाग पर सुस्ती छाने लगी थी। दोपहर में बंगले के पीछे आंगन में चार-पांच घंटा कड़ी धूप में खाट पर छोड़ दिया। फिर अंदर आने पर वही सब सवाल दुहराने लगे। पूछने लगे। कभी होटल में खिलाते, कभी बंगले में ही होटल से खाना मंगा देते।
14 अगस्त को दोपहर बाद मुझे लेकर गुजराती समाज धर्मशाला चले। लाल किले में 15 अगस्त की तैयारी अंतिम दौर में थी। वहां से गुजरते हुए सब दिखा। सुरक्षा की भी कड़ी व्यवस्था लग रही थी। इसी बीच खुफिया वालों को बंगलादेश के राष्ट्रपति शेख मुजीबुर्रहमान की घटना पर बात करते सुना। उनकी परिवार सहित हत्या की जानकारी उनकी बातों से ही मुझे मिली।
गुजराती समाज धर्मशाला पहुंचकर मुझे उस दिन की बैठक वाले कमरे को खुलवाना था। वहां बाहर ही सीढ़ी के पास ही अजय राणा मिल गये। मैंने उनसे बात नहीं की। सिर्फ अपने पैर से उनके पैर का अंगूठा दबा दिया। पता नहीं कैसे खुफिया वालों को अपने पहचाने जाने का आभास हो गया। तुरंत मुझे वापस लेकर काली एंबेसेडर की अगली सीट पर बैठाकर तेजी से चल निकले। मेरा सिर भी नीचे झुका दिया, ताकि बाहर से मैं नहीं दिखूं।
कई दिनों के बाद एक रात मुझे घर पर छोड़ दिया गया। मगर दूसरे दिन फिर सुबह ही पहुंच गये। मेरी पत्नी को लालच और भय दोनों दिखाया। किंतु इसका उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उन्होंने उनकी बातों का दृढ़ता से विरोध किया। उनके झांसे में नहीं आयीं। उसके बाद मुझे महारानी बाग ले गये। शाम को मुझे दरियागंज थाना लाये। थाने से कुछ पहले ही काली एंबेसेडर रोक दी। सभी उतरकर चले गये। मैं ड्राइवर के साथ गाड़ी में ही रह गया। वहां रुकने के बाद खुफिया का एक आदमी वापस आया। मुझे गुजराती समाज धर्मशाला ले जाया गया। मुझे उस कमरे में भेजा जहां बैठक हुई थी। उसमें कभी के दूसरे यात्री आ गए थे। मैं खाना खाने वाले हॉल में गया। वहां पहले से ही मेरे साथ का एक खुफिया वाला दाढ़ी-मूंछ लगाकर चाय पी रहा था। बिना कुछ बोले मैं उसकी तरफ परिचित की तरह मुखातिब हुआ। वह तुरंत उठकर कोरिडोर में चला आया। मुझको गुस्से से देखा।
दूसरे दिन शाम को मुझे और मेरे भाई को लेकर नजफगढ़ थाना आये। किशन जी वहां पहले से थे। गिरफ्तारी के बाद उनसे मेरी पहली बार भेंट हो रही थी। हम वहां आमने-सामने पूछताछ के लिए लाये गये थे। उन्होंने पूछताछ में किशन जी को झांसा देने की कोशिश की कि मैंने उनको सब कुछ बता दिया है। लेकिन मैंने इसका विरोध किया। मैंने बताया कि किशन जी समाजवादी विचारधारा के नेता हैं। विचारक हैं। अखबारों, पत्रिकाओं में विभिन्न विषयों पर लिखते रहे हैं। मेरे दोबारा यह सब कहने पर उन्होंने मुझसे आगे कुछ पूछताछ नहीं की।
हम लोगों की गिरफ्तारी के बाद कई दिनों तक काली एंबेसेडर मीरा जी और मंजुल कुमार का पीछा करती रही। इससे वे लोग बहुत असहज महसूस करते थे। बाबू जगजीवन राम जी ने शाह कमीशन के सामने अपने वक्तव्य में कहा था कि आपातकाल में उनके बेटी-दामाद को भी परेशान करने से नहीं बख्शा गया।
चुनाव की घोषणा होने पर इमरजेंसी में ढील हुई। भेंट होने पर किशन जी ने बताया कि पूछताछ में उऩके साथ सम्मानजनक व्यवहार हुआ। उन्हें नजफगढ़ थाने में ही क्यों लाया गया? दिल्ली में तो और थाने हैं। नजफगढ़ थाना किसी नवाब की हवेली है। उसमें तहखाना है। यातना देते समय बाहर वालों को कुछ पता नहीं चलता। यही मनोवैज्ञानिक असर उन पर डालना था। ओड़िशा में किशन जी पर मीसा लागू था। गिरफ्तारी की सूचना ओड़िशा पुलिस को दे दी गयी थी। ओड़िशा पुलिस उन्हें लेने नहीं आयी। उन्हें गिरफ्तार जानकर निश्चिंत हो गयी थी। दिल्ली में उनपर कोई आरोप नहीं बना। इस स्थिति में वे छह माह के बाद छूट गये।
(किशन पटनायक के निकट सहयोगी रहे मनोज वर्मा का पिछले साल नवंबर में सत्तर साल से कुछ अधिक उम्र में निधन हो गया। वह रामनगर, पश्चिम चंपारण के रहनेवाले थे। समाजवादी आंदोलन से जुड़े थे, बिहार आंदोलन में भी सक्रिय रहे। आपातकाल के बारे में उनका यह संस्मरण पहली बार सामयिक वार्ता के जनवरी-फरवरी 2014 के अंक में प्रकाशित हुआ था।)
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