— अरुण कुमार त्रिपाठी —
चौदह सितंबर 1949 को जब संविधान सभा में महज एक वोट के मुकाबले हिंदुस्तानी के बदले हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया तब महात्मा गांधी के उस सपने को दरकिनार कर दिया गया जो उन्होंने भाषा को राष्ट्रीय एकता के सूत्र के रूप में देखा था। यह सही है कि महात्मा गांधी ने ही उस राष्ट्रभाषा प्रचार समिति को स्थापित किया था जिसके आग्रह पर 1953 से हिंदी दिवस को सरकारी स्तर पर मनाए जाने के कार्यक्रम शुरू हुए और जिसके प्रस्ताव को मानते हुए सरकार ने वर्धा में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की स्थापना की। लेकिन उसी के साथ यह भी सच है कि महात्मा गांधी ने जिस राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की 1936 में सेवाग्राम के आदिनिवास में स्थापना की थी उससे 1945 में नाता तोड़ लिया था। वजह यही थी कि यह समिति निरंतर उर्दू से दूरी बनाती हुई संस्कृत की ओर जा रही थी और महात्मा गांधी हिंदी और उर्दू के बीच एक रिश्ता जोड़ते हुए हिंदुस्तानी को राष्ट्रभाषा बनाने की पैरवी कर रहे थे।
गांधी के लिए भाषा अभिव्यक्ति का सुंदर माध्यम तो थी ही, वह इंसानी दिलों को जोड़नेवाला तार भी थी। इसलिए वे अंग्रेजी की जगह पर ऐसी भाषा चाहते थे जिसे जन जन समझ लें और जिसके निर्माण का रास्ता कठिन न हो। गांधी के लिए भाषा हिंदुओं और मुसलमानों के दिलों में प्रेम पैदा करने का माध्यम भी थी और यही कारण है कि वे हिंदी के लिए संस्कृत और फारसी के दरवाजे खुले रखते हुए भी उसे जनता की जुबान से जोड़ना चाहते थे। उनके लिए वह भाषा राष्ट्रभाषा नहीं होनी चाहिए थी जो सांप्रदायिकता पैदा करे या किसी जाति विशेष पर शासन का भाव उत्पन्न करे। इसीलिए उन्होंने वर्धा में ही राष्ट्रभाषा प्रचार समिति से नाता तोड़कर हिंदुस्तानी प्रचार समिति से नाता जोड़ा और उसके लिए अलग दफ्तर भी खुलवाया।
भारत पाक विभाजन के साथ ही हिंदुस्तानी की दावेदारी कमजोर होने लगी और एक ओर पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा उर्दू बनी तो दूसरी ओर भारत की राजभाषा हिंदी के रूप में स्वीकार की गयी। हालांकि यह भी जानने लायक बात है कि संविधान सभा में हिंदुस्तानी के पक्ष में हिंदी के मुकाबले एक ही मत कम पड़े थे। आज अगर आप `राष्ट्रभाषा प्रचार समिति’ का साहित्य पढ़ेंगे और उसकी बैठकों की बहसों में जाएंगे तो उसमें हिंदी को संस्कृतनिष्ठ बनाने का जबरदस्त आग्रह दिखेगा। उस काम को संविधानसभा के सदस्य और भाषाविद डा रघुवीर ने काफी जोरशोर से बढ़ाया और आज गांधी के उद्देश्यों को लेकर बने महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में भी गांधी की वह भावना नदारद है।
आइए पहले देखते हैं कि गांधी ने राष्ट्रभाषा हिंदुस्तानी के लिए क्या विचार व्यक्त किए थे। उन्होंने कहा था, “हिंदुस्तानी का मतलब उर्दू नहीं बल्कि हिंदी और उर्दू की वह खूबसूरत मिलावट है, जिसे उत्तरी हिंदुस्तान के लोग समझ सकें और जो नागरी या उर्दू लिपि में लिखी जाती हो। यह पूरी राष्ट्रभाषा है बाकी अधूरी। पूरी राष्ट्रभाषा सीखनेवालों को आज दोनों लिपियां सीखनी चाहिए और दोनों रूप जानने चाहिए। राष्ट्रप्रेम का निश्चय ही यह तकाजा है। जो इसे जानेगा वह कमाएगा और न जानने वाला खोएगा।’’
अब जरा उन लोगों पर ध्यान दें जिनका राष्ट्रप्रेम हिंदी या हिंदुस्तानी नहीं, संस्कृत के लिए ही उमड़ता है और अगर उनकी चलती तो इस देश की राजभाषा संस्कृत ही होती। संविधान सभा में भारतीय जनसंघ के संस्थापक डा श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने कहा था कि उनका वश चले तो वे संस्कृत को इस देश की राजभाषा बनाना चाहेंगे। उनकी इन्हीं बातों पर प्रतिक्रिया जताते हुए पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, “क्या हम पीछे मुड़कर उस संस्कृति को मन, वचन और कर्म से वापस पाना चाहते हैं जिसने हमें पहले गुलामी की ओर भेजा था।’’
हिंदी को संस्कृत से कितनी दूरी बरतनी चाहिए और उसके कितना निकट जाना चाहिए इस बारे में हमारे कई पुरखे बहुत सचेत रहे हैं लेकिन दुर्भाग्यवश उनकी चेतावनी को उस समय थोड़ा ही सुना गया और आज तो उसकी एकदम अनदेखी हो रही है। उन चिंतकों में अगर आचार्य किशोरी दास वाजपेयी, रामविलास शर्मा और राहुल सांकृत्यायन का नाम प्रमुख है तो आज के दौर में डा धर्मवीर भी महत्त्वपूर्ण हैं। डा धर्मवीर ने अपनी चर्चित पुस्तक `हिंदी की आत्मा’ में किशोरी दास वाजपेयी को हिंदी का प्रहरी बताते हुए उनके बारे में राहुल सांकृत्यायन ने जो विचार व्यक्त किए हैं उसमें संस्कृत और हिंदी के संबंधों पर बहुत प्रखर रूप में प्रकाश डाला गया है।
राहुल जी लिखते हैं, “आचार्य किशोरी दास वाजपेयी समझने लगे थे कि हिंदी एकदम संस्कृत की चेरी नहीं है। इसलिए उसपर हर समय संस्कृत के व्याकरण लादने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। संस्कृतज्ञ हिंदी लेखक अब भी इस धींगामुश्ती से बरी या बाज नहीं आते। वस्तुतः इस दृष्टिकोण को छोड़े बिना वे हिंदी शब्दों का ठीक से निर्वचन नहीं कर पाते हैं। जब उनका सामना हिंदी शब्दों से पड़ता है तो वे समझ नहीं पाते हैं कि हम संस्कृत सार्वभौम के किसी छोटे-मोटे मांडलिक के सामने नहीं खड़े हैं। हिंदी अपने क्षेत्र में स्वयं सार्वभौम सत्ता रखती है। यहां उसके अपने नियम-कानून लागू होते हैं। हिंदी में जो तत्सम (शुद्ध संस्कृत) शब्द आते हैं वे संस्कृत की नहीं हिंदी की प्रजा हैं इसलिए हर समय संस्कृत (व्याकरण) के कानून की दुहाई नहीं देनी चाहिए।’’
संस्कृत के माध्यम से हिंदी में शब्दनिर्माण करने की जो प्रक्रिया डा रघुवीर ने शुरू की उसने एक ऐसी सरकारी हिंदी का निर्माण किया जिसे प्रयोजनमूलक हिंदी कहा जाता है। उस हिंदी पर कठोर टिप्पणी करते हुए डा धर्मवीर लिखते हैं, “डा रघुवीर ने संस्कृत भाषा से 20 उपसर्ग, 80 प्रत्यय और 500 धातुएं लेकर हिंदी की शब्द ग्रहण शक्ति का मजाक उड़ाना चाहा है। एक तरह से उन्होंने हिंदी को शब्द रचना की दृष्टि से एक बांझ भाषा सिद्ध करना चाहा है। संस्कृत प्रत्ययों के लोभ में वे इस हद तक चले गए हैं कि जब संस्कृत में प्रत्ययों की कमी दिखाई दी तो उन्होंने संस्कृत के अनुकरण पर नए प्रत्यय खड़े कर दिए थे।’’
डा धर्मवीर जो कि कुछ समय के लिए राजभाषा आयोग में केंद्रीय हिंदी प्रशिक्षण संस्थान के निदेशक भी थे, उन्होंने अंग्रेजी के शब्दों से किए जानेवाले अनुवाद में उपसर्गों के अनावश्यक प्रयोग पर आपत्ति की थी। उदाहरण के लिए `अंग्रेजी हिंदी समेकित प्रशासन शब्दावली’ में अंग्रेजी के तीन शब्दों प्रीरोगेटिव, राइट और प्रिविलेज के लिए क्रमशः परमाधिकार, अधिकार और विशेषाधिकार शब्दों का प्रयोग किया गया है। वे कहते हैं कि हिंदी का पाठक सिर्फ अधिकार शब्द से अर्थ लगा लेगा और जिसका अधिकार होगा उसके साथ वाक्य में प्रयोग करने से काम चल जाएगा। इतने सारे उपसर्गों के प्रयोग का कोई मतलब नहीं है। इसी प्रकार प्रिविलेज्ड कम्युनिकेशन्स के लिए `विशेषाधिकार प्राप्त संसूचना’ लिखा गया है। यह शब्द अपने आप में जटिल और कृत्रिम लगता है। अगर इसकी जगह पर अधिकार प्राप्त सूचना या अधिकृत सूचना का प्रयोग किया जाता तो सरल होता। इसी तरह हिंदी में वाइडनिंग के लिए चौड़ीकरण और इंडस्ट्रियलाइजेशन के लिए औद्योगिकीकरण जैसे शब्द न तो सामान्य जनता की जुबान पर चढ़ते हैं और न ही लिखने में सरल लगते हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि हिंदी संस्कृत की तरह शुद्धता पर आधारित भाषा नहीं है और न ही वह उपसर्ग, प्रत्यय और धातु के आधार पर नए शब्दों का निर्माण करने की प्रवृत्ति रखती है। हिंदी वास्तव में विभिन्न भाषाओं से शब्द ग्रहण करने और पचानेवाली भाषा है। इसलिए उसमें अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दों का अनुवाद करने की कोशिश बड़ी हास्यास्पद होती है। जैसे संगणक, चलित दूरभाष जैसे शब्द चलाने की कोशिश विफल ही होती है। हालांकि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, विधायक, सांसद, लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभा, विधायक, जैसे शब्द इसके अपवाद हैं। इन शब्दों को पराड़कर जी ने चलाया और वे चल निकले। इसी प्रकार तमाम शब्द ईसाई पादरियों ने बनाए और वे भी चलन में हैं।
अब जरा हिंदी के विकास में उर्दू के योगदान पर रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी का एक उद्धरण देखिए। अपनी चर्चित पुस्तक `उर्दू भाषा और साहित्य’ में वे लिखते हैं, “उर्दू कविता का पंचानवे प्रतिशत भाग ऐसा है कि जिसमें वे ही अरबी और फारसी के शब्द आते हैं जिन्हें अशिक्षित मुसलमान भी बोलते और समझते हैं। फिर वे शब्द विदेशी कहां रहे।………………उर्दू कविता ने लगभग साठ सत्तर हजार शुद्ध हिंदी शब्दों में तीन हजार के लगभग अरबी-फारसी शब्द जोड़ दिए हैं, जिन्हें पढ़कर सीखना पड़ता है। ……………………………आदमी, मर्द, औरत, बच्चा, जमीन, काश्तकार, गरम, सर्द, हालत, हाल, खराब, नेकी, बदी, दुश्मनी, दोस्ती, शर्म, दौलत, माल, मकान, दुकान, दरवाजा, सहन, बरामदा, जिन्दगी, मौत, तूफान, सवाल, जवाब, बहस, तरफ, तरफदारी, तरह, हैरान, बेहोश, होशियार, चालाक, सुस्त, तेज सवार, राह, शेर, मुहल्ला, किस्सा, गुस्सा, गम, दर्द, खुशी, आराम, किताब, हिसाब, खबरदार, बीमार, दवा, शीशा, आईना, प्याला , गुलाब, बाग, बहार, मुरब्वत………….वगैरह।’’
यह सिलसिला लंबा है और इसको रेखांकित करने के लिए फिराक साहेब लिखते हैं कि हिंदी के साहित्यकार बाबू श्यामसुंदर दास ने जो `बाल शब्दसागर’ प्रकाशित किया है उसमें लगभग पांच हजार अरबी और फारसी के शब्द शामिल हैं।
लेकिन हिंदी को संस्कृतनिष्ठ बनाने का सिलसिला थमा नहीं है और न ही हिंदी को सांप्रदायिकता की जुबान बनाने की कोशिश ठहरी है। तमाम गैरहिंदी भाषी राजनेता सीखी हुई हिंदी बोलते हैं और बड़े जनसमुदाय को प्रभावित करते हैं। लेकिन उनकी भाषा एक ओर अपने और पराए का भेद करती है वहीं किसी के लिए चासनी टपकाती है तो किसी के लिए विषबाण चलाती है। यह शैली भाषा को लोकप्रिय बनाने की बजाय एक खास राजनेता और उसकी विचारधारा को लोकप्रिय बनाती है। इससे न तो राजभाषा हिंदी का भला होता है और न ही उसकी राष्ट्रभाषा की दावेदारी मजबूत होती है।
कई बार तो लगता है कि अच्छा है कि दक्षिण के लोग हिंदी को नहीं स्वीकार कर रहे हैं वरना नफरत की भावना उत्तर भारत की तरह वहां भी उतनी ही फैल चुकी होती। आजकल चैनलों और अखबारों की भाषा भी बदली है। अंग्रेजी के तमाम एंकर जब नफरत फैलाने का काम उस सामंती भाषा में नहीं कर पाते तो वे हिंदी का सहारा लेते हैं। हिंदी चैनलों की भाषा देखकर क्या आज कोई कह सकता है कि वे हिंदी की सेवा कर रहे हैं या उसे राजभाषा से राष्ट्रभाषा बनाने में योगदान दे रहे हैं?
इस बीच जब नई शिक्षा नीति आयी तो कहा जाने लगा कि इसमें मातृभाषा को बढ़ावा देने का प्रावधान पहली बार आया है। इससे हिंदी फले-फूलेगी। लेकिन इसी के साथ यह भी सुझाव दिया गया है कि शिक्षा देने का ढांचा सरकार के पास नहीं है। वह ढांचा संघ के सरस्वती शिशु मंदिरों में है। इसलिए शिक्षा का काम उन्हें दे देना चाहिए। इस बीच कई राज्यों में संस्कृत ग्राम बनाए जा रहे हैं। यानी हिंदी पर फिर संस्कृत लादने का प्रयास तेज होगा और इस दौरान जो हिंदी बनेगी वह हिंदू समाज की दलित, पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यक समाज को अपने साथ कितना जोड़ पाएगी कहा नहीं जा सकता।
जाहिर है जो हिंदी राष्ट्रभाषा के लिए तैयार होगी वह राष्ट्र को स्वाभाविक रूप से तो नहीं ही जोड़ेगी। इसलिए हिंदी के विकास के लिए संविधान के अनुच्छेद 351 में वर्णित `जीनियस’ शब्द पर ध्यान देना होगा और भाषा को कौमी एकता का धागा बनाना होगा। यह अनुच्छेद साफ कहता है कि हिंदी संस्कृत से शब्द लेगी लेकिन वह अन्य भाषाओं से भी शब्द ग्रहण करेगी। यानी हिंदी की खिड़कियों को आंधी तूफान से बचाते हुए साफ हवा के लिए खोलना होगा।