लोकहितकारी लोकतंत्र की रचना का आवाहन
अंतत: कांग्रेस, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी, सोशलिस्ट पार्टी और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी जैसे महत्त्वपूर्ण दलों को अपने जीवन के 1930 से 1954 तक का बहुमूल्य अंश देनेवाले इस नायक ने‘सक्रिय नागरिकता’, ‘लोकशक्ति निर्माण’, ‘राज्यसत्ता के विकेंद्रीकरण’ और ‘दलविहीन जनतंत्र’ में ही लोकहित को सुरक्षित माना। ‘सिटीजंस फॉर डेमोक्रेसी’ और ‘यूथ फॉर डेमोक्रेसी’ का आवाहन किया। विद्यार्थी-युवा शक्ति में आशा की किरण देखी। गुजरात और बिहार में प्रतिध्वनि होने पर उन्होंने नयी पीढ़ी का सम्पूर्ण क्रांति की दिशा में मार्गदर्शन किया। खुद 8 अप्रैल, ’74 से सहकर्मियों के साथ सड़क पर उतरे। नये सहयोगी बनाने का जोखिम उठाया। कई ने उनके भरोसे का सम्मान किया। कुछ ने अपनी कथनी-करनी के बीच के अंतर से उनको निराश भी किया।
1973 में जनतंत्र समाज (सिटीजन्स फार डेमोक्रेसी) और ’74 के अंतिम दिनों में छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी की रचना करायी।‘जनतंत्र समाज’ ने अनेकों बुद्धिजीवियों, विशेषज्ञों और सरोकारी निर्दलीय व्यक्तित्वों को आकर्षित किया। देशभर से 30,000 युवाओं ने वाहिनी के कार्यकर्ता बनने का संकल्प लिया। लोकतान्त्रिक राष्ट्रनिर्माण के लिए प्रतिबद्ध युवजनों के नये मंच के रूप में विकसित होने की अपार संभावनाएँ थीं। इमरजेंसी के 19 महीनों के दमन में इस संगठन के सदस्यों को सीधे निशाने पर लिया गया। लेकिन 1978 के अंत तक भी छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी के 20,000 सदस्य थे जिसमें से 4,000 युवजन बिहार से थे। इस संगठन में 10 प्रतिशत महिलाएँ थीं।
जेपी के अभियान के प्रति-उत्तर में 1966 से प्रधानमंत्री पद पर आसीन इंदिरा गांधी के सामने संवाद का विकल्प था। लेकिन इसकी बजाय राज्यसत्ता ने पहले गुजरात और फिर बिहार में लाठी-गोली का सहारा लिया। इसमें कांग्रेस के एक हिस्से और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने बहुत सक्रियता दिखायी। इससे जेपी को अपने अभियान की निरन्तरता के लिए दलों से परहेज का रास्ता छोड़कर सर्वदलीय संवादों और संयुक्त मोर्चों का सहारा लेना पड़ा। विधायकों के इस्तीफे और विधानसभा भंग करके नये चुनावों की मांग को जोड़ना पड़ा (देखें : जेपी का प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी को पत्र; चंडीगढ़, 21 जुलाई,’75)।
बिहार आन्दोलन के दौरान 18 मार्च ‘74 और 26 जून ‘75 के बीच पुलिस की गोली से सौ से ज्यादा लोग शहीद हुए और हजार से अधिक लोगों को लाठीचार्ज में गंभीर चोटें पहुंची थीं। एक पुलिसकर्मी की भी मौत हुई और कुछ जगहों पर आन्दोलनकारियों ने दुर्व्यवहार किया। लेकिन इन सब अनुचित घटनाओं के लिए जेपी ने बिना किसी हीला-हवाली के खुद क्षमा माँगी और सार्वजनिक निंदा की। जबकि बिहार की राजधानी पटना में 3 जून और 16 नवम्बर ’74 को और देश की राजधानी दिल्ली में 9 अगस्त ’74 और 22 जून ’75 को सत्ता के नशे में चूर भीड़ इकट्ठी करायी। स्वयं जेपी पर पटना, कलकत्ता, भुवनेश्वर, कुरुक्षेत्र और लुधियाना में प्राणघातक हमले किये गये। उनकी चरित्र-हत्या में तो कोई कसर नहीं छोड़ी गयी।
जयप्रकाश का प्रकाश
यह याद कराने की जरूरत है कि 18 मार्च को पटना में विद्यार्थी प्रदर्शन के दमन से फैली भयानक अराजकता के बाद जेपी के मार्गदर्शन से आन्दोलनकारियों की तरफ से हुए कार्यक्रमों में चौतरफा अहिंसक अनुशासन विकसित होने लगा- 8 अप्रैल को पटना में कुछ सौ निर्दलीय तरुण शांति सेना के सदस्यों, सर्वोदय कार्यकर्ताओं और नागरिक समाज के लोगों के साथ शुरू शांति का कारवाँ कुल 8 हफ्ते में ही 5 जून को गांधी मैदान में पांच लाख से ज्यादा अहिंसक स्त्री-पुरुषों की जनसभा के रूप में पुष्पित होते देखा गया। इसी जनसभा में जेपी ने‘सम्पूर्ण क्रांति’ का आवाहन किया। इसी प्रक्रिया से अक्टूबर में तीन दिनों के बिहार बंद में कहीं भी जान-माल की हानि नहीं हुई। फिर 4 नवम्बर को बिहार विधानसभा को भंग कराने की मांग के लिए हुए पटना मार्च में सैकड़ों प्रदर्शनकारियों के साथ खुद जेपी पर पुलिस का प्रहार हुआ लेकिन आन्दोलनकारियों ने संयम बनाये रखा। 4 नवम्बर के दमन के खिलाफ 18 नवम्बर को अपूर्व रैली हुई और जेपी ने प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी की चुनौती स्वीकार करते हुए आन्दोलन को एकसाथ निर्दलीय लोकशक्ति की सहायता से गाँव-पंचायतों में लोक समितियों की स्थापना और गैर-कांग्रेसी दलों के समन्वय से नयी विधानसभा के लिए चुनाव की तैयारी से जोड़ दिया।
राष्ट्रीय स्तर पर 24-25 नवम्बर को दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ में आयोजित छात्र प्रतिनिधि सम्मेलन और 26 नवम्बर को हुए राष्ट्रीय नेताओं के समागम ने 10 सप्ताह में ही 6 मार्च’75 को 8 किलोमीटर लम्बे जुलूस का आकार ले लिया। जेपी को इसको देखकर गांधी के 1930 के ‘दांडी मार्च’ की याद आयी। इस शांतिपूर्ण जुलूस के अगुवा के रूप में जेपी ने संसद को देश के बड़े सवालों के समाधान के लिए एक राष्ट्रीय चार्टर अर्पित किया। यह लोकतान्त्रिक राष्ट्रनिर्माण के लिए अनिवार्य हो चुकी सम्पूर्ण क्रांति का घोषणापत्र था। वस्तुत: इसकी तुलना राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान स्वीकारे गये 1931 के कराची प्रस्ताव से की जा सकती है।
6 मार्च के चार्टर में राष्ट्रीय जीवन के पाँच आयामों को प्राथमिकता दी गयी थी- 1. नागरिकों के सामाजिक-आर्थिक अधिकार, 2. लोकतंत्र संवर्धन, 3. चुनाव सुधार, 4. शिक्षा में आमूल बदलाव, और 5. उच्चस्तरीय भ्रष्टाचार का निर्मूलन। इसमें जनसाधारण के सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को सुरक्षित करने के सात कदमों के साथ ही लोकतांत्रिक अधिकारों के संवर्धन के लिए तीन उपाय, चुनाव सुधार के ग्यारह सूत्र, शिक्षा सुधार के पाँच सुझाव और राजनीतिक भ्रष्टाचार के निर्मूलन के लिए तीन बिंदु रखे गये थे। इसे 11 मई’75 को जारी ‘नव-बिहार के लिए घोषणापत्र’ के साथ पढ़ने पर राष्ट्रीय नव-निर्माण की सम्भावना की आज भी एक आकर्षक तस्वीर उभरती है।
यह रहस्यमय बात है कि इंदिरा गान्धी सरकार ने इस गान्धीमार्गी सुधार आवाहन की क्यों उपेक्षा की? जेपी के अनुसार इसका सबसे बड़ा कारण सरकार और प्रशासन के सर्वोच्च स्तर पर फैला हुआ भ्रष्टाचार था और यह भ्रष्टाचार ही आन्दोलन का केन्द्रीय मुद्दा था (जेपी का इंदिरा गांधी को पत्र; 21 जुलाई,’75)। 6 मार्च के प्रदर्शन के बाद कांग्रेस के जेपी निंदक हिस्से और कम्युनिस्ट पार्टी का प्रयास हुआ कि जेपी को गिरफ्तार किया जाए! क्यों बिहार के मुख्यमंत्री और पुराने समाजवादी स्वतंत्रता सेनानी अब्दुल गफूर को कांग्रेस विधायकों के एक गुट के दबाव से हटा दिया गया? क्यों एक रहस्यमय बम-विस्फोट में मारे गये केन्द्रीय मंत्री ललित नारायण मिश्र के छोटे भाई डॉ. जगन्नाथ मिश्र को ही मुख्यमंत्री बनाया गया? क्यों जेपी द्वारा प्रस्तुत राष्ट्रीय सहमति की एक नयी संभावना की, कांग्रेस के सांसदों में भी अनुकूलता के बावजूद, अनदेखी की गयी? इस सब से श्रीमती इंदिरा गांधी और कांग्रेस पार्टी ने अपनी श्रेष्ठता और सत्ता बनाये रखते हुए समग्र सुधारों का एक सुनहरा अवसर गँवा दिया।
लेकिन यह तो खुला सच है कि 1977 में बनी जनता पार्टी सरकार ने इस चार्टर को न लागू करके जेपी और जनादेश दोनों के साथ विश्वासघात किया। बिहार में बनी जनता पार्टी सरकार को भी जेपी द्वारा प्रेरित ‘नये बिहार के लिए घोषणापत्र’ की याद नहीं आयी। इससे यह आशंका सच निकली कि व्यवस्था-परिवर्तन के लिए निकले जयप्रकाश नारायण को दूर तक साथ निभानेवाले सहयात्रियों की तलाश थी लेकिन 1974-75 में समर्थन के लिए आगे आए राजनीतिक दलों की मूलत: सत्ता-परिवर्तन में ही दिलचस्पी थी। जेपी विनायक बनाने निकले थे। दलबंदी से जुड़े लोग सिर्फ एक नया वानर बनाने के लिए उत्सुक थे।
जेपी का रणकौशल
क्रांति के लिए शोधरत एक नायक के रूप में जेपी का एक प्रशंसनीय गुण रणनीति में निष्पक्षता और लचीलेपन का था। विदेशी राज की मातहती और पूरी आबादी के मात्र 15 प्रतिशत सम्पत्तिधारी और शिक्षित हिस्से के वोट से चुनी गयी संविधान सभा का 1946-’49 में एक कांग्रेस सोशलिस्ट नायक के रूप में वह विरोधी ही नहीं थे बल्कि 1948 में एक वैकल्पिक‘संविधान’ भी प्रस्तुत किया था। इसी क्रम में 1959 में ‘भारतीय राज्य-व्यवस्था के पुनर्निर्माण’ का प्रारूप देश के सामने रखा। इस सब के बावजूद उन्होंने नेहरू-पटेल-मौलाना आजाद-राजेन्द्र प्रसाद-आम्बेडकर के बनाये उसी संविधान को 1975-’77 के इमरजेंसी राज के तानाशाहों से बचाने के लिए अपनी जान की परवाह नहीं की। 1977 के लोकसभा चुनाव में ‘रावण रथी, विरथ रघुवीरा!’ का प्रसंग सामने आया।
इसके लिए चुनाव सुधार की लड़ाई और ‘दलविहीन लोकतंत्र’ के लक्ष्य को स्थगित करके स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा सौंपे गये जनतंत्र को पुनर्जीवित करने के लिए खुद एक नयी पार्टी का गठन किया। नकारात्मक चुनावी समझौतों की अपनी आलोचना को पीछे रखकर इसका द्रविड़ मुनेत्र कषगम, अकाली दल और कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के साथ चुनाव समझौता कराया। लोक-विवेक में आस्था के आधार पर सभी आपातकाल विरोधी दलों को एक मोर्चे की शकल में चुनाव के मैदान में उतार कर ‘तानाशाही को हराओ!’ की ललकार से देश में आत्मविश्वास पैदा किया। वोट की ताकत का सूझबूझ से इस्तेमाल करके केंद्र की सरकार को पराजित किया और जनतंत्र को वापस पटरी पर ले आए। इसीलिए कृतज्ञ देशवासियों ने जेपी को दूसरी क्रांति के नायक के रूप में प्रतिष्ठा दी।
आपातकाल के बंदियों के रूप में राजनीतिक कार्यकर्ताओं की एक प्रशिक्षित पीढ़ी सामने आयी। इन्हें ‘लोकतंत्र सेनानी’ माना गया। इन कई हजार सरोकारी नागरिकों के लिए कई प्रदेशों में आजतक मासिक पेंशन की व्यवस्था है। इससे गांधीवादियों, समाजवादियों, नक्सलवादियों, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जमात-ए-इस्लामी और आनंदमार्गियों में से इमरजेंसी राज में जेल में बंद किये गये स्त्री-पुरुषों की अलग छबि बनी। इंदिरा सरकार द्वारा अविवेकपूर्ण दमन का शिकार बनाये जाने के कारण उन्हें लोकतंत्र की वापसी में योगदान देनेवाले साहसी जनतंत्र-रक्षक का दर्जा मिला। इस उपलब्धि का ‘श्रेय’ सिर्फ इमरजेंसी राज के कर्ता-धर्ताओं को दिया जाना चाहिए। जेपी को नहीं।
जेपी एक अद्वितीय स्वतंत्रता साधक थे। यह अविश्वसनीय है कि इस पराक्रमी राष्ट्रनायक ने अपने सतत पुरुषार्थ से 1929 और 1979 के बीच के उथल-पुथल भरे कालखंड में आधी शताब्दी तक भारतीय समाज और राजनीति के नव-निर्माण के लिए लोकशक्ति और क्रांतिकारिता का प्रवर्तन किया। नेपाल, तिब्बत और हंगरी से लेकर संयुक्त राज्य अमरीका, दक्षिण अफ्रीका और बांग्लादेश तक के जन-प्रतिरोधों से बहुचर्चित सहयोग किया। इसलिए यह अचरज की बात नहीं थी कि उन्हें अपने जीवन-काल में एक तरफ भरपूर सम्मान मिला और दूसरी तरफ कटु निंदा का सामना करना पड़ा।
जेपी को ‘स्वतंत्रता सेनानी’, ‘समाजवाद के सर्वोच्च ज्ञानी’, ‘मार्क्सवाद के पुजारी’, ‘हिन्द के लेनिन’, ‘नेहरू के उत्तराधिकारी’, ‘देश को हिलाने की क्षमता वाला राष्ट्रनायक’, ‘अँधेरे में एक प्रकाश’, ‘लोकनायक’, ‘संत’ और ‘दूसरी आजादी का जनक’ माना गया है। इन विशेषणों के ठोस आधार हैं। यह अलग बात थी कि जेपी अपनी तारीफ से हमेशा संकोच में पड़ जाते थे। एक आदर्श नायक की तरह अपनी सभी सफलताओं का श्रेय अपने अग्रजों और सहकर्मियों के खाते में जमा कर देते थे।
लेकिन उनसे असहमत होनेवाले दलों और आलोचकों ने‘ढुलमुल राजनीतिज्ञ’, ’असफल’, ‘ईर्ष्यालु’, ‘सी.आई.ए. एजेंट’, ‘फासिस्ट ताकतों की कठपुतली’, ‘कश्मीरी और नगा अलगाववादियों के तरफदार’, ‘राष्ट्रविरोधी’, ‘भ्रष्ट पैसेवालों पर आश्रित उपदेशक’, ‘नक्सलवादियों के हमदर्द’, ‘इंदिरा गांधी को अभयदान देनेवाले’ और ‘साम्प्रदायिक संगठनों को सम्मानित बनानेवाले’ जैसे अपमानजनक संबोधन दिये हैं। इस प्रसंग में यह याद कराना जरूरी है कि जेपी एक जिम्मेदार और निर्मल सार्वजनिक व्यक्ति होने के कारण हर आलोचना का पूरा उत्तर देते थे। उनके जैसे ‘मत-भेद’ और ‘मन-भेद’ में अंतर करते हुए रिश्ते बचाये रखनेवाले अजातशत्रु कम ही नेता हुए हैं।
देश-दुनिया में स्वतंत्रता के प्रेरणा-स्रोत
जब स्वयं भ्रष्टाचार की दोषी पायी गयीं प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 73 वर्षीय जयप्रकाश नारायण को अराजकता और बगावत फैलाने का आरोप लगाकर बंदी बनाया तथा 26 जून, ’75 को इमरजेंसी घोषित की और उनके कम्युनिस्ट समर्थकों ने देश-विदेश में समर्थन किया तो देश स्तब्ध हो गया। शीघ्र ही दुनियाभर के स्वतंत्रता प्रेमियों ने लंदन और पेरिस से लेकर मोंट्रियल और न्यूयार्क तक ‘जेपी को रिहा करो!’ का अभियान चलाकर भारत के शासक वर्ग और जयप्रकाश के निंदकों को हतप्रभ कर दिया। इंग्लैंड में ‘फ्री जेपी कैम्पेन’ और अमरीका में‘इंडियंस फॉर डेमोक्रेसी’ जैसे स्वत:स्फूर्त संगठनों ने सरकारी दावों की पोल खोल दी। दुनिया ने जेपी के रिहा किये जाने तक चैन नहीं लिया।
1977 के आमचुनाव में मुट्ठीभर सरकार समर्थक कांग्रेसी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के एक गुट के नेताओं को छोड़कर बाकी देश ने जेपी को अपना पथ-प्रदर्शक स्वीकारा और तानाशाही के मुकाबले लोकतंत्र का रास्ता चुना। जेपी ने भी इससे सन्तुष्ट होकर अपने 75वें जन्मदिन पर 11 अक्टूबर ’77 को स्वीकारा कि उन्हें लगता है कि नागरिक अधिकारों, मीडिया की स्वतंत्रता और लोकतंत्र के पुनर्जीवित हो जाने से उनकी जिन्दगी का मकसद (‘मिशन’) पूरा हो गया। उनके महाप्रस्थान पर देश और दुनिया को लगा कि स्वतंत्रता की एक मशाल बुझ गयी और पीड़ित मानव समुदायों का एक मार्गदर्शक चला गया।
ऐसे अद्वितीय जयप्रकाश नारायण को समझने में कबीर की एक कालजयी रचना की कुछ पंक्तियाँ बेहद प्रासंगिक हैं :
काहे कै ताना, काहे कै भरनी
कौन तार से बीनी चदरिया!
इंगला-पिंगला ताना भरनी
सुखमन तार से बीनी चदरिया।
सो चादर सुर नर मुनि ओढ़ी,
ओढ़ के मैली कीनी चदरिया।
दास कबीर जतन से ओढ़ी
ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया….