कवि-कर्म का पुनर्शोध

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— रामप्रकाश कुशवाहा —

पने सम्वेदनाधर्मी शिल्प के कारण निलय उपाध्याय की कविताएं विशिष्टता का अलग प्रतिमान रचती हैं। अपनी छठी कविता-पुस्तक दहन राग संग्रह की कविताओं को  वरिष्ठ कवि निलय उपाध्याय ने रचते हुए नहीं बल्कि देखते, रोते, याद करते और चिन्तन-दशा में  या सोचते हुए भी नहीं बल्कि यह कहें कि  चिंतित और सोच की दशा में लिखा है। उनका सर्जक साहित्य और जिन्दगी के  बीच के विभाजन को अस्वीकार करता है। वाल्मीकि से निराला तक की करुणा, पीड़ा, स्मृति और आक्रोश का उत्तराधिकार लेकर कवि अपनी कविताओं को जीवन के मार्मिक बयान के रूप में उपस्थित करता चलता है। इस संग्रह के पूर्वार्ध की कविताएँ जहाँ अपनी पूरी साहित्यिक परम्परा की स्मृति और विवेक लेकर अपने समय से संवाद करती हैं, वहीं उत्तरार्ध की कविताएं कवि का अपने समकालीन लोक, समाज और रिश्तों से कवि का जीवन-संवाद हैं। इन कविताओं में  पाठकों को जीवनानुभवों और जिये गये जीवन के नजदीकी साक्षात्कार से उपजी हुई अनेक मर्मस्पर्शी उक्तियाँ मिलेंगी।

इस संग्रह की कविताओं का नामकरण प्रलय या सर्वनाश का राग भी किया जा सकता था। क्योंकि बात पर्यावरण विनाश से आगे बिगड़ गयी है। ये कविताएँ  साहित्यिक परम्परा और समकाल के यथार्थ का अप्रत्याशित पुनःपाठ करती हैं। विद्रूप युग के नये पाठ को आधुनिकता से पूर्व के युग के साहित्यिक पाठों से मिलान करती हैं और फिर चौंकानेवाली खरी टिप्पणियाँ करती हैं। वर्तमान और अतीत के तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य मे वे समय के सच का साक्षात्कार करते और कराते हैं। कवि की दृष्टि में जिन्दगी का पक्ष ही कविता का पक्ष है-

निलय उपाध्याय

 ‘समझ गया कवि तड़प जीवन में है/ निकली आह’ (बहेलिया और कवि)

इस दृष्टि से आदि कवि वाल्मीकि की क्रौंच-वध वाली पीड़ा  को याद करते हुए कवि वर्तमान संदर्भों  में  कवि-धर्म को परिभाषित करते हुए कविता में बुराई का नाश  कर देनेवाली शाप की शक्ति देखना चाहता है।

इस संग्रह  की कई कविताएँ बदले संदर्भों में प्राचीन कवियों की कविताओं का पुनःपाठ करती हुई  समय के यथार्थ और उससे उपजे विडंबना-बोध को सामने लाती हैं। ‘घन्टा कवि’ में संस्कृत के महाकवि माघ के काव्य-वैभव  को याद करते हुए कवि प्रकृति और पर्यावरण में आए नकारत्मक परिवर्तन और विनाश की प्रभावी  अभिव्यंजना के लिए उन्हीं की वाणी की कामना करता है, माघ को सम्बोधित ‘घण्टा कवि’ कविता की निम्न पंक्तियों को देखें-

     “कह दो /  हवा सांस लेने लायक नहीं

      कह दो / पानी पीने लायक नहीं

      कह दो / अन्न देना बंद करने वाली है धरती

       कह दो / वापस जा रही है गंगा

       प्रलय शैया पर है देश ”

कवि कबीर के बहाने अपने समय का पुनःपाठ अत्यंत मार्मिक श्रद्धा के साथ करता है। संग्रह की ‘कबीर’ कविता  गुरु द्वारा शिष्य की छाती में तीर मारनेवाले  प्रसिद्ध दोहे को कबीर के जीवन के प्रसंगों से जोड़ कर उनके अपमान की आग को पाठकों तक एक पीड़ा के विमर्श के रूप में पहुंचाना चाहती है। कबीर से ही संबंधित संग्रह की दूसरी कविता ‘कबीर नगर’ कबीर की उलटबाँसियों का इस्तेमाल बदले परिवेश की विभीषिका  के मर्मस्पर्शी अंकन के लिए करती है-

        “उलट बांसियाँ

         उलट रही हैं, पुलट रही हैं

         सच हो रही हैं  कबीर

         समुद्र में  आग लग चुकी

         नदियाँ जल कर कोयला हो चुकी

         मछलियाँ आक्सीजन का मास्क लगाती हैं

         पेड़ पर घोसला बना रहती हैं ।”

कवि की सजग दृष्टि दरबारी कविता के दुष्परिणामों पर भी है।  ऐसे विचलन के लिए वह अपने प्रिय एवं यशस्वी पूर्वज कवि कालिदास को भी नहीं छोड़ता। सत्ता का समर्थन और कुछ समृद्धि-संसाधन पाने की लोभ-लालसा में महाकवि कालिदास जैसा कवि भी स्वयं को बचा नहीं पाता। कालिदास के बहाने यह कविता समस्त भाषाकर्मियों को सम्बोधित है जिसमें पत्रकारों यानी आशु लेखकों  को भी बाहर नहीं  रखा जा सकता। उनकी ‘कालिदास’ कविता, कालिदस के महान काव्य में भी सामन्तयुगीन अस्वीकार्य  मानसिकता की शिनाख्त और प्रतिवाद उपस्थित करती है-

      “राजा के

       जीत के वर्णन की खुशी में

       कावेरी को वांछित कर दिया

       यह तुमने क्या कर दिया कालिदास !

       जो नदी के वस्त्र उतारे

       वह कवि नहीं  हो सकता

       यह तुमने क्या कर दिया कालिदास।

इधर बीच कोरोना काल में  बहुत सी कविताएँ आयी हैं लेकिन ऐसी धड़कती-धधकती पंक्तियां अन्यत्र शायद ही कहीं दिखें-

      “हवा में  शव उड़ रहे हैं

        पानी में  लाशें बह रही हैं

        धरती पर जहाँ भी पत्थर फेंको

        मुर्दे निकल आते हैं

        हाहाकार रच रहा है जीवन

        दिशाओं को नींद नहीं आती”

                         (बहेलिया और कवि)

‘बाबा सुकरात’ कविता बाजार की उपयोगी भूमिका  और उसकी लुटेरी भूमिका के बीच सही परख और विवेक का आवाहन  सुकरात के स्वप्न-संदर्भ में करती है।

इस संकलन की शीर्षक कविता ‘दहन राग’ इन्द्रप्रस्थ बसाने के लिए कृष्ण और  अर्जुन द्वारा  महाभारत में खांडव वन जलाने के पौराणिक प्रसंग को  आज के समय में  राजनीतिज्ञों द्वारा लगायी गयी आग से प्रतीक-संदर्भित कर बहुत कुछ  अर्थ-संकेतों में कह  जाती है। कविता की अन्तिम पंक्तियों का  भावोच्छ्वास कुछ इस प्रकार है- “भाई रे/ सामान्य मौत अब नसीब नहीं होगी/ जारी है तीसरा ‘दहन राग’। उल्लेखनीय है कि दूसरा दहन राग आजादी की लड़ाई से जोडते हुए जलियाँवाला बाग को कवि ने कहा है। इसी तरह ‘लंका दहन’ कविता अपने निहित स्वार्थ के लिए आग से खेलाने वाले राजनीतिज्ञों  को कड़ी चेतावनी के रूप में लिखी गयी है। कवि के अनुसार इस तरह के कूटनीतिक खेलों के दोहरे और विपरीत विनाशकारी परिणाम सामने आ सकते हैं।

‘मशाल कथा’ कविता निराला और उन्के द्वारा जलायी गयी  कविता की मशाल जलाने की परम्परा को समर्पित है। वैसे तो इस संग्रह की हर कविता  में पीड़ा एवं असन्तोष की आग है लेकिन इस कविता की मानें तो निराला की कविताएँ हर पल मृत्यु का सामना करते हुए रचे गये जीवन के गीत  हैं-

“जैसे-जैसे छूट रही थी जीवन की आस/ वैसे-वैसे धधक रही थी मशाल” ( पृष्ठ 34)। सन्देश स्पष्ट है कि  यह धधकती मशाल कविता की ही है  लेकिन इस कविता के व्यंग्य की मार और धार  सत्ता के सम्मुख समर्पण कर अपनी-अपनी मशाल  बुझा चुके निराला के समकालीनों पर अधिक है। इस संग्रह की  कविताओं में  पाठकों को जीवनानुभवों और जिये गये जीवन के नजदीकी साक्षात्कार से उपजी हुई अनेक मर्मस्पर्शी उक्तियाँ मिलेंगी। जैसी कि ‘उठी हूक’ कविता की निम्न पंक्तियाँ-

         ‘उसे जला दिया

          जो गरम रोटी भी फाड़कर देती थी

          कि  मुँह न जले।’

 

किताब  :  दहन राग  

कवि : निलय उपाध्याय 

प्रकाशक : आपस पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स ,एल.आई .जी .-57  कोशलपुरी ,फेज-1 ,अयोध्या              (उ.प्र.)-224001

मूल्य : 199 रु.

मोबाइल :   9628961860

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