संजय कुंदन की दो कविताएं

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फोटो : कौशलेश पांडेय

1. सवाल है कि

 

राजधानी में सवाल उठ रहा है
कि किसानों ने धोती
क्यों नहीं पहन रखी है मैली-कुचैली,
क्यों नहीं है उनका गमछा तार-तार,
जैसा दिखता है किताबों में?

सवाल है कि
उनके हाथ में लाठी क्यों नहीं है
और कंधे पर गठरी,
जैसी दिखती है किताबों में?

क्यों नहीं वे पहुंचे यहां
याचक की तरह
जैसे फिल्मों में पहुंचते हैं
एक साहूकार के पास
सकुचाते-सहमते ?

एक कागज पर अंगूठा लगा देने के बाद
जैसे वे होते हैं कृतज्ञ एक महाजन के प्रति
वैसे क्यों नहीं हुए अहसानमंद
कि उन्हें राजधानी की सड़कों पर चलने दिया गया
पीने दिया गया यहां का पानी
यहां की हवा में सांस लेने दिया गया

क्यों नहीं उन्होंने डर-डर कर बहुमंजिली इमारतों को देखा
और थरथराते हुए सड़कें पार कीं
जैसे फिल्मों में करता है एक किसान गांव से शहर आकर?

सवाल है कि ये किस तरह के किसान हैं
जो सीधा तनकर खड़े होते हैं और
हर किसी से आंखों में आंखें डालकर बात करते हैं?

ये किस तरह के किसान हैं
ये किसान हैं भी या नहीं?

फोटो : कौशलेश पांडेय

2. उसका जाना

 

जब वह गया तो
उसके साथ कई कहानियां भी चली गयीं
असल में वह खुद एक कहानी था

जरा पूछो उसकी पत्नी से
वह उसके बारे में ऐसे बताएगी जैसे
वह किसी परीकथा का नायक हो
वह कई बार गायब हो जाता था घर से
फिर अचानक लौट आता था

वह एक कलाकार भी था
जो रात के आखिरी पहर
बांसुरी पर कोई धुन छेड़ देता था

उसकी बेटी बताएगी
वह एक अलग तरह का पिता था

जरा पूछो उसके दोस्तों से
वह गांधीजी को याद करता था
और कहता था
कि अभी अगर बापू होते तो सब ठीक हो जाता

लेकिन सरकार और मीडिया ने उसे
सिर्फ एक किसान माना
किसानों पर लिखे गये असंख्य निबंधों वाला एक किसान
और कहा कि एक और कृषक ने आत्महत्या कर ली
इस तरह इस वर्ष खुदकुशी करनेवाले किसानों की संख्या 11998 हो गयी
वह दस्तावेजों में 11998वें के रूप में दर्ज हुआ

उसकी खुदकुशी याद रखी गयी
लेकिन फंदे पर झूलने से पहले तक
उसने जो कुछ जिया
उसे भुला दिया गया।

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