— श्रवण गर्ग —
बहती होगी कहीं तो वह नदी !
कहीं तो रहती होगी वह नदी !
बह रही होगी चुपचाप
छा जाते होंगे ओस भरे बादल
जिसकी कोमल त्वचाओं पर
आते होंगे पक्षी, लांघते हुए
देस, समुद्र और पहाड़ हज़ार
चुगने बूँदें उसकी मोतियों वाली !
कहीं तो बहती होगी वह नदी !
खोजी नहीं जा सकी है जो अभी
डूबी भी नहीं है जो पानी में !
पर लगता है डर यह भी बहुत
बच नहीं पाएगी अब वह नदी
बहती हुई चुपचाप इसी तरह
कर रहा है तलाश उसकी
खारे पानी का समुद्र
भांजते हुए नंगी तलवारें अपनी
निगल जाने के लिए उसे !
ज़रूरी हो गया है बहुत
बचाए रखना उस नदी को
जन्मी हैं सभ्यताएँ सारी
कोख से किनारों के उसके
झूली हैं पालना
सुरम्य घाटियों में उसकी !
समुद्र तो ले जाता है
सभ्यताओं को परदेस
करता है आमंत्रित
लुटेरों को
करने के लिए राज, व्यापार
बनाने के लिए बंदी
ज़ुबानों, आत्माओं को !
रखना होगी नज़र अब रात-दिन
नहीं कर पाए उपवास
एक भी बूँद नदी की
सूख जाए नहीं चिंता में वह
निगल लिए जाने के डर से !
बोलना ही पड़ेगा कभी तो
पक्ष में उसके
बह रहा है जो नदियों की तरह
नहीं रह सकते हैं चुपचाप सभी
किनारों पर खड़े
बड़े-बड़े पहाड़ों की तरह !
…..
— अनिल सिन्हा —
बेनूर रंग
ये उदासी मौसम से नहीं उठी है
ये खौफ सर्द हवाओं ने नहीं लाया है
आँखों से होकर हमारी छाती में उतर आया है
कि वे रंग अचानक असुंदर हो गए हैं
जो आसमान को देते थे पैगाम
हरे, छरहरे बांसों पर लहरा कर
सुन्दर लगते थे सारंगी बजाते फकीरों
या अपनी ही आत्मा को खोजने निकले यात्रियों के बदन पर
रंग को हथियार बनाया है उन्होंने
और शब्दों को जहर
वसंत के धड़कते सीने को
भरा है नफरत के शोलों से
डरावनी कर दी हैं सड़कें
और, स्कूल, कॉलेजों से गायब होने लगे हैं सपने
झुण्ड ने घेर लिया है हमें
जवान लड़कियां छिपने लगी हैं काई लगी
पुरानी दीवारों के पीछे
उन्होंने पटक दिया है गाँधी को जमीन पर
तोड़ डाले हैं उसके हाथ
लेकिन उसके पैर चल रहे हैं
मुल्क की डूबती पगडंडियों पर
इतिहास पर छा रहे अंधेरों के बीच।
…..
— रत्नेश कुमार —
किसान जागा
1.
भगत सिंह का
देश है भैया
नाचेगा नहीं
बहुत दिनों तक
ता ता थैया
देखो मदारी
जागा भैया
किसान भैया
डूबेगी नहीं
देश की नैया।
2.
किसान जागा
आजादी जागी
भगत सिंही भी
दिल्ली में बोली
भारत की दादी
बहुत हो चुकी
सत्ता से शादी
पोतों-पोती
पुकार रहा देश
किसान अशेष
3.
अंबानी की बानी
बोलते ना ही दादा
बोलती ना ही दादी
अंबानी की बानी
बोलते ना ही नाना
बोलती ना ही नानी
अंबानी की बानी
बाजार वाली बानी
सुनते जाग गयी है
किसान वाली बानी
4.
धरा-धारा कहती
अंबानी-अडानी
सरकारी कहानी
दिखला दो जवानी
पढ़वा दो कहानी
किसान की कहानी
जनता की जबानी
(सभी पेंटिंग : कौशलेश पांडेय)
तीनों कवितायें संवेदनापूर्ण और मार्मिक हैं |