— जयशंकर गुप्त —
कई महीने जेल में बिताने के बाद परीक्षा के नाम पर हमें पैरोल-जमानत मिल गई लेकिन हम एक बार जो जेल से निकले तो दोबारा लौटने के बजाय आपातकाल के विरुद्ध भूमिगत आंदोलन में सक्रिय हो गए। उस क्रम में इलाहाबाद, वाराणसी और दिल्ली सहित देश के विभिन्न हिस्सों में आना-जाना, जेल में और जेल के बाहर भी संघर्ष के साथियों से समन्वय और सहयोग के साथ ही आपातकाल के विरोध में जगह-जगह से निकलनेवाले समाचार बुलेटिनों के प्रकाशन और वितरण में योगदान मुख्य काम बन गया था।
वाराणसी में हम जेल में निरुद्ध साथी, समाजवादी युवजन सभा के नेता (अभी कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय महासचिव) मोहन प्रकाश से मिले। उनसे कुछ पते लेकर वाराणसी में ही समाजवादी युवजन सभा, लोहिया विचार मंच और छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी के साथियों अशोक मिश्र, योगेंद्र नारायण, नचिकेता, कुंवर सुरेश सिंह, देवाशीष भट्टाचार्य, चंचल मुखर्जी, मदन मोहन लाल श्रीवास्तव आदि से लगातार संपर्क में रहा। वाराणसी प्रवास के दौरान अशोक मिश्र जी का चेतगंज के पास हबीबपुरा स्थित निवास हमारा ठिकाना होता।
इलाहाबाद में हमारा परिवार था। वहीं रहते नरसिंहगढ़ और बाद में भोपाल जेल में बंद रहे समाजवादी नेता मधु लिमये से पत्र संपर्क हुआ। वह हमें पुत्रवत स्नेह देते थे। उनसे हमने देश भर में तमाम समाजवादी नेताओं-कार्यकर्ताओं के पते लिये। मधु जी के साथ हमारा पत्राचार ‘कोड वर्ड्स’ में होता था।
मसलन, हमारे एक पत्र के जवाब में मधु जी ने लिखा, ‘पोपट के पिता को तुम्हारा पत्र मिला’। पत्र में अन्य ब्यौरों के साथ अंत में उन्होंने लिखा, ‘तुम्हारा बांके बिहारी’। यह बात समाजवादी आंदोलन में मधु जी के करीबी लोगों को ही पता थी कि उनके पुत्र अनिरुद्ध लिमये का घर का नाम पोपट था और मधु जी बिहार में बांका से सांसद थे। एक और पत्र में उन्होंने बताया कि ‘शरदचंद इंदौर गए’। यानी उनके साथ बंद रहे सांसद शरद यादव का तबादला इंदौर जेल में हो गया।
जब इंदिरा गांधी ने संविधान में संशोधन किया तो उसकी आलोचनात्मक व्याख्या करते हुए मधु जी ने उसके खिलाफ एक लंबी पुस्तिका लिखी और उसकी उनके साथ जेल में बंद आरएसएस पलट समाजवादी अध्येता विनोद कोचर की खूबसूरत हस्तलिखित प्रति हमारे पास भी भिजवा दी ताकि उसका प्रकाशन-प्रसारण हो सके। इसके साथ उन्होंने पत्र लिखा कि अगर हस्तलिपि मिल जाए तो लिखना कि ‘दमा की दवा मिल गयी है’।
उस समय हमारे सामने आर्थिक संसाधनों की कमी भी थी। मधु जी ने इलाहाबाद के कुछ वरिष्ठ अधिवक्ताओं (अधिकतर समाजवादी पृष्ठभूमि के) रामभूषण मेहरोत्रा, अशोक मोहिले, रविकिरण जैन, सत्येंद्रनाथ वर्मा और इलाहाबाद उच्च न्यायालय में राजनारायण जी के अधिवक्ता रहे शांतिभूषण और रमेश चंद्र श्रीवास्तव के साथ ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देनेवाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हेमवती नंदन बहुगुणा, उनके साथ प्रदेश के महाधिवक्ता रहे श्यामनाथ कक्कड़ के नाम भी पत्र लिखा कि ‘विष्णु पुत्र’ जान जोखिम में डालकर काम कर रहा है। इसकी हरसंभव मदद करें।’ इनमें से समाजवादी पृष्ठभूमि के नेता-अधिवक्ता तो वैसे भी निरंतर हमारी मदद कर रहे थे। उनके घरों में छिपकर रहना, खाना और मौके- बेमौके भाभियों से भी कुछ आर्थिक मदद मिलनी आम बात थी।
मधु जी के पत्र के साथ हम और समाजवादी नेता विनय कुमार सिन्हा लखनऊ में चौधरी चरण सिंह और चंद्रभानु गुप्त से भी मिले थे। हम लोग चौधरी साहब के एक राजनीतिक फैसले से सख्त नाराज थे। उन्होंने (चौधरी साहब ने) आपातकाल में विधान परिषद के चुनाव में भाग लेने की घोषणा की थी।
हमारा मानना था कि विधान परिषद का चुनाव करवाकर इंदिरा गांधी आपातकाल में भी लोकतंत्र के जीवित रहने का दिखावा करना चाहती थीं, लिहाजा विपक्ष को उसका बहिष्कार करना चाहिए था। हमने और विनय जी ने इस आशय का एक पत्र भी चौधरी चरण सिंह को लिखा था। जवाब में चौधरी साहब का पत्र आया कि चुनाव में शामिल होनेवाले नहीं बल्कि विधान परिषद के चुनाव का बहिष्कार की बात करनेवाले लोकतंत्र के दुश्मन हैं। हमारा आक्रोश समझा जा सकता था। लेकिन मधु जी का आदेश था, सो हम चौधरी साहब से मिलने गए। उन्होंने हमें समझाने की कोशिश की कि चुनाव का बहिष्कार बचे-खुचे लोकतंत्र को भी मिटाने में सहयोग करने जैसा होगा। हमारी समझ में उनकी बातें नहीं आनेवाली थीं। हमने इस बारे में मधु जी को भी लिखा था।
मधु जी का पत्र आया कि तुम लोग चौधरी साहेब के पीछे बेमतलब पड़े हो, यहां जेलों में संघ के लोग जिस तरह से माफीनामे लिखने में लगे हैं, उस पर चिंता करनी चाहिए।
गौरतलब है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक मधुकर दत्तात्रेय उर्फ बालासाहेब देवरस ने इंदिरा गांधी को एक नहीं कई ‘माफीनामानुमा’ पत्र लिखकर आपातकाल में हुए संविधान संशोधन पर आधारित सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्याधीश अजितनाथ रे की अध्यक्षतावाली संविधान पीठ के द्वारा श्रीमती गांधी के रायबरेली के संसदीय चुनाव को वैध ठहरानवाले फैसले पर बधाई देने के साथ ही उनकी सरकार के साथ संघ के प्रचारकों और स्वयंसेवकों के सहयोग करने की इच्छा जताई थी।
यहां तक कि उन्होंने (देवरस ने) कहा था कि बिहार आंदोलन और जेपी आंदोलन से संघ का कुछ भी लेना-देना नहीं है। उन्होंने संघ पर से प्रतिबंध हटाने और उसके प्रचारकों-स्वयंसेवकों को जेल से रिहा करने का अनुरोध भी किया था ताकि वे सरकार के विकास कार्यों में सक्रिय भूमिका निभा सकें। इससे पहले भी उन्होंने 15 अगस्त को लालकिला की प्राचीर से श्रीमती गांधी के भाषण की भरपूर सराहना की थी।
लेकिन इंदिरा गांधी ने उनके पत्रों पर नोटिस नहीं लिया था और ना ही कोई जवाब दिया था। बाद में श्री देवरस ने इस मामले पर आपातकाल को ‘अनुशासन पर्व’ कहनेवाले सर्वोदयी नेता विनोवा भावे को पत्र लिखकर उनसे श्रीमती गांधी के साथ अपने करीबी संबंधों का इस्तेमाल करते हुए संघ पर लगे प्रतिबंध को हटाने और प्रचारकों-स्वयंसेवकों की रिहाई सुनिश्चित करवाने के लिए हस्तक्षेप करने का आग्रह किया था। लेकिन उन्होंने भी कोई जवाब नहीं दिया था। महाराष्ट्र विधानसभा के पटल पर रखे गये आपातकालीन दस्तावेजों के अनुसार श्री देवरस ने राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री शंकरराव चह्वाण को भी इसी तरह का पत्र जुलाई 1975 में लिखा था।
बाद में अनौपचारिक तौर पर तय हुआ था कि सामूहिक माफी तो संभव नहीं, अलबत्ता माफीनामे निजी और स्थानीय स्तर पर अलग अलग भरे जाएं तो सरकार उन पर विचार कर सकती है। एक बिना शर्त वचन पत्र (अन्क्वालिफाईड अंडरटेकिंग) भरने की बात तय हुई थी जिसके लिए एक प्रोफार्मा भेजा गया था। इसके बाद से जेलों में माफीनामे भरने का क्रम शुरू हो गया था। जिनके पास प्रोफार्मा नहीं पहुंच सका, वे लोग एक पंक्ति के माफीनामे निजी और स्थानीय स्तर पर भर-भर कर जमा करने लगे। इसमें लिखा होता था, “हम सरकार के बीस सूत्री कार्यक्रमों का समर्थन करते हैं”।
बहरहाल, इलाहाबाद से हम मधु जी को अपने पत्र रविशंकर के नाम से भेजते थे। अपने पते की जगह अपने निवास के पास अपने मित्र अशोक सोनी के घर का पता देते थे। एक बार मधु जी ने जवाबी पत्र रविशंकर के नाम से ही भेज दिया। उससे हम परेशानी में पड़ने ही वाले थे कि डाकिये से मुलाकात हो गई और मित्र का पत्र बताकर हमने वह पत्र ले लिया। हमने मधु जी को लिखा कि ‘‘प्रयाग में रवि का उदय होता है, भोपाल में अस्त होना चाहिए, भोपाल से शंकर की जय होगी तब बात बनेगी। आप जैसे मनीषी इसे बेहतर समझ सकते हैं।’’ इसके बाद मधु जी के पत्र दिए पते पर जयशंकर के नाम से आने शुरू हो गए। आपातकाल की समाप्ति के बाद मधु जी ने बताया था कि किस तरह वे हमारे पत्र जेल में बिना सेंसर के हासिल करते (खरीदते) थे। वे अपने पत्रों को भी कुछ इसी तरह स्मगल कर बाहर भिजवाते थे, कई बार अपनी पत्नी चम्पा लिमये जी के हाथों भी।
आपातकाल में जब लोकसभा की मियाद पांच से बढ़ाकर छह वर्ष कर दी गयी तो विरोधस्वरूप मधु जी और शरद यादव ने लोकसभा से त्यागपत्र दे दिया था। त्यागपत्र तो समाजवादी नेता जनेश्वर मिश्र जी ने भी दिया था लेकिन उन्होंने अपना त्यागपत्र लोकसभाध्यक्ष के पास भेजने के बजाय चौधरी चरण सिंह के पास भेज दिया था। मधु जी ने मुझे पत्र लिखकर कहा कि नैनी जेल में जाकर जनेश्वर से मिलो और पूछो कि क्या उन्हें लोकसभाध्यक्ष का पता नहीं मालूम! मैं उनके पत्र के साथ किसी तरह मुलाकाती बनकर नैनी जेल में जनेश्वर जी से मिला और उन्हें मधु जी का सन्देश दिया। जनेश्वर जी कुछ उखड़ से गए और बोले, मधु जी अपनी पार्टी के नेता हैं लेकिन हमारी पार्टी (लोकदल) के नेता, अध्यक्ष चरण सिंह हैं। लिहाजा, हमने त्यागपत्र उनके पास ही भेजा।
इस तरह के तमाम प्रसंग हैं जो आपातकाल पर हमारी आनेवाली पुस्तक में देखने को मिल सकते हैं। (पुस्तक का लेखन अपने अंतिम चरण में है।)