7 अगस्त। ‘कैंपेन फॉर जुडीशियल एकाउंटेबिलिटी एंड रिफार्म्स’ ( CJAR), पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (PUCL) और जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (NAPM) ने ‘जुडीशियल रोलबैक आफ सिविल लिबर्टीज’ पर 6 अगस्त 2022 को डिप्टी स्पीकर हॉल एनेक्सी, कॉन्स्टीट्यूशन क्लब ऑफ इंडिया में एक पीपुल्स ट्रिब्यूनल का आयोजन किया।
ट्रिब्यूनल का केंद्रबिंदु गुजरात दंगों (2002) और छत्तीसगढ़ आदिवासियों के नरसंहार (2009) पर सुप्रीम कोर्ट के 2022 के फैसलों पर था। सुप्रीम कोर्ट के कई वरिष्ठ अधिवक्ताओं सहित अन्य याचिकाकर्ताओं ने सेवानिवृत्त न्यायाधीशों और प्रतिष्ठित व्यक्तियों के एक पैनल के सामने कहा कि हाल के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय इस देश के लोगों की संवैधानिक सुरक्षा और नागरिक स्वतंत्रता पर न्यायिक जिम्मेदारी को पलीता लगाते हैं। ट्रिब्यूनल के सदस्यों में न्यायमूर्ति एपी शाह (पूर्व मुख्य न्यायाधीश, दिल्ली उच्च न्यायालय और पूर्व अध्यक्ष, भारतीय विधि आयोग), न्यायमूर्ति अंजना प्रकाश (पूर्व न्यायाधीश, पटना उच्च न्यायालय), न्यायमूर्ति मार्लापल्ले (पूर्व न्यायाधीश, बॉम्बे उच्च न्यायालय), प्रोफेसर वर्जिनियस जाक्सा (एसटी की स्थिति की जाँच करने के लिए 2014 उच्च स्तरीय समिति के अध्यक्ष) और डॉ सैयदा हमीद (योजना आयोग के पूर्व सदस्य) आदि थे।
ट्रिब्यूनल का पहला सत्र हिमांशु कुमार के मामले में आए फैसले पर केंद्रित था, जहाँ सुप्रीम कोर्ट ने न केवल 2009 में गच्चनपल्ली और गोम्पाड गाँवों में हुई हत्याओं की स्वतंत्र जाँच के लिए याचिकाकर्ताओं की माँग को खारिज कर दिया था, बल्कि याचिकाकर्ता संख्या-1 अर्थात हिमांशु कुमार पर ₹5 लाख का जुर्माना भी लगाया। इसके अलावा अदालत ने सुझाव दिया, कि हिमांशु कुमार की आईपीसी की धारा 211 के तहत जाँच की जाए और केंद्र सरकार को उन सभी लोगों की जाँच करने की अनुमति दी जाए, जिन्होंने किसी भी अदालत में माओवाद विरोधी अभियानों में सुरक्षा बलों की ज्यादतियों के खिलाफ शिकायत की है।
ट्रिब्यूनल का दूसरा सत्र जाकिया जाफरी की याचिका पर फैसले पर था और PUCL की कविता श्रीवास्तव ने इस सत्र का संचालन किया। सत्र की शुरुआत दिवंगत कांग्रेस सांसद एहसान जाफरी के बेटे तनवीर जाफरी की गवाही से हुई। गुलबर्गा सोसायटी हत्याकांड की घटनाओं को याद करते हुए उनकी आँखों में आँसू आ गए। उन्होंने बताया, कि पुलिस आयुक्त कार्यालय, सोसायटी से महज 5 मिनट की दूरी पर था। पुलिस कमिश्नर और मुख्यमंत्री को कई बार फोन किया, लेकिन कोई मदद नहीं मिली। यह 8 घंटे के लिए पूर्ण रक्त स्नान था। उनकी माँ ने अपनी आँखों के सामने नरसंहार देखा था। शीर्ष अधिकारियों को इतने सारे कॉल के बावजूद कोई राहत क्यों नहीं भेजी गई? इसलिए मामला दर्ज कराया गया था। सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने न केवल उनके परिवार को व्यक्तिगत रूप से प्रभावित किया बल्कि यह राज्य के सभी मुसलमानों के लिए एक झटका है।
एडवोकेट निजाम पाशा ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले में खामियाँ उजागर कीं। उन्होंने कहा कि कोर्ट का निर्णय गुजरात राज्य में उच्च सरकारी अधिकारियों की ईमानदारी पर सवाल उठाने के याचिकाकर्ता के ‘दुस्साहस’ पर बार-बार सवाल उठाता है। उन्होंने कहा, कि याचिकाकर्ताओं के तर्क तत्कालीन सीएम की भूमिका के इर्द-गिर्द नहीं घूमने के बावजूद कोर्ट का निर्णय अंतिम निष्कर्ष पर पहुँचा, कि तत्कालीन सीएम दंगों के लिए जिम्मेदार नहीं थे। उन्होंने आगे कहा, कि भले ही प्रत्येक घटना (जैसे कि गुलबर्गा सोसायटी नरसंहार) पूर्व नियोजित न हो, मुसलमानों के नरसंहार के लिए जमीनी काम पहले ही किया जा चुका था।
एडवोकेट मिहिर देसाई ने कालक्रम से मामले के इतिहास की ओर इशारा करते हुए शुरुआत की। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के इस निष्कर्ष का विरोध किया कि ‘याचिकाकर्ताओं ने बर्तन को उबलने के लिए रखा था।’ जबकि इसी सुप्रीम कोर्ट और एनएचआरसी ने 2002 और 2012 के बीच कई मौकों पर गुजरात प्रशासन की भूमिका पर सवाल उठाये थे। उन्होंने बताया, कि कैसे आरबी श्रीकुमार ने 2002-2005 तक कई निकायों के सामने गुजरात सरकार की भूमिका पर सवाल उठाया था। उन्होंने यह भी कहा, कि न तो श्रीकुमार और न ही तीस्ता को फैसले से पहले सुप्रीम कोर्ट द्वारा कोई नोटिस दिया गया, जिसने उन्हें फटकार लगाई और जिसके परिणामस्वरूप उनकी गिरफ्तारी हुई। उन्होंने निष्कर्ष निकाला, कि साजिश की जाँच के नाम पर हमें कई और लोगों को कटघरे में खड़ा किए जाने के लिए तैयार रहना चाहिए।
ट्रिब्यूनल का तीसरा सत्र ‘नागरिक स्वतंत्रता पर न्यायिक हमले’ को लेकर था। जिसकी शुरुआत अधीनस्थ अदालतों और उच्च न्यायालयों में वकालत करने वाली अधिवक्ता वारिशा द्वारा एक सिंहावलोकन प्रस्तुति के साथ हुई। उन्होंने कहा, कि पिछले कुछ वर्षों में हमने एक दबंग कार्यपालिका को देखा है, जिसने कानून के शासन और नागरिक स्वतंत्रता के लिए कोई सम्मान नहीं दिखाया है और किसी भी तरह के असंतोष को कुचल दिया है। स्वाभाविक रूप से नागरिक और लोकतांत्रिक स्वर न्यायपालिका को अपने अधिकारों के रक्षक के रूप में देखेंगे, और राज्य की मनमानी कार्रवाई पर रोक लगाएंगे। उन्होंने आगे बताया, कि कैसे सुप्रीम कोर्ट अपने कर्तव्य में विफल रहा, जैसा कि हाल के फैसले जैसे कि पीएमएलए से संबंधित फैसले से पता चलता है। अनुच्छेद 370 को निरस्त करने, सीएए विरोधी या चुनावी बांड को चुनौती देने वाली महत्वपूर्ण याचिकाओं पर सुनवाई में देरी किए जाने से ऐसा प्रतीत होता है, कि सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को हर तरह से वाकओवर दिया है।
वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने यह कहते हुए शुरुआत की, कि सुप्रीम कोर्ट के कुछ अच्छे फैसलों को भी धरातल पर लागू नहीं किया गया है। उन्होंने कहा, कि न केवल हमारे कानून बल्कि हमारी संस्थाएं भी औपनिवेशिक हैं। उन्होंने कहा, कि कोई भी अदालत, जहाँ मामलों को सूचीबद्ध करने का फैसला केवल एक व्यक्ति द्वारा किया जाता है, को स्वतंत्र नहीं माना जा सकता है। उन्होंने कहा, कि उदाहरण के लिए घृणा अपराधों के मामलों में, सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ नहीं किया और देश भर में धर्म संसदों का आयोजन जारी है। जाकिया के मामले में अदालत ने पेश किए गए कई सबूतों पर विचार ही नहीं किया। उन्होंने कहा कि एक अदालत जो कार्यपालिका पर सवाल नहीं उठाती, वह स्वतंत्र नहीं हो सकती।
जूरी का अवलोकन
सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्वतंत्र जाँच से इनकार करने और याचिकाकर्ताओं पर जुर्माना लगाने से निराश जूरी सदस्य एपी शाह ने छत्तीसगढ़ मामले में याचिकाकर्ताओं की सुनवाई पर संक्षिप्त टिप्पणी की, इस मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपनाए गए दृष्टिकोण पर अपनी निराशा व्यक्त की। उन्होंने कहा, कि हत्याकांड की घटना विवाद में नहीं है और भले ही पीड़ित का आरोप, कि यह पुलिस और सुरक्षा बलों ने उन पर हमला किया था, पर विश्वास न किया जाए, फिर भी एक निष्पक्ष और स्वतंत्र जाँच की मांग में कुछ भी गलत नहीं है। उन्होंने आगे कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने उस संघर्ष को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया जिसके माध्यम से पीड़ित आदिवासी इस अदालत तक पहुँचने में कामयाब रहे। जाँच के लिए एसआईटी बनाने के बजाय, याचिकाकर्ता नंबर 1 पर 5 लाख का जुर्माना लगाया गया, यह कैसा न्याय है? निराशा व्यक्त करते हुए न्यायमूर्ति शाह ने कहा, कि वह स्वयं एक न्यायाधीश रहे हैं और उन्होंने ऐसी कई कार्यवाही देखी है लेकिन स्वतंत्र जाँच से इनकार करने और याचिकाकर्ताओं पर जुर्माना लगाने की प्रवृत्ति एक स्वस्थ संकेत नहीं है।
न्यायमूर्ति अंजना प्रकाश (सेवानिवृत्त) ने कहा, कि सुप्रीम कोर्ट ने वास्तव में अपने दो फैसलों से पीड़ितों के साथ अन्याय किया है। उन्होंने कहा, कि जो भी स्थिति हो, न्याय के लिए सर्वोच्च न्यायालय का सहारा लेना हमारा दायित्व है और अधिकांश मामलों में न्यायालय अपना कर्तव्य पूरा करता है। उन्होंने कहा, कि हम सामंती व्यवस्था में नहीं रहते हैं और यह करदाताओं का पैसा है, जो हर संस्थान को चलाता है, इसलिए सभी संस्थान लोगों को न्याय देने के लिए बाध्य हैं।
जूरी सदस्य वर्जिनियस जाक्सा ने छत्तीसगढ़ और गुजरात, दोनों मामलों में पीड़ितों द्वारा दिए गए बयानों और गवाही पर संक्षिप्त टिप्पणी की। उन्होंने पीड़ितों की स्थितियों के साथ-साथ न्याय प्रणाली में उनका विश्वास कैसे हिल गया, इस पर दुख व्यक्त किया। उनकी राय में ट्रिब्यूनल के दौरान उठाए गए सभी तीन मुद्दों में एक बात समान है। सुप्रीम कोर्ट ने जानबूझकर या अनजाने में नागरिकों की चिंताओं को दूर करने में विफल होकर राज्य को मनमानी के लिए प्रोत्साहित किया है। उन्होंने आगे कहा, कि न्यायाधीशों द्वारा किए गए फैसलों में कभी-कभी तर्कसंगतता और निष्पक्षता की कमी होती है। वे राज्य को पूर्ण दण्ड से मुक्ति के लिए प्रोत्साहित करते प्रतीत होते हैं। उन्होंने कहा, कि वह खुद एक आदिवासी पृष्ठभूमि से आते हैं और जानते हैं, कि कैसे सामान्य समय में भी आदिवासी पुलिस से और मामलों की रिपोर्ट करने से डरते हैं। उन्होंने कहा, कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले से आदिवासी और अन्य लोग बहुत आहत हुए हैं।
CJAR, PUCL और NAPM ने 6 अगस्त को कॉन्स्टीट्यूशन क्लब ऑफ इंडिया में एक पीपुल्स ट्रिब्यूनल का आयोजन किया। ट्रिब्यूनल का केंद्रबिंदु गुजरात दंगों और छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के नरसंहार (2009) पर सुप्रीम कोर्ट के फैसलों पर था।