(कल प्रकाशित ‘आचार्य नरेंद्रदेव मेरी दृष्टि में’ का दूसरा हिस्सा)
जिन कारणों ने मुझे पार्टी और राजनीति छोड़कर सर्वोदय आंदोलन में जाने को प्रेरित किया, उनमें से वह आत्मिक दुख भी था जो पार्टी में चरित्रहनन और उसके विघटन के समय मुझे हुआ। राजनीति में मतभेद तो पैदा होते ही हैं और जब वह एक मर्यादा के बाहर चले जाते हैं तो फिर जिनके मत मिलते नहीं, उनका अलग हो जाना स्वाभाविक होता है, परंतु हर मतभेद के लिए कोई गुप्त कारण है, कोई नीयत है, कोई आंतरिक दुर्बलता है, इस प्रकार की जब चर्चा और प्रचार होता है तो वह अत्यंत दुखदायी होता है। आज तक मुझे विश्वास है कि उस समय के मतभेद इतने बड़े नहीं थे कि उनके कारण साथी अलग हों। परंतु उनको ऐसा लगा कि वह साथ नहीं चल सकते। उनका अलग होना अनावश्यक होते हुए भी समझने लायक हो सकता है, परंतु नीयत पर शक करना, चरित्रहनन का जहर फैलाना, यह तो राजनीति के दायरे के बाहर की बात होती है।
मैं अपने तथा आचार्य जी, दोनों ही के बारे में कह सकता हूं कि हममें से कोई भी न थक गया था, न पदलोलुपता का ही शिकार हो गया था, न हम यही चाहते थे कि पार्टी कांग्रेस में मिल जाए। हाँ, इतना है कि आचार्य जी का और मेरा जवाहरलाल जी से बड़ा निकट का संबंध था, लेकिन जब हम लोगों की उनसे मुलाकात हो तो उसका यह कोई माने नहीं था कि उनके साथ समाजवादी आंदोलन को खत्म कर देने का कोई षड्यंत्र हम रच रहे हैं। उस एक बार को छोड़कर जवाहरलाल जी ने मेरा तथा पार्टी का अथवा जब सोशलिस्ट पार्टी थी तो उसको, कांग्रेस में मिलाने की या उसके साथ सहयोग करने की कोई बात मुझसे नहीं छेड़ी, परंतु व्यक्तिगत मित्रता का भी, जब ऐसा राजनीतिक अर्थ निकाला जाता तो उसका हमारे पास कोई जवाब नहीं था।
श्री अशोक मेहता ने ‘कंपलशंस ऑफ बैकवर्ड इकोनॉमी’ की, जो बात अपनी बैतूल रिपोर्ट में लिखी थी, मैं उससे सहमत नहीं था। उस पर बौद्धिक विचार हो सकता था, पर बैतूल में तो हवा ही कुछ ऐसी जहरीली हो गई थी, जिसमें विचारों का आदान-प्रदान असंभव था। वहाँ तो रूप यही दिया गया कि अशोक मेहता ने जयप्रकाश नारायण और संभवतः नरेंद्रदेव के इशारे से यह बात लिखी है। इस वातारवण से क्षुब्ध हो मैंने पार्टी की कार्यकारिणी से, वहां इस्तीफा घोषित किया। यद्यपि लोगों के आग्रह पर मैंने अपना इस्तीफा वापस ले लिया, पर मेरे लिए पार्टी में काम करना कठिन हो गया और मैं धीरे-धीरे पार्टी से अलग हो गया।
मेरे विचार में बैतूल कांफ्रेंस के दिन, भारतीय समाजवाद के लिए बुरे दिन थे। उसने विघटन की प्रक्रिया को बढ़ाया। उसका दुखद प्रभाव आज भी उस आंदोलन पर बना हुआ है और ऐसा नहीं लगता कि कभी उसका उद्धार होगा। मैं तो पार्टी से अलग ही हो गया, परंतु आचार्य जी उसमें कायम रहे और यथाशक्ति उसको आगे ले जाने का प्रयास करते रहे। इस प्रयास में जो मानसिक और हार्दिक क्लेश उन्हें हुआ, उसका घातक असर उनके स्वास्थ्य पर पड़ा। उनके जैसे उदार चरित, निष्कपट और महान् व्यक्ति के विषय में, जो बातें उन दिनों कही गईं, और उन लोगों के द्वारा जो चरित्र में उनको छू तक नहीं सकते थे, वह भारतीय समाजवादी आंदोलन का एक अत्यंत काला पृष्ठ था।
आचार्य जी के व्यक्तित्व, उनकी विद्वत्ता, उनकी अपूर्व वक्तव्य शक्ति, इन सबके बारे में कुछ विशेष कहने की आवश्यकता नहीं है। वर्तमान पीढ़ी उनके इन गुणों से भलीभांति परिचित है फिर भी प्रकृत जन-सौजन्य, ईर्ष्या-द्वेष आदि से परे निर्मल चित्त, प्रसन्न मुद्रा, हास्य रस, सहज प्रेम, निस्पृह सेवा, विद्वत्ता, भाषण-शक्ति उनके व्यक्तित्व के कुछ ऐसे गुण हैं, जिनका संक्षेप में उल्लेख आवश्यक लगता है।
मैंने उनके साथ, न जाने कितना समय बिताया होगा, अकेले में भी और मित्र मंडलियों में भी, परंतु मैंने कभी दूसरे की निन्दा करते हुए उन्हें नहीं सुना, ज्यादा से ज्यादा किसी के बारे में वह कह सकते तो इतना ही कि अमुक आदमी बहुत गड़बड़ है या तिकड़मी है। उससे कठोर या कटुतापूर्ण शब्द का प्रयोग, उन्होंने उस काल में भी कभी नहीं किया, जबकि उनके ही निकट के साथी उन पर तीखे और दूषित बौछार कर रहे थे। मैंने यह भी देखा कि दमे का दौरा पड़ने पर भी उनकी खुशमिजाजी बनी रहती थी और वे खुद अपने या दूसरे के मजाक में आनंद लेते रहते थे।
उनको लोगों ने अजातशत्रु की उपाधि दी थी। उनकी इंसानियत अद्भुत थी। वहां कोई नहीं पहुंच पाता था। उनकी बौद्धिक शक्ति, उनका ज्ञान, उनका वाक्पटुता, उनकी भाषण शक्ति अद्भुत थी। आचार्य नरेंद्रदेव राजनीतिक नेता तथा इतिहास और दर्शन के महान पंडित तो थे ही, साथ ही साथ समाजवाद के भी प्रकांड विद्वान थे। वे निःसंदेह विश्वव्यापी समाजवाद के एक बड़े नेता और विचारक थे। सिद्धांत और व्यावहारिकता का उनमें उत्तम समन्वय था।
उनकी विद्वत्ता के विषय में, खासकर इतिहास, दर्शन, समाजवाद, समाजशास्त्र, राजशास्त्र, संस्कृति आदि के ज्ञान के बारे में, कुछ कहना गैरजरूरी होगा। उसका सबूत तो उनकी पुस्तकें, उनके लेख और भाषण आदि ही हैं। जहां तक वक्तृता की बात है आज बहुत लोग जीवित हैं, जिन्होंने उनके हिंदी तथा उर्दू के भाषण सुने होंगे। इनमें उनका मुकाबला कर सकने योग्य, देश में उंगली पर भी गिनने लायक लोग नहीं थे। उनके भाषण में, जितनी भाषा की उत्तमता होती थी, उतनी ही विचार और तर्क की ऊँचाई और उसी प्रकार बोलने की तर्ज भी…..।
सन् 1929 ई. के नवंबर मास में लगभग साढ़े सात वर्षों के बाद, मैं अमरीका से स्वदेश लौटा था। चूंकि इस अर्से में मैं एक कट्टर मार्क्सवादी बन चुका था, इसलिए स्वदेश लौटने पर, यहां के मार्क्सवादियों से जल्द से जल्द संपर्क स्थापित करने की कोशिश मैंने की। मुझे निश्चित रूप से याद नहीं है कि असहयोग आंदोलन के समय नरेंद्रदेव जी से मेरा परिचय हुआ था या नहीं। इतना तो याद है कि श्रीप्रकाश जी से मिलने के लिए जब मैं वाराणसी गया था, उस समय शायद उनके ही साथ मैं ठहरा था या काशी विद्यापीठ में मेरे ठहरने की व्यवस्था की गई थी और वहीं आचार्य जी से मेरा परिचय हुआ। थोड़े ही दिनों में हमारी मित्रता बहुत प्रगाढ़ हो गई।
कट्टर मार्क्सवादी होते हुए भी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य मैं इसलिए नहीं बना कि राष्ट्रीय आंदोलन के विषय में लेनिन की जो शिक्षा थी, उससे कम्युनिस्ट पार्टी दूर पड़ गई थी। लेनिन ने इस बात पर बहुत जोर दिया था कि पराधीन देशों में राष्ट्रीय स्वातंत्र्य के लिए साम्राज्यवाद के विरुद्ध जो भी आंदोलन चले, भले ही वे राष्ट्रीय पूंजीपतियों के प्रभाव में हों, कम्युनिस्टों को उससे संबंध-विच्छेद नहीं करना चाहिए, परंतु स्तालिन ने इस नीति को बदल दिया, जिसके परिणामस्वरूप अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन और संगठन में दरार पड़ गई।
भारत में कम्युनिस्ट पार्टी के, उस समय के नेता श्री पूरनचंद्र जोशी, अजय घोष आदि थे। उनसे मैं मिला और उन्हें समझने तथा समझाने की कोशिश की, परंतु तब तक अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन और संगठन स्तालिन की तानाशाही के शिकार बन चुके थे और वहां स्वतंत्र चिंतन एवं कार्य के लिए कोई गुंजाइश नहीं रह गई थी। भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में भी यही स्थिति थी। लेकिन नरेंद्रदेव और अन्य ऐसे मार्क्सवादी थे, जिन्होंने लेनिन का मार्ग नहीं छोड़ा था। इन मार्क्सवादी समाजवादियों में आचार्य नरेंद्रदेव अग्रणी थे। उनके प्रबुद्ध सहयोग से मार्क्सवादी समाजवादी आंदोलन को एक नई दिशा मिली। वह राष्ट्रीयता से जुड़ा और आजादी की लड़ाई में उसने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
आचार्य जी का चरित्र बहुत ऊँचा और आकर्षक था। मेरा खयाल है कि उस समय के राष्ट्रीय नेताओं में आचार्य जी का स्थान बहुत ऊँचा था। राष्ट्रीय स्तर के वक्ताओं में मौलाना अबुल कलाम आजाद के बाद आचार्य जी का ही स्थान था।
हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं में वे धाराप्रवाह बोल सकते थे। उनकी वाक्पटुता अपूर्व थी। अंग्रेजी में भी वे अच्छा बोल लेते थे। देश की प्राचीन भाषाओं में संस्कृत और पालि पर उनका अधिकार था। विदेशी भाषाओं में अंग्रेजी के अलावा फ्रेंच की भी उन्हें अच्छी जानकारी थी। भारतीय संस्कृति का उनका गहरा अध्ययन था। बौद्ध दर्शन के भी वे अधिकारी ज्ञाता थे। समाजवादी आंदोलन को ऐसे बड़े विद्वान और मनीषी से बहुत बल मिला। उनके चिंतनपूर्ण लेखों से भारतीय समाजवाद का बौद्धिक आधार पुष्ट हुआ और देश के बुद्धिजीवी वर्ग में उसकी प्रतिष्ठा हुई।
कालांतर में मेरे विचारों में परिवर्तन हुआ और मार्क्सवाद के भौतिकवादी सिद्धांतों में मेरा विश्वास हिल गया। धीरे-धीरे न केवल समाजवादी आंदोलन से, बल्कि दल एवं सत्ता की राजनीति से ही मैं अलग हो गया। इसी बीच समाजवादी आंदोलन में बिखराव शुरू हुआ, जिसका कुप्रभाव आचार्य जी के रुग्ण स्वास्थ्य पर पड़ा और वे असमय ही चल बसे। उनके निधन से भारतीय समाजवादी आंदोलन को जो धक्का लगा, उससे वह फिर उबर नहीं पाया।
यह निर्विवाद है कि भारतीय समाजवाद के सैद्धांतिक विकास में नरेंद्रदेव जी की देन अप्रतिम है। उनके पांडित्यपूर्ण चिंतन का प्रभाव न केवल समाजवादी आंदोलन पर, बल्कि राष्ट्रीय विकास के अन्य क्षेत्रों पर भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पड़ा। वे आधुनिक भारत के प्रमुख निर्माताओं में थे।