‘चौरंगी वार्ता’ ने ऐतिहासिक भूमिका निभाई

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— गंगा प्रसाद —

‘चौरंगी वार्ता’ सोलह पृष्ठ की दिखने में बिल्कुल साधारण साप्ताहिक पत्रिका थी। लेकिन वह थी बेजोड़ और असाधारण। उसका अपना एक अलग ही इतिहास है। देश और समाज में लोकतांत्रिक व समतामूलक बदलाव बाबत सोच, जनमत, आंदोलनात्मक माहौल तैयार करने, जुल्मी व तानाशाही सरकार और शासक दल के खिलाफ युवजनों को संगठित होकर अहिंसात्मक तरीके से आगे आने के लिए प्रेरित करने की दिशा में उसने एक मिसाल कायम की। विभिन्न राज्यों के आंदोलनों, खासकर बिहार आंदोलन में उसकी अहम भूमिका थी। लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने इस सिलसिले में चौरंगी वार्ता को अव्वल और महत्त्वपूर्ण माना था। 1975 में आपातकाल लागू होते ही उसका प्रकाशन ठप हो गया।

समाजवादी चिंतक और राजनीतिज्ञ डा. राममनोहर लोहिया के रहते अंग्रेजी में ‘मैनकाइंड’ और हिंदी में ‘जन’ पत्रिकाएं निकलती थीं। 1967 में उनके निधन के बाद ये दोनों पत्रिकाएं कुछ महीने किसी तरह निकलती रहीं और उसके बाद बंद हो गयीं। इन दोनों पत्रिकाओं से जुड़े और डा. लोहिया के सच्चे अनुयायियों को दोनों पत्रिकाओं की कमी खलने लगी। उन्होंने ‘मैनकाइंड’ और ‘जन’ की कमी पूरी करने के लिए एक नई पत्रिका निकालने के बारे में सोचना शुरू किया। आखिरकार कलकत्ता (कोलकाता) के 8, इंडियन मिरर स्ट्रीट से एक पत्रिका का निकालना तय हुआ।

इंडियन मिरर स्ट्रीट में डा. लोहिया के करीबी दिनेश दासगुप्त (दादा) और यमुना सिंह रहते थे। वहां समाजवादी नेता-कार्यकर्ता आया-जाया करते थे और उनकी बैठकें होती रहती थीं। दिनेश दासगुप्त चटगांव शस्त्रागार लूट कांड में शामिल रहे थे और सेलुलर जेल में सजा काटे हुए मास्टर सूर्य सेन के अनुयायी थे। वे 1942-43 में डा. लोहिया के करीब आए और आखिर तक लोहियावादी समाजवादी बने रहे। उत्तर प्रदेश के जौनपुर के रहने वाले यमुना सिंह कलकत्ता में रहते हुए डा. लोहिया के विभिन्न कार्यक्रमों के दौरान ही उनके करीब हुए। दिनेश दासगुप्त और यमुना सिंह के अलावा कलकत्ता में रह रहे रमेश चंद्र सिंह, योगेंद्र पाल, रामअवतार उमराव समेत कई समाजवादियों ने यहां से पत्रिका निकालने का इंतजाम कर लिया। किशन पटनायक, ओमप्रकाश दीपक और ‘मैनकाइंड’ व ‘जन’ से जुड़े रहे समाजवादी बुद्धिजीवी पहले से तैयार थे ही।

चौरंगी वार्ता के नाम से सााप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन 1969-70 से शुरू हो गया। रमेश चंद्र सिंह संपादक हुए और योगेंद्र पाल प्रकाशक। दिल्ली में ‘जन’ को संभाल चुके अशोक सेकसरिया दिल्ली से कलकत्ता वापस आ गए थे। कलकत्ता में ही उनका आवास था। उन्होंने चौरंगी वार्ता को जन की तरह संभालना शुरू कर दिया।

चौरंगी वार्ता में देश भर की महत्त्वपूर्ण राजनीतिक घटनाओं, महंगाई, बेरोजगारी, आदिवासियों, दलितों, पिछड़ों, मुस्लिमों, कमजोर तबके के लोगों, महिलाओं पर होने वाले जुल्मों, अन्यायों, गरीबी और भुखमरी जैसे मुद्दों पर संपादकीय, लेख और टिप्पणियां तथा सरकारों व शासक दलों के खिलाफ होने वाले आंदोलनों के समाचार व रिपोर्ताज छपने लगे। आम लोगों की समस्याओं को उजागर करने और सरकार व प्रशासन की पोल खोलने के मकसद से नए-नए कॉलम के तहत एक से एक महत्त्वपूर्ण व तथ्यपूर्ण सामग्रियां छपने लगीं। ‘छोटी-छोटी जिंदगियां’ कॉलम की शुरुआत ओमप्रकाश दीपक ने की, तो विरोध की राजनीति कॉलम की शुरुआत की किशन पटनायक ने। देश की हालत कॉलम के तहत उद्योग समेत विभिन्न धंधों की दयनीय होती स्थिति के बारे में बहुत-से लेख ओमप्रकाश दीपक ने लिखे, तो महंगाई पर किशन पटनायक ने कई लेख लिखकर बताया कि महंगाई बढ़ने के पीछे कौन-से नीतिगत कारण हैं और महंगाई पर किस तरह काबू पाया जा सकता है।

दिनेश दासगुप्त, मामा बालेश्वर दयाल, रामअवतार उमराव, इंदुमति केलकर, हीरालाल जैन, रामइकबाल, शिवपूजन सिंह, सच्चिदानंद सिन्हा, रवि राय, अवध नारायण सिंह, रामानंद सेन, पद्मदेव तिवारी, रामेश्वर सिन्हा, विजय नारायण, रघुवंश, युगेश्वर, पंकज, रामानंद सेन, मुहम्मद जमान, ईश्वरी चंद्र मंडी समेत तमाम समाजवादी नेताओं-कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों ने मौके-मौके पर रिपोर्ताज और लेख लिखे। समाजवादी पुलिन डे ने बांग्लादेश की राजनीतिक घटनाओं और समस्याओं के बारे में नियमित लिखा। ‘चिट्ठी-पत्री’ (पाठकों के पत्रों) को काफी जगह मिलती थी। लोहिया विचार मंच से जुड़े और बिहार आंदोलन में अपने को झोंक देने वाले कार्यकर्ता बजरंग सिंह, रघुपति, अख्तर हुसैन, शिवानंद तिवारी समेत अनेक युवकों ने भी चौरंगी वार्ता में लिख कर अहम सहयोग किया। ये कार्यकर्ता चौरंगी वार्ता को आम लोगों तक पहुंचाते भी थे यानी वितरण और ग्राहक बनाने में भी हाथ बंटाते थे। वाद-विवाद या प्रतिक्रिया के रूप में कर्पूरी ठाकुर, रामानंद तिवारी जैसे कई नेताओं की बातें छपती थीं।

यहां यह जिक्र देना जरूरी है कि उन दिनों केंद्र और राज्यों में कांग्रेस की सरकारों द्वारा अपने खिलाफ होने वाले आंदोलनों को कुचलने का सिलसिला तेज हो गया था। जिन समस्याओं व मुद्दों को लेकर आंदोलन हो रहे थे, उनका समाधान देने के बजाय वे तानाशाही रुख अपना रही थीं। चौरंगी वार्ता में छपने वाली सामग्री से आंदोलनों को बल मिलता था और दिशा भी मिलती थी। देश भर में केंद्र व राज्य सरकारों के खिलाफ लगातार आंदोलन तेज होने लगे थे। कहना न होगा कि सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ विरोधी पार्टियां आंदोलन नहीं कर रही थीं, बल्कि छात्रों, युवकों के स्वत:स्फूर्त आंदोलन उभर रहे थे। उनमें युवजनों की हिस्सेदारी बढ़ने लगी थी। गुजरात और उसके बाद बिहार में छात्रों और युवकों के आंदोलन असरदार होने लगे थे। चौरंगी वार्ता में आंदोलन की खबरें भरी रहती थीं। विभिन्न राज्यों से, खासकर बिहार और उत्तर प्रदेश व दिल्ली के छात्र व युवक उससे जुड़ने लगे थे। चौरंगी वार्ता ने विभिन्न इलाकों के छात्रों व युवकों से लेकर मजदूरों, किसानों, आदिवासियों, दलितों, महिलाओं, मुस्लिमों, सफाई कर्मचारियों, देह व्यापार के लिए विवश युवतियों की समस्याओं, दबंगों-गुंडों-पुलिस के अत्याचारों संबंधी खबरें और लेख लिखवाये। चौरंगी वार्ता से जुड़े छात्रों व युवकों में आम लोगों से जुड़ने और लिखने की समझ पैदा हुई। बाद के दिनों में उनमें से कई पत्रकार-लेखक भी हो गए। चौरंगी वार्ता की यह एक उपलब्धि ही कही जाएगी कि उसने पढ़ने-लिखने के रुझान और जनपक्षधर अभिव्यक्ति को मंच प्रदान किया।

डा. लोहिया के निधन के बाद संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं में संगठन में वर्चस्व को लेकर तनातनी गहराने लगी। चौरंगी वार्ता में इससे संबंधित तमाम सामग्री छपीं। चौरंगी वार्ता सिद्धांत-नीति को लेकर खुलकर बहस करने का अच्छा-खासा मंच भी बनी। पत्रिका में पटना और भागलपुर में संसोपा के सम्मेलन में नेताओं के बीच हुए विवाद पूरे-पूरे छपे। इसके पीछे न कुछ छिपाने की और न कुछ छिपने देेने की मंशा थी। पत्रिका समाजवादियों की थी लेकिन तथ्यों को छापने में किसी तरह की कोताही नहीं होने दी जाती थी। पत्रिका में “भारत में समाजवादी आंदोलन का संकट” कई किस्तों में छपा। लेखक की जगह ‘एक समाजवादी’ छापा गया। इसी तरह कई ऐसे लेख छपे जिनमें लेखक के नाम की जगह “सांवादिक” छापा गया। बांग्ला में सांवादिक का मतलब संवाददाता या रिपोर्टर होता है। संस्कृति, कला, खेल, फिल्म की कई महत्त्वपूर्ण रिपोर्टें छपीं। यहां यह उल्लेख कर देना उचित होगा कि अशोक सेकसरिया ने खुद छद्म नामों से कई लेख लिखे। वे सबका लिखा ठीकठाक करते थे, पर अपना नाम कभी नहीं छपने दिया। अलबत्ता, बिहार आंदोलन में जयप्रकाश नारायण के सलाहकार-सहयोगी रहे ओेमप्रकाश दीपक के निधन के बाद बतौर श्रद्धांजलि जो लेख लिखा वह अपने नाम से लिखा।

चौरंगी वार्ता ने लोहिया विचार मंच के गठन के बाद उसकी गतिविधियों की खबरें छापकर उसे ताकत और उसके कार्यकर्ताओं को जुझारू बनने की प्रेरणा दी। 1972 के बाद बिहार आंदोलन तेज होता गया। उसमें जोखिमभरी भागीदारी करने में लोहिया विचार मंच के कार्यकर्ता किसी भी दूसरे छात्र व युवा संगठन के कार्यकर्ताओं से पीछे नहीं थे।

जब जयप्रकाश नारायण बिहार आंदोलन में अगुवाई करने लिए आ गए तो चौरंगी वार्ता अपनी अहम भूमिका की वजह से बिहार आंदोलन की आवाज बन गई। एक तरफ जयप्रकाश नारायण के सभी कार्यक्रमों की रपटें छपती थीं, तो दूसरी तरफ केंद्र और राज्य सरकारों की हरेक जनविरोधी करतूत के बारे में बताया जाता था। जयप्रकाश नारायण के भाषण या बयान विस्तार से छपते थे। उनपर लाठीचार्ज की खबर तो विस्तार से छपी ही, सत्ता के दमनकारी चरित्र के बारे में बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी गयी। अंग्रेजी पत्रिका ‘एवरीमैंस’ में “जेपीज मैनिफेस्टो फार ए न्यू बिहार” छपा था, उसका हिंदी अनुवाद कर “जयप्रकाश नारायण का घोषणापत्र” छापा गया। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बारे में इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आ जाने के बाद चौरंगी वार्ता ने यह अनुमान लगा लिया था कि देश में आपातकाल लागू किया जाएगा। सत्ता में बने रहने के लिए श्रीमती इंदिरा गांधी ने आखिरकार आपातकाल लागू कर ही दिया।

चौरंगी वार्ता के तेवर को देखते हुए नागार्जुन ने आंदोलन की कामयाबी के मकसद से कई लेख लिखे। फणीश्वरनाथ रेणु ने भी कई लेख लिखे। उनकी बांग्ला में लिखी एक कविता “डेट लाइन पाटना –चार थेके आठारो नभम्बर” ज्यों की त्यों छपी। हिंदी भाषी पाठकों को ध्यान में रखकर हिंदी अनुवाद छापा गय। रेणु की ओर से राष्ट्रपति और राज्यपाल को लिखा पत्र चौरंगी वार्ता में प्रमुखता से छपा। उन्होंने विरोधस्वरूप पद्मश्री वापस कर दिया था। समय-समय पर कई साहित्यकारों ने इस पत्रिका में लेख लिखे। जो भी छात्र, युवक, कार्यकर्ता, नेता, बुद्धिजीवी एक बार इस पत्रिका से जुड़ा, वह जुड़ा ही रहा।

‘चौरंगी वार्ता’ में ‘दस्तावेज’ के तहत विभिन्न मसलों पर डा. लोहिया के लेख छापे जाते थे। गांधीजी के लेख भी छपे। ‘दस्तावेज’ के तहत ही ‘लोकसभा में डा. लोहिया’ और दूसरे समाजवादी सांसदों द्वारा उठाए गए मुद्दों को भी छापा गया। गांधी और आंबेडकर की बीच की नजदीकी के बारे में महत्त्वपूर्ण लेख छपे, तो गांधी और नेहरू के बीच बढ़ी दूरी के बारे में भी लेख छपे।

एक बात का उल्लेख किए बिना नहीं रह सकता कि चौरंगी वार्ता में ऐसे शब्द व वाक्य के प्रयोग पर जोर दिया जाता था जिसे कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी समझ ले। आम लोग जिन शब्दों को बोलते, लेकिन जो मानक नहीं समझे जाते थे, उन शब्दों को बेझिझक प्रयोग किया जाता था, जैसे – कांगरेस, पारटी, रपट, टेसन, सनीमा, फोटू आदि-आदि। ऐसे शब्दों की लंबी सूची बन सकती है।

‘चिट्ठी-पत्री’ (पाठकों के पत्रों) को काफी जगह दी जाती थी। इस बात का ध्यान रखा जाता था कि कोई पाठक चौरंगी वार्ता की गलतियां बताता है तो वह प्रमुखता से छपे। कोई अपने यहां की समस्या लिखता है तो वह जरूर छपे। लड़कियों-महिलाओं के पत्र जरूर छापे जाते थे।

चौरंगी वार्ता को आर्थिक समस्या से हर समय जूझना पड़ता था। शुरू में कीमत दस पैसे थे। बाद में कीमत बढ़ाई गई पर मामूली। विज्ञापन कभी-कभार मिल जाता था। खर्च ज्यादा था, प्रतियों के बिकने से जो आय होती थी, वह नाममात्र की होती थी। संयुक्तांक निकालने की नौबत आती रहती थी। कई बार चाहकर भी तस्वीरें नहींं छप पाती थीं। पुलिस की मार से काफी जख्मी हुए अस्पताल में भर्ती रामइकबाल की फोटो किसी तरह छपने की व्यवस्था हो पायी थी। उसी तरह अख्तर हुसैन की भी तस्वीर छप पायी थाी। ओमप्रकाश दीपक का निधन होने पर उनकी पासपोर्ट साइज की फोटो छपी थी। बराबर आर्थिक संकट होने पर भी चौरंगी वार्ता की तेजस्विता में कभी कमी नहीं आयी। अब तो चौरंगी वार्ता बस इतिहास है।

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  1. लोहियावादी समाजवादी दल के मुखपत्र”जन’और”मैन काइंड” के बंद हो जाने के बाद कुछ समर्पित समाजवादियों द्वारा पूरक पत्र के रूप में”चौरंगी वार्ता” का कलकत्ता से प्रकाशन आरंभ हुआ।इसकी भूमिका का लेखा जोखा का विश्लेषण -विवेचन पत्रकार गंगा प्रसाद ने किया है।बिहार में चलने वाले जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन को तीव्र से तीव्रतर बनाने में वार्ता की उल्लेखनीय भूमिका रही है।
    गंगा प्रसाद ने इसके सभी पहलुओं पर बेबाक टिप्पणी की है।
    – भोला प्रसाद सिंह, कोलकाता

  2. इस लेख के माध्यम से चौरंगी वार्ता के बारे में विस्तार से जानने मिला l
    गंगा प्रसाद जी को साधुवादl

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