— रघु ठाकुर —
देश में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रणाली को लेकर बहस जारी है। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश कॉलेजियम सिस्टम को जारी रखने के पक्ष में हैं। सुप्रीम कोर्ट इसे संवैधानिक मानता है, जबकि केन्द्र सरकार जजों की नियुक्ति को अपना अधिकार या अपनी विशिष्ट भूमिका रूपी संवैधानिक अधिकार मानती है। यह बहस पिछले दो-ढाई दशकों से चल रही है। इस बहस को भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़, जो स्वयं बड़े वकील रहे हैं, ने राज्यसभा में यह कहकर हवा दी कि राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) के कानून को 2015 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा खारिज करना उचित नहीं था तथा वह जनादेश का असम्मान करने वाला कदम था क्योंकि उसे लोकसभा और राज्य़सभा ने पास किया था। भारत के कानून एवं न्यायमंत्री किरेन रिजिजू ने भी कोलेजियम सिस्टम को जनविरोधी कहा था जबकि सर्वोच्च न्यायालय 2015 में 4-1 से बहुमत से एनजेएसी कानून को अवैध करार देकर निरस्त कर दिया था।
सबसे पहले तो जजों को नियुक्ति के लिए संविधान के अनुच्छेद 124(2) और 217(1) को देखें जिसकी व्याख्या को लेकर केन्द्र और न्यायपालिका में टकराव है। अनुच्छेद 124(2) के अनुसार सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा प्रधान न्यायाधीश और अन्य अधिकृत न्यायाधीशों के परामर्श से की जाएगी। हाई कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति अनु. 217(1) के अनुसार भारत के प्रधान न्यायाधीश, राज्य के राज्यपाल और हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श के बाद राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी। सुप्रीम कोर्ट ने जो कोलेजियम प्रणाली बनायी है, उसके अनुसार केन्द्र सरकार कोलेजियम द्वारा स्वीकृत सूची को इनकार कर सकती है परन्तु कोलेजियम पुनः उन्हीं नामों को भेजता है, तो केन्द्र को उसे मानना होगा।
दरअसल, अनु. 124(2) और 217(1) की व्याख्या को लेकर यही मूल मतभेद है, और अप्रत्यक्ष रूप से न्यायपालिका और सरकार अपनी-अपनी श्रेष्ठता नियुक्तियों में कायम रखना चाहती हैं। कोलेजियम प्रणाली 1950 में संविधान लागू होने के समय विकसित नहीं हुई थी और 1990 के पहले तक तो केन्द्र सरकार की पसंद-नापसंद ही सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति का आधार होती थी। 1976 में आपातकाल में भारत सरकार ने तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों की वरिष्ठता को नकारते हुए जस्टिस एन. राय को प्रधान न्यायाधीश नियुक्त किया था। कहा जाता है कि इन तीन न्यायाधीशों ने केन्द्र बनाम केशवानंद भारती प्रकरण में केंद्र के कानून के खिलाफ निर्णय दिया था जिसके लिए उन्हें तत्कालीन केन्द्र सरकार ने दंडित किया था और जस्टिस राय की नियुक्ति के बाद उन्होंने उस मामले पर बगैर किसी याचिका केवल मौखिक अनुरोध के आधार पर सुनवाई की तथा पुरानी बेंच को रद्द कर नयी पीठ का गठन किया जिसने सरकार के अनुकूल फैसला दिया। यह एक प्रकार से स्वतंत्र न्यायपालिका के सत्ता समर्पित और प्रतिबद्ध न्यायपालिका में बदलने की शुरुआत थी।
अस्थिर सरकारों से समस्या
1990 के बाद सुप्रीम कोर्ट ने न्यायाधीशों की नियुक्ति में अपने दखल को बढ़ाया तथा कोलेजियम प्रणाली को संवैधानिक व्यवस्था का दर्जा देकर नियुक्तियों में अपनी श्रेष्ठता कायम की। उस समय केन्द्र में मिलीजुली, जोड़-तोड़ वाली और अस्थिर सरकारें थीं। इसलिए इस निर्णय को केन्द्र ने आसानी से स्वीकार कर लिया। शायद कोलेजियम निर्णय के पीछे सामाजिक श्रेष्ठता भी एक कारण है। 1990 में मंडल कमीशन की कुछ सिफारिशों को लागू किये जाने के बाद समाज और सरकार के एक हिस्से और न्यायपालिका में आरक्षण और हिस्सेदारी की माँग तेज हुई थी। देश की जाति व्यवस्था की श्रेष्ठता को, आरक्षण के प्रयोग को बचाए रखने की केन्द्र और न्यायपालिका के बीच यह अलिखित सहमति जैसी थी और जिसके प्रमाण पिछले दो-तीन दशकों के निर्णयों में नजर आ रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट में अनुसूचित जाति के न्यायाधीश की नियुक्ति के लिए अटल सरकार पर तत्कालीन राष्ट्रपति के.आर. नारायण का भारी दबाव था। यहाँ तक कि उन्होंने कई बार सार्वजनिक रूप से अपनी राय और इच्छा को व्यक्त किया था। उनके दबाव में अनुसूचित जाति के एक न्यायाधीश की नियुक्ति हुई जो बाद में प्रधान न्यायाधीश बने परंतु यह भी कटु सत्य है कि उन्होंने न्यायपालिका के वर्गीय चरित्र में बदलाव करने का प्रयास नहीं किया। अपना कार्यकाल आत्म-संतुष्ट होकर गुजारा। एक न्यायाधीश जस्टिस कर्णन ने अपनी रक्षा के लिए जाति को आधार और तर्क भी बनाया। उन्होंने कोलकाता हाई कोर्ट के जज रहते हुए सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को ही स्वप्रेरणा से तलब करने का आदेश जारी कर दिया। उनका यह कदम घोर अविवेकी, असंवैधानिक और अमर्यादित था। देश में सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट से सदैव वरीय है, और माना भी जाना चाहिए। जब उन्हें सुप्रीम कोर्ट ने दंडित किया तो उन्होंने जातीय तर्क देकर अपनी त्रुटि को उचित बताने का प्रयास किया। ये दो प्रकार की प्रवृत्तियाँ न्यायालय के समावेशी चरित्र का निर्माण नहीं होने दे रही हैं।
शीर्ष न्यायाधीशों को कानून से मिली मुक्ति कितनी उचित?
शीर्ष न्यायाधीशों को कानून से जो मुक्ति मिली है, क्या उचित है?न्यायाधीशों के लिए दंडित करन या हटाने को महाभियोग का प्रावधान है परंतु आज तक क्या किसी न्यायाधीश पर महाभियोग पारित हो सका? एक न्यायाधीश, जो दक्षिण के थे, के विरुद्ध महाभियोग प्रस्ताव आया। दक्षिण के क्षेत्रीय सांसद एकजुट हो गये और तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह रव पर दबाव बनाया। न्यायाधीश महोदय का एक बयान आया कि वे त्यागपत्र दे रहे हैं, और इस आधार पर महाभियोग वापस हो गया। बाद में वे इस्तीफा देने से मुकर गए और पूरे समय तक कार्यरत रहे।
पूर्व प्रधान न्यायाधीश जस्टिस गोगोई और अन्य न्यायाधीशों ने प्रेस वार्ता कर याचिकाओं और मुकदमों के लिए पीठों के आवंटन को लेकर विरोध दर्ज किया था परंतु वे जब स्वयं प्रधान न्यायाधीश बने तो वह भूल गए। अब वे राज्यसभा के सदस्य हैं। क्या इन मामलों और पुनः नियुक्तियों से स्वयं न्यायपालिका ने अपनी साख नहीं गिराई है? मेरी राय में तो यह संवैधानिक प्रावधान होना चाहिए कि कोई भी न्यायाधीश प्रथम श्रेणी का प्रशासनिक अधिकारी सेवानिवृत्ति के बाद किसी भी रूप में पुनर्नियुक्ति नहीं पा सकेगा वरना सरकारों ने कुछ कुर्सियाँ सुरक्षित कर दी हैं, जो न्यायपालिका के लिए हैं। आपातकाल में तो न्यायपालिका के अधिकार सत्ता ने छीने थे। अब तो न्यायपालिका स्वयं अपने अधिकार सत्ता के चरणों में समर्पित कर रही है।
परिवारवाद और चैंबरवाद
न्यायपालिका में क्या परिवारवादया चैंबरवाद नियुक्तियों का माध्यम नहीं है? क्या हाई या सुप्रीम कोर्ट में सामान्य या गरीब आदमी को न्याय पाना संभव है? अँग्रेजी भाषा, याचिका की बढ़ी हुई राशि, महँगे वकील और दशकों तक मुकदमा लड़ना क्या किसी गरीब के लिए संभव है? पीड़ित सामान्य व्यक्ति जिसे अपना घर-द्वार बेचकर मुकदमा लड़ना पड़े और दूसरी तरफ राजकोष को लुटाकर व्यवस्था मुकदमे लड़े, तो क्या यह न्यायिक समानता है?सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस भगवती ने पोस्ट कार्ड को याचिका के रूप में स्वीकार किया था और भारत सरकार को बँधुआ मुक्ति कानून बनाने को बाध्य किया था। मैं उन्हें सलाम करता हूँ परंतु अब तो याचिका पेश करना सामान्य व्यक्ति- जिसके पास सत्ता, पैसा, ताकत या प्रचार के साधन न हों- के लिए असंभव जैसा है। आजकल न्यायपालिका उपदेशक बन गयी है, जिसकी टिप्पणियाँ मीडिया में प्रमुखता से छपती हैं परंतु इनमें कोई आदेश नहीं होता। ये केवल उपदेश होती हैं, निर्णय नहीं। इसी प्रकार एक नयी परिपाटी व्यवस्था को बचाने और वकीलों को खुश करने की शुरू हुई है कि पीड़ित पक्षकार, जिसके विरुद्ध प्रकरण लाता है, न्यायपालिका, अपवाद छोड़कर, उसी के पास पुनः निर्णय के लिए उसे वापस भेज देती है। क्या यह न्यायपालिका के निर्णय देने के दायित्व से इनकार करना नहीं है?
आज न्यायपालिका में करोड़ों मुकदमे लंबित हैं परंतु सरकार और न्यायपालिका में मतभेद के चलते उच्च न्यायालयों में 33 प्रतिशत पद रिक्त हैं, सरकारें न नियुक्ति करती हैं, न स्वीकार करती हैं। लाखों लोग वर्षों से जेलों में बंद हैं, जिनकी सुनवाई नहीं हो पा रही है। भारत की राष्ट्रपति माननीया द्रौपदी मुर्मू ने अच्छे ढंग से इस मुद्दे को न्यायाधीशों के सम्मेलन में उठाया था। उच्च न्यायपालिका संविधान प्रदत्त जनता के मूल अधिकारों को उपेक्षित कर रही है, सरकारों के साथ याराना निभाती है। आमजन कोलेजियम को न्यायिक प्रणाली को एक वर्ग में कैद रखने का तरीका मान रहा है, वहीं एनजेएसी को भी न्यायपालिका को सरकार के नियंत्रण में करने का रास्ता मान रहा है। दोनों की साख दाँव पर है, दोनों कठघरे में हैं। अभी फिर 15 जनवरी 23 को केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने भारत के प्रधान न्यायाधीश को पत्र लिखकर कोलेजियम में सरकार के प्रतिनिधियों को शामिल करने का सुझाव दिया है। उनका कहना है कि यह पक्ष एनजेएसी के फैसले के समय सुप्रीम कोर्ट द्वारा चर्चित सुझावों पर आधारित है। कहा जाता है कि इस पत्र में उन्होंने सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों के चयन के लिए केन्द्र और राज्य के प्रतिनिधियों वाली ‘खोज एवं मूल्यांकन समिति’ गठित करने की माँग की है। सरकारों का फैसला तो जनमत करेगा परंतु अगर न्यायपालिका ने अपने आपको नहीं बदला तो कोई दिन ऐसा आएगा जब सरकार न्यायपालिका को घुटनाटेक कराएगी और निराश जनमत खुश होकर ताली बजाएगा। कोलेजियम की बहस न्यायपालिका के लिए चेतावनी भी है।