क्या ग़ुलामी भी स्वतंत्रता जैसी लगने लगती है?

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— ध्रुव शुक्ल —

म भारत के लोग आज उस कठिन मोड़ पर खड़े हैं जहां से शायद कोई रास्ता हमें नहीं दीख रहा। हमें अपने राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक अतीत की समीक्षा करके कोई रास्ता खोजना चाहिए। अपने जीवन से अपनी आवाज उठाने के लिए कुछ समय निकालना चाहिए।

हमारे पुरखे जब जंगलों में जीवन गुजारते थे तो उन्हीं के बीच से ही कोई स्वयंभू सरदार बनकर उन्हें अपने कबीले के अधीन रखता था। फिर खेती-किसानी के काल में जमींदारों की मनमानियां चलने लगीं। लगान थोपकर दबाया गया। अपना परकोटा घेरकर छोटे-छोटे नगर राज्य बनने लगे और सामन्त ही राजे-महाराजे कहलाये। कई तरह के साहूकारों की उधारियों और जबरन वसूलियों में दबकर हमारे पुरखों को ताकतवर लोगों की बेगार भी करना पड़ी। फिर बेगार करने की आदत भी पड़ गयी होगी।

एक समय बाद छोटे-छोटे नगर राज्यों को मिलाकर बड़ा गणराज्य बनाने का अभियान भी चला और हमारे पुरखे चक्रवर्ती सम्राटों का बोझ उठाकर जीने लगे। पुरखों की हस्तकला और पारंपरिक हुनर ही इन राज्यों की अमीरी बढ़ाया करते थे। यही अमीरी देखकर कुछ लुटेरे अपने गिरोह बनाकर यहां आते रहे और लूटते रहे।

राजे-नवाबों ने लुटेरों से खूब समझौते किये और कई ने तो उनके आगे घुटने टेक कर हमारे पुरखों को अपने हाल पर छोड़ दिया। फिर अपने हाल पर बने रहने की आदत भी पड़ गयी होगी।

हमारे पुरखों की गढ़ी छोटी-छोटी पंचायतें जो गांव के सुख-दुख को पहचानकर कुछ फैसले कर लेती थीं उनकी शक्ति भी छीनी जाने लगी। हम इतिहास पर नजर डालें तो न्याय हमसे दूर ही होता चला गया है और हमारे पुरखे शक्तिवानों के आपसी खेल में फंसते चले गये। आदमी ही अपने जन्मजात स्वभाव को पहचानकर खुद इस नतीजे पर पहुंचा है कि ताकतवर और असहाय दोनों ही अपने-अपने स्वार्थ साधने को ही अपना हित मानते आए हैं। जिसने स्वार्थ साधकर सबको अपने आगे झुका लिया, वह ऊंचा मान लिया गया और जिनने स्वार्थवश उसके आगे झुकना स्वीकार कर लिया, वे फिर कई पीढ़ियों तक पिछड़े ही बने रहे। फिर उन्हें इस पिछड़ेपन की आदत पड़ गयी होगी।

लोकतंत्र की धारणा हमें इसीलिए करना पड़ी जिससे कि सबके स्वार्थ को नियंत्रित किया जा सके। आज हम जिन्हें अपना प्रतिनिधि चुनकर संसद और विधानसभाओं में भेजते हैं उनके बहुमत का मतलब यही है कि वे अपने-अपने स्वार्थ को भुलाकर लोकहित को साध सकें। पर देखने में यह आ रहा है कि वे लोकहित को ही भुलाकर अपने-अपने स्वार्थ उसी तरह साधने लगे हैं जिस तरह बीते जमाने में छोटे-छोटे राजे-नबाब जनजीवन की परवाह किए बिना आपसी समझौते करते थे। उनके वंशज अभी भी पार्लियामेंट में अपना आसन जमाये हुए हैं। यही पुरानी आदत लोकतंत्र में भी नहीं छूटी है।

आज हम बहुत बड़ी वैश्विक व्यवस्था का सामना कर रहे हैं। हमारे मताधिकार से सत्ता पाकर ही हमारे प्रतिनिधियों ने भारत में उस व्यवस्था के लिए दरवाजे खोल दिए हैं। जो हमारे पारंपरिक हुनर तो छीन ही रही है, उस संस्कृति को भी विकृत कर रही है जो संयम और एक-दूसरे के प्रति उदारता के जैविक आधार पर हमारे पुरखों ने ही स्थापित की है।

कहीं ऐसा तो नहीं कि भूलवश अब हम लीडर नहीं, ब्रोकर चुनने लगे हों जो बाजार और हमारे बीच खड़े होकर देश के संसाधनों का सौदा पटा सकें। यह व्यवस्था भी हमारी आदत में शुमार होती जा रही है।

हम देख रहे हैं कि हमारे नेताओं की रची अर्थनीति देश की पूंजी और प्राकृतिक साधनों को कुछ गिने-चुने लोगों के हवाले करती जा रही है। हम उन साधनों से लगातार दूर होते जा रहे हैं जो नैसर्गिक रूप से हमें मिले हैं। हम प्यास बुझाने के लिए बोतलों में बंद पानी, चूल्हा जलाने के सिलेण्डरों में बंद आग और सांस लेने के लिए आक्सीजन भी खरीद रहे हैं। हमारे घर के सपनों पर कई तरह की उधारियों का बोझ डालकर हमें इस तरह घेर लिया गया है कि किसी को अपनी स्वतंत्रता के बारे में सोचने की फुर्सत ही नहीं मिल रही। इसी कारण आज हमारे पास सबके साथ खड़े होकर अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने का समय ही नहीं बच रहा है। बस रोज टुकड़ों में बॅंटी आवाजें उठकर बिखरती रहती हैं। इन टूटी-बिखरी आवाजों के बीच हम और कब तक चुप्पी साधे रहेंगे?

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