भारत में याराना पूॅंजीवाद के सबक

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— कश्मीर उप्पल —

याराना-पूंजीवाद से सबसे जरूरी और महत्त्वपूर्ण सबक यह है कि कैसे भ्रष्ट राजनेताओं और कंपनियों का आपसी गठजोड़ किसी देश की अर्थव्यवस्था को नष्ट कर सकता है। भारत जैसे प्राचीन संस्कृति वाले देश में विशेषरूप से जागरूक रहने की आवश्यकता है क्योंकि ऐसे देश में याराना-पूंजीवाद धर्म और राष्ट्रवाद का मुखौटा पहनकर भी आने का खतरा है।

किसी भी देश में याराना पूंजीवाद की अवस्था उस समय मानी जाती है जब उस देश के प्रमुख और उसके अधिकारियों के द्वारा किन्हीं विशेष पूंजीपतियों के हित में राज्य की नीतियां बनाकर उन्हें कार्यान्वित किया जाता है। ऐसे निर्णय अकसर आपसी समझ, निजी लाभ और किसी भय के अधीन लिये जाते हैं। याराना-पूंजीवाद में लोकहित की भावना अनदेखी रह जाती है। इसलिए इसके अंतर्गत आमलोगों के लिए लोक-लुभावन शब्दावली और उत्सवों का खूब खेल खेला जाता है।

यूरोप में 1500 से 1750 के मध्य का कार्यकाल व्यापार- युग माना जाता है। इस काल में अर्जित धन के बाद ही औद्योगिक क्रांति हुई थी और उसके बाद औद्योगिक युग शुरू हुआ था। इंग्लैड के अमरीकी उपनिवेश समाप्त हो जाने के बाद नए-नए उपनिवेशों की खोज शुरू हुई थी।

महात्मा गांधी ने अपनी कालजयी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ में लिखा है- “हिन्दुस्तान अंगरेजों ने लिया है सो बात नहीं है, बल्कि हमने दिया है। हिन्दुस्तान में वे अपने बल पर नहीं टिके हैं बल्कि हमने उन्हें टिका रखा है वो कैसे सो देखें। आपको मैं याद दिलाता हूं कि हमारे देश में वे व्यापार करने के लिए आए थे। आप अपनी कंपनी बहादुर को याद कीजिए। उसे बहादुर किसने बनाया? वे विचारे तो राज करने का इरादा भी नहीं रखते थे। कंपनी के लोगों की मदद किसने की?”

हमारे देश के वर्तमान परिदृश्य को देखकर लगता है कि भारत के लोग गांधीजी की इस बात को अभी भी नए संदर्भ में ठीक से नहीं समझ सके है। इसे समझने के लिए हमें विलियम डेलरिम्पल की पुस्तकों को पढ़ना होगा। उनकी पुस्तकें ‘अराजकता : ईस्ट इंडिया कंपनी कार्पोरेट हिंसा और साम्राज्य की लूटपाट’ और दूसरी पुस्तक ‘अराजकता : ईस्ट इंडिया कंपनी का निष्ठुर उत्थान’ को पढ़ना जरूरी है। खेद की बात है कि ये दोनों पुस्तकें अभी अंग्रेजी में ही उपलब्ध हैं।

यह लेख इन पुस्तकों की समीक्षा न होकर भारतीय पूंजीपतियों की महत्त्वाकांक्षा पर केंद्रित है जिनकी महत्त्वाकांक्षा के चलते पहले बंगाल फिर टीपू सुल्तान और अंत में दिल्ली में पूरा मुगल साम्राज्य ध्वस्त हो गया था। इन पुस्तकों को उच्च गुणवत्ता के रंगीन चित्रों और तत्कालीन दस्तावेजों के लिए भी देखा जा सकता है। इन पुस्तकों की संदर्भ सूची इस तरह के अध्ययन को आगे बढ़ाने के लिए बहुमूल्य संपत्ति है।

यहां यह भी उल्लेखनीय है कि इन पुस्तकों के लेखक को अपनी इतिहास संबंधी पुस्तकों के लिए पांच डाक्टरेट उपाधि और कई बड़े अंतरराष्ट्रीय महत्त्वपूर्ण पुरस्कार मिल चुके हैं। विलियम डेलरिम्पल अपने परिवार सहित दिल्ली के पास अपने फार्म में रहते हैं। उनकी इतिहास संबंधी और भी कई पुस्तकें हैं।

विलियम डेलरिम्पल बताते हैं कि यह ब्रिटिश सरकार नहीं थी जिसने 18वीं शताब्दी के मध्य में भारत के बड़े हिस्से पर कब्जा करना शुरू कर दिया था बल्कि यह खतरनाक रूप से एक निजी ईस्ट इंडिया कंपनी उपनिवेशवाद के लिए भारत संक्रमण अपने निजी हित के लिए कर रही थी। यह कंपनी अपने निजी लाभ के लिए ही अस्तित्व में आई थी क्योंकि इस कंपनी का उद्देश्य अपने निवेशकों को समृद्ध करना था और अपने उद्देश्य में यह कंपनी बहुत अधिक सफल रही।

यह पुस्तकें ईस्ट इंडिया कंपनी के उत्थान से अधिक भारतीय नवाबों, राजाओं और व्यापारियों के समूहों के पतन का महावृत्तांत है। अकबर से लेकर औरंगजेब (1556-1760) तक चार महान मुगल शासकों ने हिन्दुस्तान पर शासन किया था। इसके बाद बहादुर शाह प्रथम से लेकर शाह आलम द्वितीय (1707-1806) तक 11 शासकों ने शासन किया जिन्हें एक ही शताब्दी के भीतर शर्मनाक तरीके से गद्दी से उतार दिया गया था। इसके लिए ईस्ट इंडिया कंपनी नहीं वरन् भारतीय व्यापारिक घरानों की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी।

‘जगतसेठ’ एक पदवी है जो मुगल बादशाह मुहम्मद शाह ने 1723 में सेठ फतहचंद को एक सील के साथ प्रदान की थी। इस परिवार के ही लोग 150 वर्षों तक जगतसेठ की मोहर लगाकर बंगाल और उत्तर भारत में अपना व्यापार करते थे। इस पूरे परिवार के सदस्यों को जगतसेठ के नाम से जाना जाने लगा था। इस परिवार के पूर्वज मारवाड़ के रहने वाले थे। इस परिवार के हीरानंद साहू मारवाड़ छोड़ पटना में बस गये थे। उन दिनों यह परिवार यूरोपियन शोरा का सबसे बड़ा व्यापारी था। इसके अतिरिक्त यह हुण्डी और कर्ज देने का काम भी करते थे। इनके साथ बैठे थे जो व्यापार करने के लिए उत्तर भारत और बंगाल में बस गये। सेठ के एक पुत्र माणिकचंद ने बंगाल की राजधानी ढाका में अपना व्यापार शुरू किया।

माणिकचंद सेठ को ही जगतसेठ परिवार के संस्थापक के रूप में जाना जाता है। उस समय मुर्शीद खान कुली बंगाल, बिहार और ओड़िशा के सूबेदार थे। सेठ माणिकचंद अपनी सेवाओं से शीघ्र मुर्शीद खान के मित्र बन गये। इसके फलस्वरूप माणिकचंद मुर्शीद खान के खजांची बने और इसके साथ ही उन्हें पूरे सूबे का लगान वसूलने का अधिकार भी मिल गया। इन दोनों ने आपसी सलाह से बंगाल की नई राजधानी मुर्शीदाबाद बसाई जो व्यापार के क्षेत्र में भारत का सबसे बड़ा केंद्र बन गई। इन दोनों ने मिलकर सम्राट औरंगजेब को निर्धारित 1 करोड़ 30 लाख से बढ़ाकर 2 करोड़ का लगान भेजा था। इससे मुर्शीद खान की हैसियत मुगल दरबार में और अधिक बढ़ गई थी।

अब जगतसेठ के व्यापार का केंद्र मुर्शिदाबाद बन गया और उन्होंने ढाका, पटना और दिल्ली सहित उत्तर भारत के कई बड़े शहरों में जगतसेठ की शाखाएं प्रारंभ कर दीं। जगतसेठ कई राजाओं, महाराजाओं के साथ-साथ ईस्ट इंडिया कंपनी, डच और फ्रेंच कंपनियों को भी कर्ज दिया करते थे। उस समय इनका कर्ज लाखों रुपए मासिक में हुआ करता था। यह स्मरण रखना जरूरी है कि मुगल शासनकाल में बंगाल की सीमाएं आज के उसके आसपास के कई राज्यों तक फैली हुई थीं। यह सबसे अधिक समृद्ध और सबसे अधिक लगान देने वाला सूबा बन गया था। जगतसेठ घराना हिन्दुस्तान का सबसे अमीर घराना बन गया, उस समय उनकी संपत्ति 10 करोड़ पौंड के बराबर आंकी जाती थी जो आज के 1 हजार बिलियन पाउंड से भी अधिक होगी। यह परिवार अपनी रक्षा के लिए 2 से 3 हजार सैनिकों की एक निजी सेना भी रखता था। इस परिवार के पास अविभाजित बंगाल की कुल जमीन में से आधी जमीन का मालिकाना हक था।

इस परिवार की ढाका में महलनुमा एक कोठी थी जो आज के बांग्लादेश में एक संग्रहलय के रूप में आज भी स्थित है। जगतसेठ आगे चलकर अपने लाभ के लिए नवाबों को हटाने और बनाने का षड्यंत्र भी रचने लगा था। इस संबंध में विलियम डेलरिम्पल लिखते हैं कि सिराजुद्दौला (सिराज) की सबसे बड़ी भूल यह थी कि उसने जगतसेठ की व्यापारिक नीतियों से नाराज होकर जगतसेठ से अपनी दूरियां बढ़ा ली थीं। बंगाल में शासन करने वाले जगतसेठ को अपने अनुकूल बनाये रखते थे।

बंगाल में ईस्ट इंडिया कंपनी अपने इरादों में सफल नहीं होती यदि उस समय की आर्थिक शक्ति जगतसेठ और कुछ अन्य सेठ ईस्ट इंडिया कंपनी को कर्ज नहीं देते। इन सेठों की सहायता से ही कंपनी ने बड़ी मात्रा में तोपें, घोड़े, हाथी, बैलगाड़ियां, सैनिक और हथियार खरीदे थे। इसके परिणामस्वरूप ही कंपनी अपने नवाबों के सामने अधिक शक्तिशाली होकर खड़ी हो गई थी। डेलरिम्पल बताते हैं कि 1757 के प्लासी युद्ध में यूरोपियन युद्ध तकनीक और प्रशासनिक क्षमता की कोई भूमिका नहीं थी। इस भूमिका को भारतीयों द्वारा ही निभाया गया था।

डेलरिम्पल यह भी बताते हैं कि जगतसेठ की राजनैतिक समझ उतनी ही बड़ी हो गई थी जितनी बड़ी उनकी संपत्ति थी। बंगाल के नवाबों से जगतसेठ और कंपनी के मध्य विवाद के कारण प्रमुख रूप से व्यापार और लगान जैसे आर्थिक मुद्दे ही थे। भारत के भाग्य का निर्णायक युद्ध ब्रिटिश साम्राज्य से अधिक ईस्ट इंडिया कंपनी के हितों के कारण हुआ था।

1757 के प्लासी युद्ध में जगतसेठ ने मीर जाफर और ईस्ट इंडिया कंपनी का साथ दिया था। इस युद्ध में सिराज की हार पहले ही सुनिश्चित हो चुकी थी। याराना-पूंजीवाद का रंग इस युद्ध के पहले कुछ और था और युद्ध के बाद इसके रंग में परिवर्तन हो गये जिसका सीधा प्रभाव जगतसेठ के आर्थिक हितों पर पड़ना शुरू हो गया। जगतसेठ यह भूल गये थे कि ईस्ट इंडिया कंपनी अपने आर्थिक हितों के कारण ही भारत में सक्रिय है। कंपनी के हित यहां बढ़ने शुरू हुए वहां से जगतसेठ के हित कम होने भी शुरू हो गये।

प्लासी का युद्ध

मीर जाफर ने बंगाल का नवाब बनते ही ईस्ट इंडिया कंपनी को व्यापार करने के साथ-साथ 24 परगना की जमींदारी भी सौंप दी थी। कुछ समय बाद मीर जाफर का दामाद मीर कासिम नबाव बना तो उसने ईस्ट इंडिया कंपनी को व्यापार करने के लिए और अधिक अधिकार ही नहीं दिये बल्कि ईस्ट इंडिया कंपनी और जगतसेठ से दूरी बनाये रखने के लिए अपनी राजधानी मुर्शिदाबाद से मुंगेर ले गया। इस प्रकार जगतसेठ के पास बंगाल का खजांची और लगान एकत्रित करने का एकाधिकार नहीं रह गया था। दूसरी ओर अंग्रेजों ने भी जगतसेठ के स्थान पर अन्य सेठों के घरानों के साथ व्यापार शुरू कर दिया था।

राज्य और शासन की इन विपरीत परिस्थितियों में जगतसेठ के परिवार का आर्थिक सामाजिक पतन शुरू हो गया। जगतसेठ की सहायता से युद्ध जीत जाने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने उसका कोई कर्ज होने से ही इनकार कर दिया। जबकि जगतसेठ ने अपने सारे संसाधन कंपनी की जीत के लिए दांव पर लगा दिये थे। इस झटके से जगतसेठ का मानसिक संतुलन भी बिगड़ गया। ईस्ट इंडिया कंपनी ने जगतसेठ की सेवाओं के बदले 1912 तक उसके घराने के किसी न किसी व्यक्ति को थोड़ी बहुत पेंशन दी थी। इसके बाद यह पेंशन भी बंद कर दी गई। इस प्रकार जगतसेठ का नाम सदा के लिए व्यापार जगत से मिट गया। इतिहास में ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि मीर कासिम के आदेश से सन् 1763 में जगतसेठ के परिवार के कई सदस्यों की हत्या करा दी गई थी और उनके शरीर को मुंगेर किले के बाहर फेंक दिया गया था।

राबर्ट क्लाइव ने पलासी की जीत के बाद कहा था कि भारतीय अकर्मण्य, विलासी, अज्ञानी और कायर होते हैं। देश और सूबों की सत्ता से जुड़े लोग महत्त्वाकांक्षी, सत्ता के भूखे और अविश्वसनीय रूप से कंजूस थे।

ईस्ट इंडिया कंपनी की जीत का सबसे विपरीत प्रभाव आम जनता और किसानों पर पड़ा था। इस कंपनी ने अब अपनी जमींदारियां नीलाम करना शुरू कर दिया था। सबसे अधिक बोली लगाने वालों को जमींदारी दी जाती थी और उसके पैसा नहीं देने पर उसे हटाकर दूसरे व्यक्ति को रख दिया जाता था। इससे परम्परागत सौहार्दपूर्ण जमींदारी प्रथा समाप्त हो गई और किसानों पर अत्यधिक अत्याचार करने वाले लोग जमींदार बनने लगे। भारतीय फिल्म ‘साहब, बीवी और गुलाम’ में जमींदारी प्रथा से टूटे हुए जमींदारों के परिदृश्य को एक कहानी के माध्यम से दर्शाया गया है। अंग्रेज इतिहासकार विलियम डिगवी लिखते हैं कि हमारे आने से पूर्व बंगाल में 100 वर्षों में तीन अकाल पड़ते थे। हमारे आने के बाद इन अकालों की संख्या बढ़कर 33 हो गई थी। इस काल में बंगाल में लाखों लोगों की मृत्यु भोजन न मिलने के कारण हुई थी।

इससे स्पष्ट होता है कि याराना-पूंजीवाद देश के आम लोगों के हितों व कल्याण के लिए कितना खतरनाक साबित होता है। इस इतिहास से हमें कई सबक मिलते हैं- पहला सबक यह कि विदेशी कंपनियों के माध्यम से देशी कंपनियां भी अपने देश के लिए आर्थिक खतरा बन सकती हैं जैसा कि हम श्रीलंका और पाकिस्तान की वर्तमान स्थिति के बारे में देखते हैं। दूसरा सबक है कि विदेशों की महाकाय कंपनियों के साथ व्यापारिक समझौते कैसे आम आदमी के जीवन को प्रभावित करते हैं, ऐसा हमने महाराष्ट्र में एनरॉन बिजली कंपनी के मामले में देखा है। भारत के किसानों को उनकी फसल का सही मूल्य न मिलना और कृषि लागत में लगातार वृद्धि हो जाना विश्व की बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नीतियों के फलस्वरूप ही हो रहा है।

याराना-पूंजीवाद से सबसे जरूरी और महत्त्वपूर्ण सबक यह है कि कैसे भ्रष्ट राजनेताओं और कंपनियों का आपसी गठजोड़ किसी देश की अर्थव्यवस्था को नष्ट कर सकता है। भारत जैसे प्राचीन संस्कृति वाले देश में विशेषरूप से जागरूक रहने की आवश्यकता है क्योंकि ऐसे देश में याराना-पूंजीवाद धर्म और राष्ट्रवाद का मुखौटा पहनकर भी आने का खतरा है।

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